वातावरण बनाम वरिष्ठता

January 1986

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वातावरण का अपना प्रभाव है। उसकी क्षमता से इंकार नहीं किया जा सकता। ऋतुओं का प्रभाव प्रत्यक्ष है। सर्दी के दिनों धूप कितनी सुहाती है और भारी कपड़ों की आवश्यकता पड़ती है, तब कहीं ठंड छूटती है। गर्मी के दिनों में परिस्थितियाँ इससे बिल्कुल भिन्न होती हैं। धूप छोड़कर छाया की ओर भागने को मन करता है। कपड़े हल्के से पहनना ही पर्याप्त होता है और बाहर खुले में सोने को मन करता है।

वर्षा की स्थिति और भी विचित्र है। गीले कपड़े सूखते नहीं। मक्खी-मच्छरों का राज्य छा जाता है। बादल गरजते हैं, बिजली चमकती है और पानी इस-उस रास्ते, घर में घुसने का प्रयत्न करता है। सर्दी में पेड़ ठूँठ हो गए थे, पतझड़ ने सारे पत्ते गिरा दिए थे। गर्मी में घास तक सूख गई थी; पर बरसात आते ही समूची जमीन पर मखमली फर्श बिछ जाती है। बसंत की अपनी अलग ही बहार है, पेड़-पौधे फूलों से लद जाते हैं। ऋतुओं की अपनी-अपनी सुविधाएँ और अपनी-अपनी असुविधाएँ हैं। इस प्रभाव से हम यथासंभव बचाव कर सकते हैं; पर वातावरण से पूरी तरह छुटकारा नहीं पा सकते।

इसी प्रकार क्षेत्रों का भी अपना-अपना प्रभाव होता है। पर्वतीय ऊँचे शिखर स्वास्थ्यकर माने जाते हैं और तराई की सीलन भरे इलाकों में वहाँ के निवासी आए दिन मलेरिया से संत्रस्त रहते हैं। पहाड़ों पर गलगंड और उड़ीसा जैसे क्षेत्रों में कुष्ठ की भरमार रहती है, फाइलेरिया की भी। राजस्थान में नारू के फोड़े निकलने का संकट छाया रहता है। बंगाली नाटे, दुबले होते हैं जबकि पंजाब-बलूचिस्तान के लंब-तड़ंग। योरोपीय गोरे और अफ्रीका में काले चमड़े वाले लोग पाए जाते हैं। नागपुरी संतरे, बंबैया केले, लखनऊ के आम प्रसिद्ध हैं। यह क्षेत्रों की अपनी-अपनी विशेषता है। इसी का दूसरा नाम वातावरण भी है।

वातावरण से व्यक्ति प्रभावित होता है। संत-सज्जनों के सत्संग और दुष्ट-दुरात्माओं के कुसंग में भारी अंतर होता है। एक प्रकृति के अनेक लोग जहाँ रहते हैं, वहाँ उस प्रकार का वातावरण बन जाता है। उससे व्यक्ति प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। वेश्याओं के मोहल्ले और नशेबाजी के अड्डे अपना प्रभाव बना लेते हैं और उसके चुंबकत्व से मनुष्य अनायास ही खिंचने लगता है। पहले उसी प्रकार सोचने लगता है, पीछे वैसी क्रियाएँ भी होने लगती हैं।

आवा जब गरम होता है, तो उसमें कुम्हार के बर्तन ही नहीं पकते; वरन आस-पास की वह जमीन भी जल जाती है, जिसे जलाने का कोई उद्देश्य नहीं था।

व्यक्ति अपने को जैसा भी बनाना चाहता हो, उसे उसके अनुकूल-अनुरूप वातावरण तलाशना चाहिए। वहाँ के निवासियों की गतिविधियाँ तो प्रभावित करती ही हैं, इसके अतिरिक्त वहाँ सूक्ष्म वातावरण भी ऐसा छाया रहता है, जिसका चुंबकत्व बिना कुछ कहे-सुने, देखे-भाले भी अपना प्रभाव छोड़ता है।

देखना यह है कि हमें अपना भावी जीवन किस ढाँचे में ढालना है। प्रयत्न यह करना चाहिए कि उसी क्षेत्र में अपने निवास एवं संपर्क का सिलसिला आरंभ हो। उस क्षेत्र की अनेकों बारीकियाँ अपने आप ही खींचने, धकेलने और घसीटने का प्रयास करती दिखाई देंगी। व्यक्ति अनायास ही उस ढाँचे में ढलता हुआ पाया जाएगा।

प्राचीनकाल में महामानवों के निकटवर्ती वातावरण में ऐसी व्यवस्था रहती थी कि उस स्तर की ढलाई का कार्य अनायास ही चल पड़े। पक्षधर विचारों की शृंखला मस्तिष्क में चल पड़े और प्रतिरोधी विचारों का, शंकाओं का समाधान स्वयमेव होते चलें। उस क्षेत्र में परस्पर चर्चाएँ भी ऐसी होती रहती हैं, जो प्रत्यक्ष कानों से ही नहीं, सूक्ष्मकानों में से प्रवेश करती हुई अपने चिंतन से टकराती और अपने समर्थन का प्रभाव जमाती हैं।

