‘मरण’— सृजन का उल्लास भरा पर्व

January 1986

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विज्ञान की एक नई शाखा विकसित हो रही है जो मरणासन्न व्यक्तियों का अध्ययन करती है। क्या इन व्यक्तियों को मृत्यु का भय होता है? निकटतर आ रही मृत्यु के बारे में बोध होने पर इन व्यक्तियों को कैसा महसूस होता है? मृत्यु संबंधी ऐसे तथ्यों का अध्ययन करने वाले इस विज्ञान को ‘थेनाटालॉजी’ कहते हैं।

पश्चिमी जर्मनी के एक डॉक्टर लोथर विट्जल ने मरणासन्न मरीजों से उनकी मृत्यु के 24 घंटे पूर्व बातचीत की। उन्होंने पाया कि जैसे-जैसे मृत्यु आती है, मरणासन्न व्यक्तियों में उसका भय मिटता जाता है। बीमारी की वृद्धि के साथ-साथ ऐसे व्यक्तियों की धार्मिक आस्था दृढ़ होती चली जाती है और चिंताएँ कम होती जाती हैं।

“मैंसाचुसेरस मेडिकल सोसाइटी” के बोस्टन निवासी डाॅ. मूर रसेल फ्लेचर ने 25 वर्षों तक गहन अन्वेषण करने के पश्चात तथ्यों को “ट्रिटाइज आन सस्पेण्डेड— एनीमेशन” नामक ग्रंथ में लिपिबद्ध किया है, जिसमें मरने के उपरांत फिर से जी उठे लोगों के अनुभव हैं। डाॅ. फ्लैचर ने अपनी इसी पुस्तक में गार्थाइर शहर निवासी श्रीमती जान टी.डी.ब्लैक के बयान के अनुसार लिखा है कि वे तीन दिन तक मृतावस्था में पड़ी रहीं थीं। डाॅक्टरों ने मृत घोषित कर दिया; किंतु घरवालों ने किसी कारणवश नहीं दफनाया। तीन दिन बाद वे जी उठीं। पूछने पर उन्होंने बताया कि वे ऐसे लोक में पहुँच गईं, जिसे परीलोक कहा जा सके। वहाँ बहुत-सी आत्माएँ प्रसन्नचित्त रह, आसमान में बिना परों के ही उड़ती मालूम होती थीं।

डाॅ. रेमण्ड मूडी ने बड़े प्रयत्नपूर्वक किए गए अपने शोध का प्रकाशन ‘लाइफ आफ्टर लाइफ’ नामक ग्रंथ में किया है, जिसका विषय है— "पुनर्जीवन व मृत्यु के मध्यांतरकाल का अनुभव।" इस ग्रंथ में 150 घटनाओं के बीच अनेक घटनाएँ ऐसी हैं, जिसमें संबद्ध व्यक्ति ने बताया कि उनके मस्तिष्क में सनसनाहट-सी लगी और मक्खियों के भिनभिनाने जैसी गुंजन सुनाई पड़ी। इसके बाद सब कुछ ठंडा लगा और सुध-बुध समाप्त हो गई। दूसरे व्यक्ति का अनुभव था कि मानो उसे किसी अंधकारपूर्ण खड्ड में गिरा दिया गया हो और वह नीचे की दिशा में तेजी से डूबता जा रहा हो।

सत्य की शोध में चेतना के सिद्धांत का कम महत्वपूर्ण स्थान नहीं हैं। इस निष्कर्ष पर पहुँचे सर आलिवर लाज विलियम क्रुक्स जैसे वैज्ञानिकों ने इस तथ्य को मुक्तकंठ से स्वीकारा है। उनका मत है कि चेतना पदार्थों के संघात का प्रतिफलमात्र नहीं; अपितु उससे भिन्न स्वतंत्र सत्तावान है, जो शरीर के विनष्ट हो जाने पर भी विद्यमान रहती है। इस तथ्य के प्रमाण में उन्होंने कई मृतात्माओं का सहयोगपरक आह्वान किया था और सहयोग प्रदान किया।

