डार्विन के सिद्धांत के अनुसार सृष्टि में सर्वाधिक प्रभावशाली प्रेरक शक्ति जो सृष्टि के हर प्रकार के जीवों को क्रियाशील करती है वह है - सेक्स। लेकिन नवीनतम वैज्ञानिक अनुसंधानों से प्राप्त तथ्यों के अनुसार अपने निवास स्थानों पर कब्जा जमाए रहने वाली, अधिकार जताने वाली प्रवृत्ति सबसे प्रबल है। सामान्यतः सेक्स प्रवृत्ति का सम्बन्ध उचित तापमान से जोड़ा जाता है। एक प्रयोग में किसी कृत्रिम जलाशय (जिसमें अनेक जल-चर जन्तु थे) का तापमान क्रमशः अधिकाधिक गिराया गया। तापमान यहाँ तक नीचे चला गया कि उनकी सेक्स वृत्ति सर्वथा सो गई। लेकिन यह देखा गया कि विभिन्न जलचरों के अपने-अपने रहने के लिए नियत किये हुए स्थान पर किसी ने कब्जा करने का प्रयास किया तो उनकी ओर से शत्रु का डटकर मुकाबला किया गया।
“अफ्रीकन जेनेसिसः रिवोल्यूगन इन दि नेचुरल साइन्सेस” (लेखक रोबर्ट आड्रे) एवं “टेरिटरी इन वर्ड लाइफ” लेखक ब्रिटिश एमेचर ऑर्नीथोलॉजिस्ट-इलियट हॉवर्ड) इन दोनों पुस्तकों में कई रोचक विवरण इस संदर्भ के छपे हैं। सुदूर स्थानों की यात्रा करने वाले पक्षियों में यह पाया गया है कि मादाओं की अपेक्षा नर पक्षी आगे रहते हैं। नये स्थान पर पहुँचकर किसी स्थान अथवा वृक्ष विशेष पर बैठकर नर पक्षी गीत गाता है। जिसका अर्थ होता है- यह स्थान हमारे लिए सुरक्षित है और इस पर किसी के द्वारा अधिकार जमाना वर्जित है। जो जितना अच्छा और सुरक्षित स्थान चुनता है उसके अनुसार उसे मादा मिल जाती है। डार्विन ने केवल सेक्स को ही महत्व दिया था। परन्तु यह पूर्ण सत्य नहीं है। सेक्स से भी अधिक प्रबल भावना मनोविज्ञानवेत्ताओं के अनुसार अधिकार की है।
पक्षियों के अधिकार जताने का माध्यम उनके गीत और चहचहाहट हुआ करती है। जबकि पशु और कीट-पतंगों में स्थान जताने का माध्यम गंध हुआ करते हैं। विशेषकर स्तनधारी प्राणियों की घ्राण शक्ति बहुत तेज हुआ करती है। शेर और बाघ आदि किसी स्थान पर अधिकार जताने के लिए वहाँ पेशाब कर देते हैं जिससे तीव्र गन्ध आती है। कीट-पतंगों तथा कई पशुओं में गन्ध पैदा करने वाली ग्रन्थियाँ हुआ करती हैं। कई प्रकार के हिरनों में आँख के ऊपर एक ग्रन्थि होती है जिसके स्राव की गन्ध विशेष से उनके स्थान का पता लगता है अपने अधिकार क्षेत्र के पेड़ों व डाली-पत्तियों से वे इस स्राव को घिस देते हैं।
ज्यूरिख (पं. जर्मनी) के चिड़ियाघर के डायरेक्टर डॉ. हाइने हेढिगर लेखक को चिड़ियाघर में एक बन्दर के पिंजड़े के पास ले गये। उस समय बन्दर बैठा हुआ था। इन दोनों प्रेक्षकों को आते देखकर उनके ठीक सामने पड़ने वाले लोहे की छड़ पर कोई साँकेतिक निशान बनाकर पुनः अपने स्थान पर जा बैठा और ऊपर से अपनी मुखाकृति ऐसी बनाने लगा मानों उनसे कह रहा हो- “कहाँ घुसे चले आ रहे हो? देखते नहीं यह मेरा घर है।” इस घटना को देखकर लेखक को इसके पीछे छिपा सिद्धांत बताते हुए डॉ. हाइने हेडिगर ने बताया कि पिंजरे में कैद पशु-पक्षी प्रारम्भ में पिंजरे से छूट भागने का हर सम्भव प्रयास करते हैं। लेकिन कुछ समय बीतने पर जब उससे स्थायित्व का भाव आ जाता है तो पिंजरे से खुद बाहर जाने की अपेक्षा- स्वयं तो उसी में रहना पसन्द करते हैं लेकिन बाहर से उसमें घुसने वालों को रोकने का हर सम्भव प्रयास करते हैं। डॉ. हेडिगर ने आगे बताया कि निवास के प्रति लगाव के कई दृष्टान्त आप जंगल में भी पायेंगे। पशु-पक्षियों के निवास के लिए छत या दीवार की व्यवस्था नहीं होती फिर भी विभिन्न प्रयोगों के लिए वे अलग-अलग स्थान