जादू चमत्कारों के प्रदर्शन की आवश्यकता क्यों?

May 1986

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भगवान एक है। उसकी प्रतिकृतियाँ भर अनेकों प्रकार की अनेकानेक क्षेत्रों में गतिशील हो सकती हैं। पर ऐसा नहीं हो सकता कि एक ही भगवान एक ही समय में विभिन्न व्यक्तियों के रूप में अवतार धारण करे। भगवान सर्वव्यापक है। जो सर्वव्यापक होगा वह अवतार धारण नहीं कर सकता। करें तो सृष्टि में जो अन्य गतिविधियाँ चल रही हैं, उनका सूत्र संचालन कौन करेगा? इसलिए तत्वज्ञानियों ने भगवान को निराकार ही माना है। साकार प्रतिमायें तो ध्यान-धारणा के लिए कल्पना के सहारे गढ़ी जाती हैं। यही कारण है कि अपने-अपने वर्गों और क्षेत्रों के अनुसार गढ़ी गई भगवान की अनेकानेक प्रतिमायें देखने को मिलती हैं। यह मात्र ध्यान धारणा के लिए है। ध्यान का उपक्रम ही ऐसा है कि उसे किसी रूप का आश्रय लेने की आवश्यकता पड़ती है। भले ही वह सूर्य प्रकाश के रूप में हो अथवा किसी देवी देवता के रूप में। इनमें श्रद्धा का समावेश करके इस स्तर को शक्तिशाली बनाया जाता है कि जीवन्तों की तरह अपना प्रभाव प्रदर्शित कर सके।

भगवान निराकार होने से वे कार्य नहीं कर पाते जिसमें ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेंद्रियों की आवश्यकता होती है। ऐसे कार्य वे अपने पार्षदों से कराते हैं। “पार्षद” का अर्थ है निकटवर्ती। जो ईश्वर की दिव्य विभूतियों को जितनी अधिक मात्रा में अपने भीतर धारण कर पाते हैं वे उसी मात्रा में भगवान के निकटवर्ती या कृपा पात्र माने जाते हैं। उन्हें संसार का सन्तुलन सही बनाये रखने वाले कार्य करने का निर्देशन दिया जाता है और वे उसे पूरा कर भी दिखाते हैं। इस पराक्रम में दैवी शक्ति उनका साथ देती है। प्रतीत ऐसा होता है कि यह व्यक्ति विशेष की क्षमता का चमत्कार है। साँसारिक प्रयोजनों में तो व्यक्ति की प्रतिभा ही काम करती है, पर उत्कृष्टतावादी, आदर्शवादी प्रयोजनों में सामान्य व्यक्ति अपनी लोलुपवृत्ति के कारण न तो रस ले पाते हैं और न उसमें मन ही लगता है। फिर जोखिम उठाने की बात तो बने ही कैसे? जो असंख्यों के लिए अनुकरणीय, अभिनन्दनीय कार्य करते हैं, उन्हें उतना कुछ साँसारिक जीवन या परिकर नहीं करने देता, उसमें विघ्न ही उपस्थित करता है। ऋषिकल्प आत्मा ही महापुरुषों की भूमिका निभाती हैं और वे ही इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णिम पद चिन्ह छोड़ जाती हैं।

किन्तु बहुधा ऐसा देखा गया है कि धूर्त स्तर के लोग अपने को भगवान घोषित करके भावुक भक्तजनों को ठगते और उनकी हजामत उलटे उस्तरे से बनाते हैं। सामान्यों की तुलना में अपने को असामान्य बताने के लिए उन्हें सरल उपाय बाजीगरी की दृष्टिगोचर होता है। वे लोगों को कौतुक-कौतूहल दिखाते हैं ताकि अदूरदर्शी यह समझ सकें कि उनकी विक्रिता दिखाने की क्षमता ही कोई सिद्धि है और वह सिद्धि उन्हें भगवान के रूप में मिली है। इसलिए वे भी भगवान ही हैं।

ऐसे वेशधारी भगवानों में से इसी शताब्दी में सैकड़ों की संख्या में प्रकट हुए और मर गये। जीवित वर्ग में भगवानों की कोई कमी नहीं है। भारत में ही करीब 200 व्यक्ति अपने को भगवान कहते हैं या उनके अवतार बनते हैं। प्रमाण स्वरूप उनसे और तो कोई बड़ा काम नहीं बन पड़ता। जादूगरों के हथकण्डे वे अपनाते हैं। बालों में से बालू निकालते हैं। किसी को आकाश में हाथ मार कर लौंग इलायची, मिठाई, मिश्री आदि खिलाते हैं। यदि देखा जाय तो कोई घटिया दर्जे का बाजीगर ही ऐसे हस्त कौशल दिखा सकता है। फिर भी इतनी ईमानदारी तो उसमें रहती है कि “मैं हाथ की सफाई दिखा करके आपका मनोरंजन कर रहा हूँ।” किन्तु यह भगवान बनने वाले अपने कौतूहलों की सिद्धि एवं भगवान प्रतीति ही बताते जाते हैं। आश्चर्य यह है कि इस भरी दुनिया में ऐसे मूर्खों की भी कमी नहीं जो ऐसे नगण्य बहकावों में ही आ जाते हैं और अपना बहुत कुछ गंवा बैठते हैं।

