चैतन्य महाप्रभु जब जगन्नाथपुरी से दक्षिण की यात्रा पर जा रहे थे तो उन्होंने एक सरोवर के किनारे कोई ब्राह्मण गीता पाठ करता हुआ देखा। वह संस्कृत नहीं जानता था और श्लोक अशुद्ध बोलता था। चैतन्य महाप्रभु वहाँ ठहर गये कि उसकी अशुद्धि के लिए टोकें पर देखा कि भक्ति में विह्वल होने से उसकी आँखों से अश्रु पात हो रहे हैं।
चैतन्य महाप्रभु ने आश्चर्य से पूछा- आप संस्कृत तो जानते नहीं, फिर श्लोकों का अर्थ क्या समझ में आता होगा और बिना अर्थ जाने आप इतने भाव-विभोर कैसे हो पाते हैं? उस व्यक्ति ने उत्तर दिया- आपका यह कथन सर्वथा सत्य है कि मैं न तो संस्कृत जानता हूँ और न श्लोकों का अर्थ समझता हूँ। फिर भी जब में पाठ करता हूँ तो लगता है मानो कुरुक्षेत्र में खड़े हुये भगवान अमृतमय वाणी बोल रहे हैं और मैं उस वाणी को दुहरा रहा हूँ। इस भावना से मेरी आत्मा आनन्द विभोर हो जाती है।
चैतन्य महाप्रभु उस भक्त के चरणों पर गिर पड़े और उनने कहा तुम हजार विद्वानों से बढ़कर हो, तुम्हारा गीता पाठ धन्य है।
भक्ति में भावना ही प्रधान है, कर्मकांड तो उसका कलेवर मात्र है। जिसकी भावना श्रेष्ठ है उसका कर्मकाण्ड अशुद्ध होने पर भी वह ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। केवल भावना हीन व्यक्ति शुद्ध कर्मकाण्ड होने पर भी कोई बड़ी सफलता प्राप्त नहीं कर सकता।