अपनों से अपनी बात— हीरक जयंती और दो अभूतपूर्व कदम

January 1986

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प्रज्ञा परिजनों की मिशन और उसकी गतिविधियों एवं सूत्रसंचालकों के साथ इतने लंबे समय में जो अनन्य आत्मीयता रही है, उसे असाधारण ही कहा जा सकता है। उसकी तुलना आज के समय में ऐसी अन्यत्र कदाचित ही कहीं देखने को मिल सकती है। विचारों और भावनाओं में वंशधर कुटुंबियों से भी कहीं अधिक ममता हो सकती है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण देखना हो तो परिजनों और संचालकों की मध्यवर्ती भावनाओं को देखते हुए सहज ही जाना जा सकता है।

इसका एक तात्कालिक एवं प्रत्यक्ष उदाहरण यह है कि प्रायः सभी परिजनों ने हीरक जयंती के अवसर पर अपनी शुभकामनाएँ भेजी हैं। ऐसी पत्रों की संख्या प्रायः एक लाख तक जा पहुँची है। उनमें अन्यान्य बातों के अतिरिक्त एक बात सभी ने पूछी है कि इस अवसर पर कोई ऐसे समारोह किए जाने चाहिए, जिनसे हमारी भावनाओं का प्रकटीकरण होने से चित्त में हल्कापन आए।

अब तक इन सभी पत्रों के उत्तर नकारात्मक गए हैं और यही कहा जाता रहा है कि आप लोग अपनी श्रद्धा परिपक्व करें और समयदान-अंशदान का अनुपात बढ़ाते हुए अपने क्षेत्र में मिशन के कार्य को विस्तृत करने के प्रयास में लगे रहें।

इस वर्ष बसंत पर्व 13 फरवरी का है। प्रेरणा उठी है कि वरिष्ठ परिजनों को दो काम सौंपे जाएँ, जो करने में सुगम किंतु महत्त्व की दृष्टि से अत्यंत उच्चकोटि के हों। एक काम यह है कि प्रत्येक जीवंत शाखा में प्रज्ञा प्रशिक्षण पाठशालाएँ खुलें। रात्रि को दो घंटे नित्य का समय इसके लिए पर्याप्त होना चाहिए। इनके पाठ्यक्रम में प्रतिभा निखारने और व्यक्तित्व उभारने से संबंधी सभी पाठ्यक्रमों को पढ़ाया जाए, साथ ही सुगम संगीत की शिक्षा भी चले। स्वर-साधना तो कठिन है; पर ताल-वाद्यों पर साधारण कंठ वाला भी कुछ ही दिनों में कामचलाऊ अभ्यास कर सकता है। ढपली, ढोलक, मंजीरा, घुंघरू, खड़ताल, चिमटा, बंगाली तंबूरा जैसे वाद्ययंत्र सरलतापूर्वक सीखे जा सकते हैं।

पाठशाला का पाठ्यक्रम एक वर्ष का होगा। प्रतिसप्ताह एक पाठ्य पुस्तक पढ़ाई जाएगी। इन पर छह दिन तक विचार-विनियम, शंका-समाधान होता रहेगा और साथ ही उस आधार पर प्रवचन कर सकने का अभ्यास भी। इन बौद्धिक पुस्तकों के विषयों में प्रज्ञा पुराण की कथाएँ जोड़ देने पर कोई भी व्यक्ति सभी विषयों पर एक वर्ष में अच्छा वक्ता बन सकता है। साथ ही गायन-वादन का क्रम चलाने से कामचलाऊ संगीतज्ञ भी।

इन 52 सप्ताहों में पढ़ाई जाने वाली 52 पुस्तकों को हम स्वयं लिख रहे हैं। कोई भी आवश्यक विषय छूटने नहीं पाया है। प्रत्येक का मूल्य एक रुपया है; पर पंजीकृत छात्रों को वे 52 रु. के स्थान पर 30 रु. में मिलेंगी। यह मूल लागत से भी कहीं कम है। पुस्तकें डाक से नहीं जाएँगी। हाथों-हाथों ही किसी से मँगानी चाहिए, क्योंकि पुस्तकों के मूल्य जितना ही प्रायः डाकखरच लग जाएगा।

जो व्यक्ति पुस्तकें लेने आएँ, वे ही संगीत उपकरणों के मूल्य की भी व्यवस्था बनाकर लाएँ। जो छात्र अपना कोई अलग साज रखना चाहें, वे वैसा भी कर सकते हैं।

नालंदा विश्वविद्यालय में भगवान बुद्ध की प्रेरणा और सम्राट अशोक के सहयोग से 30 हजार धर्मप्रचारक पढ़ते थे। उपरोक्त योजना के अंतर्गत तीन हजार अध्यापक और 30 हजार धर्मप्रचारक छात्र होंगे। ये बाहर न जा सकें तो अपने समीपवर्ती क्षेत्र में तो जनजागृति कर ही सकते हैं।

