महा याजक शाल्वनेक का अनायास ही आगमन हुआ। श्रेष्ठि उदयन ने उनका समुचित स्वागत सत्कार किया। दूसरे दिन ज्ञान दीक्षा का क्रम चल पड़ा। महा याजक ने अपनी अनेक संग्रहित विद्याओं का परिचय देते हुए उदयन से पूछा वे जिसमें भी रुचि रखते हों, उनके सम्बन्ध में पूछें और प्राप्त करें। श्रेष्ठि ने पूछा- “क्या ऐसा सम्भव है आपने जो-जो जाना है, उस सबके मूल आधार को ही मुझे प्रदान करने का अनुग्रह कर दिया जाय?”
महा याजक असमंजस में पड़े धीरे-धीरे सिर हिला रहे थे। उनकी कठिनाई दूर करने के लिए उदयन ने घर में प्रयुक्त होने वाले अनेकों पात्र उपकरण प्रस्तुत कर दिये और फिर पूछा- “देव! इन सबको क्या एक ही रथ में भरकर नहीं ले जाया जा सकता।” शाल्वनेक की आँखें खुल गईं। उन्होंने नव चेतना अनुभव की और कहा- “ऐसा हो सकता है। एक ही आत्म-ज्ञान के समुद्र में ज्ञान की समस्त सरिताओं का समावेश हो सकता है। मैं अब उसी को उपलब्ध करूंगा और जब प्राप्त कर सकूँगा तो आपको ज्ञान दीक्षा का साहस करूंगा।”
महा याजक चले गये। श्रेष्ठि ने श्रद्धापूर्वक उनके इस प्रयाण को मस्तक झुका दिया।