तत्त्वज्ञान का प्रथम सूत्र

January 1986

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ईश्वर सर्वसमर्थ है; पर उसने भी अपने को कुछ नियमों और व्यवस्थाओं के अनुशासन में बाँध रखा है। अपने बनाए नियमों का वह पालन न करे, तो अन्य लोग भी स्वेच्छाचार बरतें। यहाँ तक कि उस पर भी पक्षपात करने का दबाव डालें। लोग ऐसी ही तिकड़म भिड़ाते हैं। यदि ऐसा संभव रहा होता तो इस सुनियोजित संसार की सारी व्यवस्था ही गड़बड़ा जाती।

ईश्वर का अनुशासन पालते हुए हम चरित्रनिष्ठा और परमार्थपरायणता में संलग्न हैं, तो अपने पुरुषार्थ के अनुरूप दैवी अनुग्रह विपुल मात्रा में अनायास ही प्राप्त कर सकते हैं। इस तथ्य में ईश्वरविश्वास और ईश्वरभक्ति का सार-संक्षेप समाहित है। इतना भर जान लेने और तद्नुरूप अपनी कार्यपद्धति बना लेने पर हम ईश्वर के सच्चे कृपापात्र बन सकते हैं और वे सभी लाभ प्राप्त कर सकते हैं, जो सच्चे ईश्वरभक्तों को मिलते रहे। उसे कुछ चित्र-विचित्र हरकतों से बहकाया, फुसलाया नहीं जा सकता। इस बात को जितनी जल्दी, जितनी गहराई तक समझ लिया जाए, उतना ही अच्छा है।

परमात्मज्ञान के अतिरिक्त दूसरा ज्ञान है ‘आत्मबोध”। आत्मबोध का तात्पर्य है— अपनी सत्ता की महत्ता काे समझना और अपने आपको इस योग्य बनाना कि ईश्वर के जेष्ठ पुत्र, अंशधर, युवराज सच्चे अर्थों में कहला सकें। दीन-हीनों की तरह जिस-तिस के सामने सहायता के लिए हाथ न पसारते फिरें। बहुमूल्य जीवन-संपदा को निरर्थक न गँवा बैठें। यही है— आत्मबोध या आत्मसाक्षात्कार। आत्मा की प्राप्ति परमात्मा की प्राप्ति ही मानी गई है; क्योंकि ब्रह्मांडव्यापी निराकार भगवान को निकटतम और स्नेही सहायक के रूप में अपने भीतर ही प्राप्त कर सकते हैं। इससे समीप और सरलतापूर्वक पहुँच सकने योग्य और कोई स्थान ऐसा नहीं है, जहाँ आत्मा का— परमात्मा से मिलन हो सके।

आत्मा और परमात्मा के मिलन को ही लौह-पारस के मिलन से स्वर्ण बनने की उपमा दी गई है। अपने स्वरूप समझ लेने और तद्नुरूप व्यक्तित्व को ढाल लेने के निमित्त ही योग-तप और साधना-उपासना का विधान बनाया जाता है। वस्तुतः साधनाएँ आत्मपरिष्कार के लिए ही की जाती हैं, ताकि पात्रता निखरे। जीवनपात्र का इतना विकास-विस्तार हो कि सावन की घटा की तरह सदा-सर्वदा बरसने वाली प्रभूकृपा का बड़े से बड़ा भाग अपने हिस्से में आ सके।

आत्मा के यथार्थ और पवित्र स्वरूप को समझना ही आत्मज्ञान है। होता यह है कि हम भ्रमवश अपने ‘स्व’ को शरीर में इस कदर घुला लेते हैं कि अनुभव में नहीं आता कि हम मात्र शरीर हैं। उसी की इच्छाओं को अपनी इच्छा मान लेते हैं और उसी की तुष्टि से प्रसन्नता अनुभव करने लगते हैं। आत्मा की चर्चा तो प्रसंगवश करते हैं; पर कभी ऐसा आभास नहीं होता है कि हमारा ‘स्व’ शरीर से पृथक है और उसकी समस्याएँ-आवश्यकताएँ शरीर से भिन्न हैं।

तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश करते ही पहला चरण यही उठाया जाना चाहिए कि शरीर और आत्मा की पृथकता का प्रत्यक्ष बोध होने लगे। दोनों के बीच जो संबंध है, उसकी अनुभूति स्पष्ट होने लगे और दोनों के स्वार्थों में जो अंतर है, उसका पृथक्करण करने में तनिक भी भ्रम न रहे। इतनी बात जानकारी तक नहीं, वरन अनुभूति के रूप में निखरनी चाहिए।