अध्यापक एक रहे, पर शिक्षा समिति में तीन व्यक्ति रखें, ताकि एक के किसी कारणवश गैरहाजिर होने पर दूसरे उन्हें चला सकें। इस अध्यापन के लिए एक महीने का युगशिल्पी सत्र पूरा कर लिया जाना चाहिए। जहाँ से कोई व्यक्ति एक भी प्रशिक्षण में अब तक सम्मिलित न हुआ हो तो वहाँ से अब भेजे जा सकते हैं। अध्यापन विद्या हेतु एक माह का युगशिल्पी सत्र पर्याप्त है।

यह विद्यालय कम से कम तीन वर्ष चलें। हर वर्ष 30 हजार प्रचारक तैयार होने से एक लाख वक्ता और गायक तैयार हो जाएँगे। ये लाख प्रचारक अपने-अपने समीपवर्ती गाँवों का एक मंडल बनाकर समूचे देश को युगचेतना से अवगत एवं गतिविधियों का सूत्र-संचालन कर सकते हैं।

दूसरा कार्य यह है कि जीपों द्वारा भजनमंडली हमारा टेप-संदेश लेकर हर गाँव तक युगांतरीय चेतना के आधारभूत सिद्धांत पहुँचाएँ। अभी 30 जीपें कार्यक्षेत्र में दौरा कर रही हैं। इन्हें 50 की या 100 की संख्या में भी बढ़ाया जा सकता है और हिंदी तक सीमित न रहकर भारत की 18 भाषाओं में प्रचार-प्रसार किया जा सकता है।

इसके लिए दो काम करने होंगे। एक तो यह कि बड़ी संख्या में युगशिल्पी शान्तिकुञ्ज में प्रतिक्षण प्राप्त करें। इतना ही नहीं, जिनकी स्थिति उपयुक्त हो, एक वर्ष का समय लेकर भारत यात्रा के लिए तीर्थयात्रियों जैसा व्रत लेकर घर से निकलें। पुराने समय में तीर्थयात्रा में गाँव-गाँव ठहरते हुए धर्मप्रचार करते हुए आगे बढ़ा जाता था। रात को जहाँ कहीं ठहरते थे, वहाँ ग्रामीणों को एकत्रित करके धर्मधारणा का प्राण फूँकना भी कठिन नहीं होता था।

बड़े शहरों में छपे पर्चे या निमंत्रण पत्र बाँटने की जरूरत होती है। सामान्य ग्रामों में 2-2 कार्यकर्त्ताओं की कुछ टोलियाँ निकल पड़ें तो कुछ ही समय में सारे गाँव में घर-घर सूचना पहुँचाई जा सकती है और समूचे गाँववासियों को एकत्र किया जा सकता है।

बड़े सम्मेलन कई-कई दिन के होते हैं; पर तीर्थयात्रा प्रचार टोलियाँ हर गाँव में दो रातें व डेढ़ दिन ही रुका करेंगी। आधा दिन एक स्थान से दूसरे स्थान तक आने-जाने के लिए रखा गया है। इस प्रकार हर गाँव पीछे दो दिन खर्च करते हुए समूचे देश के हर गाँव में दौरा करने की योजना पूरी की जा सकती है।

यह बहुत विशाल दूरदर्शी तीर्थयात्रा योजना है। अब तक लोगों ने छोटी-छोटी तीर्थयात्राएँ ही की हैं; पर इन टीम टोलियाँ को अपने प्रवासों में ढेरों देवालयों और नदियों का पुण्य मिलता चलेगा, किंतु इसके लिए एक वर्ष से कम का समय देने वाले नहीं लिए जाएँगे। जहाँ भी वे रुकेंगें, वहाँ प्रचार-प्रेरणा की धूम मचा देंगे। इसके लिए दो रातें-डेढ़ दिन का समय कम नहीं होता।

जहाँ कहीं भी यह प्रज्ञा आयोजन होंगे, वहाँ के निवासियों से निवेदन है कि प्रचारकों का मार्ग-व्यय, लाउडस्पीकर, प्रकाश-चित्र-प्रदर्शन, यज्ञशाला, प्रचार-पंडाल आदि साथ में लेकर चलने का औसत खर्च सभी व्यावहारिक पक्ष देखते हुए परिजन अपनी अगाध श्रद्धा का परिचय देते हुए दें। गाड़ियां पुरानी होने से उनकी मरम्मत, तेल, ड्राइवर आदि का खर्च अधिक ही आता है। जिन लोगों को प्रज्ञा आयोजन करने-कराने का अभ्यास है वे स्थानीय लोगों का मार्गदर्शन करते हुए ढेरों आयोजन इस प्रकार अपने नेतृत्व में करा सकते हैं।