अंकित कर लेते हैं। जैसे भोजन का स्थान, सोने का स्थान, शिशु पालन का स्थान और सूर्य स्नान के लिए छतों की व्यवस्था वे स्वतः कर लेते हैं। यह पाया गया है कि प्रत्येक पशु-पक्षी अपने शरीर की स्वच्छता के प्रति विशेष रूप से जागरुक होता है। यदि मल विसर्जन, स्नान, स्वच्छता इत्यादि की आम व्यवस्था उपलब्ध न हो तो प्रत्येक जीवधारी अपने निजी निवास स्थान पर ही इसकी व्यवस्था बनाता है। सामान्यतः संपत्तिवान मनुष्य अपने अधिकार और सम्मान की अवहेलना पसन्द नहीं करते। कई पशुओं में यह प्रवृत्ति इसी रूप में पायी जाती है। पशुओं में सबसे उच्छृंखल और बर्बर भेड़िया होता है। लेकिन भेड़ियों में पाई जाने वाली अधिकार व सम्मान की परम्परा के बारे में एक विज्ञान पत्रिका “द इकोलाजीकल परबल” में तैंतीस पृष्ठों का विस्तृत लेख छपा है जिसमें स्विट्जरलैण्ड के वैसन नामक अभयारण्य में रहने वाले जंगली भेड़ियों का अध्ययन किया गया है। पाया गया है कि इन पशुओं में सिर एवं कान की विभिन्न भाव-भंगिमा एवं पूँछ तथा शरीर के विभिन्न भागों के बालों को हिलाने की अलग-अलग विधियाँ, आँख के भवों का विभिन्न तनाव, दाँत दिखाने के विभिन्न तरीकों का प्रत्येक की सामाजिक स्थिति के अनुरूप अलग-अलग विधान होता है।
मनुष्यों में अपनी जाति के लिए बलिदान होने की घटनाओं को इज्जत की दृष्टि से देखा जाता है। एक रात्रि को बबून अपनी गुफा में पंक्तिबद्ध होकर जा रहे थे। उसी रास्ते के नीचे झाड़ी में छिपकर एक चीता उन बबूनों में से किसी एक को अपना शिकार बनाने तथा उनकी गुफा में अपना कब्जा जमाने की घात लगाये बैठा था। उस समय अपनी जाति की सुरक्षा हेतु दो बबूनों ने ऊपर से अपनी जान की बाजी लगाकर छलाँग लगाई। एक ने उसकी गर्दन दबोची और दूसरा उसकी छाती पर घाव करने लगा। सुविदित है कि बबूनों की अपेक्षा चीता बहुत बलवान होता है। चीते ने अपने जबड़े से गर्दन दबोचे हुए बन्दर को पकड़ लिया और नीचे धर पटका तथा दूसरे बन्दर को अपने पंजे से दूर हटाया। लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। बन्दरों ने अपने पैने दांतों से उसकी धमनी को काट दिया था। चीते ने उन दो बन्दरों को तो मार दिया लेकिन अपना प्राण भी वह बचा नहीं पाया। मनुष्यों में यदि ऐसी घटना होती तो उसका बड़ा स्मारक बनाया जाता। बन्दरों का हुजूम विस्मय विस्फारित नेत्रों से इस दृश्य को देखता रहा और नाटक पटाक्षेप होते ही कुछ क्षणों की मौन प्रार्थना मृत बबूनों की शाँति के लिए कर चुपचाप पंक्तिबद्ध होकर अपनी कन्दरा की दिशा में बढ़ गया।
विश्व में आज समाजवाद और साम्यवाद के फैलने का मुख्य कारण मनुष्य की सम्पत्ति और अधिकार लिप्सा बताई जाती है तथा इसके लिए केवल मनुष्य को ही दोषी ठहराया जाता है। लेकिन सृष्टि के प्रायः सभी पशु-पक्षी-पतंगों में भी यह प्रकृति-प्रदत्त लिप्सा देखने में आती है।
तथ्यान्वेषी आधुनिक विज्ञान आज जिस निष्कर्ष पर पहुँच रहा है कि केवल मनुष्य ही नहीं अपितु मनुष्येत्तर प्राणियों में भी मूल प्रवृत्तियाँ एक-सी होती हैं। यही बात पूर्वकाल के तत्व वेत्ता भी कहते रहे हैं कि विश्व के प्राणिमात्र में मूल तत्व सर्वत्र एक ही है। भिन्नता केवल शारीरिक संरचना के अपेक्षाकृत अधिक विकसित मस्तिष्क ओर समस्याओं के समाधान हेतु दृष्टिकोण भर की है। भगवान द्वारा मनुष्य को दिये हुए विशेष अनुदान की सार्थकता तभी है जब मनुष्य अपनी भाव सम्वेदनाओं को उच्चस्तरीय बनाकर परस्पर स्नेह, सद्भाव और आपसी समझ-बूझ तथा तालमेल का विकास कर सके।