यदि कोई मनुष्य ईश्वर है तो उसे बाढ़, दुर्भिक्ष, भूकम्प जैसे प्रकृति प्रकोपों को रोकना चाहिए। देशों और वर्गों के मध्य जो भयंकर कलह चल रहे हैं, उनका निराकरण करना चाहिए। वातावरण का संशोधन सम्भव न हो तो इतना तो करना ही चाहिए कि देश में जो भयंकर अशान्ति मची हुई है, अपराधों की बाढ़ आई हुई है, व्यक्ति और समाज को अपराधों की भरमार से इतना त्रास सहना पड़ रहा है। उसे दूर करें। भगवान का वचन है कि “मैं धर्म की स्थापना और अधर्म का विनाश करने के लिए अवतार धारण करता हूँ” प्रस्तुतः 200 अवतारों को ऐसा कुछ करना चाहिए ताकि उनकी उद्देश्यपूर्ति मानी जा सके। यदि ऐसा नहीं है तो अबकी बार जो भी भगवान हाथ पड़े, उसी से यह कहलवाना चाहिए कि “मैं जादू कौतुक कौतूहल दिखा कर सिर फिरे लोगों को बहकाने आया हूँ।”

हिन्दुओं की देखा-देखी यह बीमारी भारत के ईसाइयों में भी फैली है। ईसाई बहुत क्षेत्रों में प्रायः 10 व्यक्ति अपने आपको ईसा का अवतार बताते हैं और शेष 9 को झुठलाते हैं। इस प्रकार उनकी जूतम पैजार चलती रहती है, पर हिन्दू अवतार इस मामले में डरपोक है। वे अपनी चमड़ी भर बचाते हैं। दूसरों का विरोध करके अपनी खाल खिंचवाने के झंझट में नहीं पड़ते। जो मेंढक जहाँ बैठा है, उसी के आसपास वाले मच्छरों को गटकता रहता है।

जादूगरों और अवतारों के चित्र-विचित्र जादूगरी के मायाचार को देखते हुए श्रीलंका के डॉक्टर कोबूर ने एक लाख रुपये की रकम इसलिये जमा करके रखी थी ताकि कोई चमत्कार दिखाने वाला तथाकथित भगवान वैज्ञानिक समिति को जाँच-पड़ताल की सुविधा देते हुए यह सिद्ध करे कि प्रकृति के सामान्य नियमों के ऊपर उठकर क्या वह कोई करामातें दिखा सकता है? यदि वह ऐसा कर दिखा दे, तो इस एक लाख रुपये की राशि को उठा ले।

इसी धन्धे में माहिर और अपनी धाक जमाए हुए करामाती लोगों को- “भगवानों को उपरोक्त डॉक्टरों ने प्रत्येक को पत्र लिखे पर उनमें से एक भी तैयार न हुआ। जबानी यह कहलवाया कि हमें रुपये की जरूरत नहीं। इस पर भी डॉक्टर कोबूर यही घोषणाएँ छपाते रहे कि “यदि उनको उस धन की आवश्यकता न हो तो वे उस धन को किन्हीं जरूरतमंदों को बाँट दें और अपनी प्रतिष्ठा को बचा लें। अन्यथा मेरे जैसे लोग ठगबाजी का इल्जाम ही लगाते रहेंगे और विचारशील लोगों के मन पर अध्यात्म सम्बन्धी विकृत स्वरूप ही छाया रहेगा।”

उस रुपये को बैंक में जमा हुए प्रायः 25 वर्ष हो गये। पर चुनौती स्वीकार करने के लिए कोई अवतारी या सिद्ध पुरुष आगे न आया।

बहकाने वाले तो भूत-पलीतों के नाम पर भी ठगते खाते हैं। विचित्र प्रकार का पेश परिधान पहनकर गाँजे की चिलम फूँकते हुए अन्यों को सट्टा का नम्बर बताने या जुआँ, चोरी में फायदा कराने का दम मारते रहते हैं, पर जब-जब भी उन्हें परीक्षा की कसौटी पर चढ़कर परखा है, तब-तब बगलें ही झाँकते रहे हैं।

अध्यात्म जितना उच्चस्तरीय है, उसे उतना ही ऊँचा रहने देना चाहिए। जादू कौतुक की दलदल में घसीट कर उसे उपहासास्पद नहीं बनाना चाहिए। भगवान बनने का दावा करने वाले यदि बुद्ध, गाँधी जैसा महान जीवन जी सकें और लोक-मंगल के लिए अपने को खपा सकें तो भगवान कहलाने का तो नहीं पर महामानव और ऋषिकल्प कहलाने का श्रेय तो उन्हें मिल ही सकता है। इसी में जनसाधारण की तथा अध्यात्म तत्वज्ञान की भलाई है।


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