अगले वर्ष के लिए हीरक जयंती के उपलक्ष्य में प्रचारक विद्यालयों की स्थापना और युगचेतना की ग्राम-ग्राम प्रचार योजना, तीर्थयात्रा कराने के दो विशेष कार्यक्रम ही हाथ में लिए गए हैं। इन दोनों में सम्मिलित होने या कराने की व्यवस्था में हर कोई भाग ले सकता है। प्रचारकों को त्रैमासिक परीक्षा एवं वार्षिक परीक्षा में सुंदर प्रमाण पत्र देने का नियम भी रखा गया है।

उपरोक्त दोनों कार्यक्रम को क्रियांवित करने का एक ही तरीका है कि जिनके पास जो पत्रिकाएँ जाती हैं, वे अपने संपर्क-क्षेत्र के सभी विचारशील परिजनों को एकत्रित करें और उन्हें यह लेख उन्हीं के नाम विशेषतौर से लिखे गए निजी पत्र बताकर सुना दें और पूछें कि वे किस प्रकार इन दोनों योजनाओं को क्रियांवित करने में हाथ बँटा सकते हैं। एक लाख प्रचारक बनाने और देश के सात लाख गाँवों की तीर्थयात्रा करके युगचेतना का शंख फूँकना दोनों ही कार्य एक से बड़े हैं। इनका कार्य विस्तार ही नहीं प्रतिफल भी ऐसा है, जिसे अद्भुत एवं अभूतपूर्व कहा जा सकता है। यह अभी भारतव्यापी योजना है। इसके उपरांत इसे विश्वव्यापी भी सफलतापूर्वक बनाया जा सकेगा। संदेश पहुँचाने और प्रचारक बढ़ाने की प्रक्रिया ऐसी है जिसे बुद्ध के धर्मचक्र-प्रवर्तन से किसी भी प्रकार कम नहीं माना जा सकता। इससे कम महत्त्व की व्यवस्था के बिना मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती स्वर्ग के अवतरण की संभावना प्रत्यक्षकर दिखाई भी नहीं जा सकती। इसके लिए भावनाशील प्रज्ञावान व्यक्तियों की श्रम-साधना एवं त्याग-भावना बड़ी मात्रा में अपेक्षित है। इसमें हर स्तर के व्यक्तियों का योगदान अभीष्ट हो सकता है। यहाँ तक कि कितने ही कार्यों में महिलाओं का योगदान भी अपेक्षित हो सकता है।

उपरोक्त योजना को कार्यांवित करने में पत्र-व्यवहार बढ़ावें, गाड़ियाँ-मशीनें खरीदने, संगीत उपकरण- ड्राइवर की व्यवस्था बनाने, साहित्य छपाने, गायत्री चालीसा चौथाई मूल्य में बाँटने, आगंतुकों का आतिथ्य भार बढ़ने जैसे बीसियों काम ऐसे हैं, जिसमें सन् 85 की तुलना में 86 की व्यय राशि प्रायः दूनी होगी। इसके संतुलन हेतु आयस्रोत भी बढ़ना चाहिए। इस संदर्भ में जो उदारमना अपना अर्थ सहयोग बढ़ा सकते हों वे भी आगामी तीन वर्ष की योजनाओं के लिए अधिक उदारता अपनाने का प्रयत्न करें।

परिचित प्रभाव क्षेत्र के व्यक्तियों को यह लेख सुनाने के उपरांत उपस्थित लोगों में से प्रत्येक से यह पूछा जाना चाहिए कि इतिहास में अद्वितीय कहे जा सकने वाले इस पुनीत कार्य में अपना समय, सहयोग, श्रमदान, समयदान, अंशदान कितना और किस प्रकार दे सकते हैं। इन सबके पते और उत्तर एकत्रित करके बसंत पर्व से पूर्व ही शान्तिकुञ्ज भिजवा देना चाहिए।

हीरक जयंती के उपलब्ध में शुभकामना पत्रों का एक कोठा भरा पड़ा है। उसे हँसते-मुस्कराते सुरक्षित रखा गया है। अब बात को गंभीरतापूर्वक लिया जाना है। जिनकी श्रद्धा और आत्मीयता वास्तविक हो, वे इन दिनों किए गए इन दोनों संकल्पों को पूर्ण करने में सामर्थ्य भर उठा न रखें। हीरक जयंती की वास्तविक श्रद्धांजलियों का मूल्याँकन इसी आधार पर हो सकेगा।

— श्रीराम शर्मा आचार्य


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