यह सामान्य व्यक्तियों की बात हुई। वरिष्ठ व्यक्तियों का मनोबल इससे भिन्न होता है। उनकी निज की प्रतिभा इतनी पैनी और तीखी होती है कि वातावरण को बदलकर अपने अनुरूप बना सके। रस्सी खींचने के खेल में जिस ओर ताकत अधिक होती है, उसी ओर खिंचाव बढ़ता जाता है और वही पक्ष जीत बोलता है।

कुछ मनस्वी व्यक्ति ऐसे भी होते हैं, जो वातावरण के प्रभाव को दुत्कार देते हैं और अपनी प्रतिभा से गिरे हुओं को उठाते और भटकों को संभालते हैं। ईसामसीह ने आजीवन बीमारों और दुर्जनों के साथ निवास किया, उनने अपने प्रभाव से उन्हें सुधारा, स्वयं उनके प्रभाव की ओर तनिक भी आकर्षित नहीं हुए। गाँधीजी जब आते, तब हरिजन मुहल्लों में ठहरते थे। ठक्कर बाबा पिछड़े लोगों के बीच ही काम करते रहे। गुजरात के रविशंकर महाराज ने चोर-डाकुओं के बीच अपना कार्यक्रम बनाया। बाबा राघवदास ने कुष्ठ आश्रम स्थापित किया। इतने पर भी उस समुदाय के लोगों में पा जाने वाले दुर्गुण उन्हें प्रभावित न कर सके, वरन पिछड़ों को ही उनने ऊँचा उठाने का आजीवन प्रयास किया। यह प्रयत्न निष्फल भी नहीं गया, उसने अपना चमत्कारी प्रभाव भी दिखाया।

ऐसी दशा में किस तथ्य को महत्त्वपूर्ण माना जाए? वातावरण को प्रमुखता दी जाए या प्रतिभा को? इस प्रश्न के उत्तर में यही कहा जा सकता है कि मनोबल की प्रखरता ही प्रचंड है। यदि गए-गुजरों का संगठित मनोबल प्रबल है और उस क्षेत्र से संपर्क-साधने वाले के विचार ढिल-मिल जाते हैं, तो वह उसी ओर खिंचता चला जाएगा, अन्यथा निज की मनस्विता के सहारे न केवल उस क्षेत्र के निवासियों को सुधारेगा, वरन अपने आपे की सुरक्षा भी किए रहेगा।

संक्रामक रोगों के अस्पताल में डॉक्टरों की टीम काम करती है, बीमारों के बीच रहते हुए, उन्हें रोग-निवारण का अवसर देते हुए भी स्वयं अप्रभावित बने रहते हैं, अपने स्वास्थ्य को आँच नहीं आने देते। इसमें उनकी निजी सतर्कता और स्वच्छता ही प्रधान कारण होती है। इसी प्रकार ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ वातावरण के प्रभाव से मलेरिया, फायलेरिया जैसे रोगों की भरमार होती है। जहाँ व्यभिचार का बोलबाला है, उस क्षेत्र के निवासियों को यौन रोग घेरे रहते हैं। डॉक्टर वहाँ भी काम करते हैं। चिकित्सक को छूत लगने का भी भय रहता है; पर अपनी बलिष्ठ मानसिकता के सहारे तनकर खड़े रहते हैं और कुप्रभाव को अपने ऊपर हावी नहीं होने देते, वरन इस प्रकार लगनपूर्वक काम करते हैं कि उन क्षेत्रों से उन बीमारियों का प्रकोप ही चला जाए। साथ ही जिन कारणों से वह अस्वस्थता फैलती थी, उसके निवारण के ऐसे प्रयास भी आरंभ कराते हैं कि अस्वास्थ्यकर क्षेत्र अपनी बदनामी मिटाकर स्वास्थ्यकर क्षेत्र होने के रूप में प्रख्यात हो सकें।

साधारण मनःस्थिति के लोगों के लिए यही स्थिति है कि अनुपयुक्त वातावरण से बचें और जहाँ श्रेष्ठता अग्रणी हो, वहाँ संपर्क साधें तथा अधिक समय गुजारने का प्रयत्न करें। अपने कोमल प्रकृति के बच्चों को उसी संपर्क में अधिक से अधिक रखने का प्रयत्न करें; किंतु जिनकी प्रतिभा उच्चस्तरीय है, उन्हें दूसरी तरह सोचना चाहिए। उन्हें शंकर की तरह गले में साँप लटकाए रहने चाहिए और भूत-प्रेतों को अपनी सेना में भर्ती करना चाहिए। उन्हें सुधारने का कार्य अपने जिम्मे उठाना चाहिए, अन्यथा विलग रहने पर पिछड़े और पतित क्षेत्रों का तो उत्कर्ष ही नहीं हो सकेगा।


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