इसके लिए एक विचारधारा विनिर्मित करनी चाहिए और उसे मंत्र-जप की तरह तो नहीं; वरन चिंतन और मनन के रूप गहराई तक, अधिक गहराई तक हृदयंगम करना चाहिए।

  • मैं ईश्वर का अंशधर परम पवित्र आत्मा हूँ।
  • शरीर मेरा वाहन-उपकरण-औजार है। वह जीवन भर साथ रहने वाला वफादार सेवक है।
  • स्वामी होने के नाते, शरीर के प्रति हमारी जिम्मेदारी यह है कि उसे निरोग, बलिष्ठ और दीर्घजीवी बनाने के लिए उपयुक्त अनुशासनबद्ध करें।
  • बहुमत की नकल न करें। प्रतिभावानों के आकर्षण या दबाव से ऐसा कुछ न सोचें, ऐसा कुछ न करें जो उपयुक्त न हो।
  • लोगों को नहीं, आत्मा के पवित्र अंश को अपना मानें और उसी के संकेतों पर एकाकी चल पड़ें।

विचारधारा की एक परिधि शृंखला है। इसके शब्दों पर, भावों पर अति गंभीरतापूर्वक ध्यान दें और एक-एक सूत्र का कल्पना-चित्र मन में खड़ा करें। वैसा ही जैसा चित्रकार अपनी कल्पना को कागज, रंग, और तूलिका के सहारे चित्रित करने का प्रयत्न करता है।

यह कार्य एक दिन में समाप्त नहीं होता। लंबे समय तक— तब तक करना होता है; जब तक कि अंतराल इस स्थिति को यथार्थता के रूप में स्वीकार न कर ले और बिना प्रयत्न किए ही वैसे कल्पना-चित्र मस्तिष्क के सिनेमाघर में चलती-फिरती रंगीन प्रतिमाओं के रूप में प्रत्यक्ष की तरह सूक्ष्मनेत्रों से दृष्टिगोचर न होने लगें।

ध्यानयोग में यही किया जाता है। नेत्र बंद करके इष्टदेव की छवि-प्रतिमा का ध्यान करते हैं और उस अभ्यास को तब तक चलाते हैं जब तक कि वह उसी प्रकार भाव-जगत में प्रत्यक्ष न होने लगे जैसे कि अपने घनिष्ठतम मित्र या परिजन अनायास ही चिंतन में आ जाते हैं।

दो भाइयों के बीच बँटवारा हो जाने पर यह बातें ठीक तरह समझ में आती है कि अमुक वस्तुओं पर हमारा अधिकार है, अमुक पर दूसरे भाई का। अब यह व्यवसाय हमें करना है या भाई को। माता-पिता, भाई-बहिनों में से अमुक की जिम्मेदारी हमें निभानी है, अमुक की भाई को। अलग हो जाने पर भी बड़ा भाई परिवार की प्रतिष्ठा बनाए रखने और भाई को उपयुक्त मार्गदर्शन करने की जिम्मेदारी अपनी ही समझता है। व्यवहार में बँटवारा होते हुए भी बड़प्पन के नाते जो जिम्मेदारी स्वभावतः निभाई जाती है, उसे बड़ा भाई निबाहता है। छोटा आनाकानी करे तो भी उसे प्रेम या नाराजी से उस राह पर चलाया जाता है कि परिवार की प्रतिष्ठा और बड़े भाई के बड़प्पन पर उँगली न उठे। ऐसी ही नीति शरीर के साथ भी अपनाई जानी चाहिए।

इस नीति का औचित्य इसलिए भी है कि शरीर वाहन-उपकरण-औजार भी तो है, उसके टूटने-फूटने पर अपनी ही हानि तो होगी। जो कार्य उससे लिया जाता है, वह असमर्थता की स्थिति में कर नहीं सकेगा; इसलिए उसकी जिम्मेदारी भी उसी को उठानी चाहिए। जो इससे लाभ उठाता है। नौकर के भरण-पोषण की तो व्यवस्था करनी ही पड़ती है। साथ ही यह भी देखना होता है कि वह नशा, जुआ आदि का कोई दुर्व्यसन तो नहीं सीख रहा है। कुसंग में तो नहीं बैठ रहा है। ऐसी सतर्कता न बरती जाए तो उसका प्रतिफल यह होगा कि कभी भी कोई उपद्रव अपने लिए खड़ा कर सकता है। उसके वफादार रहने में ही अपना लाभ है। सेवक की तरह शरीर की सुव्यवस्था पर भी अपना पूरा ध्यान रहना चाहिए।

                                                                                               (क्रमशः)


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