‘फ्राण्टियर आफ दी आफ्टर लाइफ’ के लेखक एडवर्ड सी रेण्डेल ने ऐसी ही एक दिवंगत आत्मा के अनुभवों को निम्न शब्दों में व्यक्त किया है— “मरने के बाद अपने चारों ओर से स्वजन संबंधियों से घिरा हुआ पाया। पहले पहल तो अपने आपको ऊपर उठते हुए देखा, फिर धीरे-धीरे नीचे आ गया। एक शरीर बिस्तरे पर पड़ा था तो दूसरा मैं खड़ा था। शारीरिक वेदनाएँ समाप्त हो गई थीं। जो आत्माएँ मुझे लेने आई थीं, उन्होंने मुझसे चलने को कहा। उन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि मैं मर चुका हूँ।

मूर्धन्य मनोविज्ञानी कार्ल जुंग ने अपने निजी मरणोत्तर जीवन का वृत्तांत स्वलिखित “मैमोरीज ड्रीम्स रिफ्लेक्सन” में लिखा है। सन् 1944 में उन्हें दिल का दौरा पड़ा। डॉक्टर उन्हें मरणासन्न स्थिति में अनुभव कर रहे थे और ऑक्सीजन के सहारे बचाने का प्रयत्न कर रहे थे। इसी समय जुंग ने अनुभव किया कि वे हजारों मील ऊपर उड़ गए और अधर में लटके हुए हैंं। इतने हल्के हैं कि किसी भी दिशा में इच्छानुसार जा सकते हैं। ऊपर से ही मैंने यरुशलम नगर का दृश्य तथा और भी बहुत सी चीजें देखीं। उन्हें लगा वे अब पहले की अपेक्षा बहुत बदल गए हैं। बहुत देर की स्थिति में रहने के बाद उन्हें अपने पुराने शरीर में पुनः लौटना पड़ा और शरीरगत जीवन पुनः प्रारंभ हो गया। जुंग ने लिखा है, मरणोत्तर जीवन की इस अलौकिक अनुभूति ने मेरे समस्त संशय समाप्त कर दिए और यह मामला समझा दिया कि मरने के बाद क्या होता है?

परामनोवैज्ञानिक डाॅ. किंग ह्वेलर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘दी इम्मॉर्टल सोल’ में मृत्यु से वापस लौटे व्यक्तियों की अनेकों घटनाओं को उल्लेखित किया है।

ओन्टोरियो (कनाडा) में कोस्टल क्षेत्र के मानव संपदा निर्देशक हर्वग्रिफिन को सन् 1974 में तीन बार हृदय के दौरे पड़े। डाॅक्टरों द्वारा कई बार मृतक घोषित किए जाने पर भी कुछ मिनटों बाद पुनर्जीवित हो उठते थे। ग्रिफिन ने मरणोत्तर जीवन की अनुभूतियों का विश्लेषण करते हुए बताया है कि— प्रत्येक मृत्यु के उपरांत के अनुभवों में मैंने अपने को तेज प्रकाश से घिरा पाया। वह प्रकाश मेरी ओर बढ़ रहा था। मेरे और प्रकाश के बीच एक काली छाया थी जो इस तेज प्रकाश से मेरी रक्षा कर रही थी। मैं अपने को समुद्रतट पर खड़ा एक भ्रूण महसूस कर रहा था। जिस पर सूर्य की तेज रोशनी के समान प्रकाश था। वह प्रकाश मेरी ओर बढ़ ही रहा था कि अचानक एक जाना-पहिचाना चेहरा प्रकट हुआ जो सलेटी रंग का सूट पहने हुए था। उसने निडर भाव से कहा— "आ जाओ, सब ठीक है", अचानक मेरे सीने पर तेज आघात हुआ, आवाज भी सुनाई दी "क्या मैं बिजली के झटके दूँ।” दूसरी ओर से आवाज आई नहीं, अभी नहीं। इसकी आयु अभी पूरी नहीं हुई। इसे जिंदा रहना चाहिए। इसके बाद में अस्पताल में पड़े अपने शरीर में वापस पहुँच गया।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अगस्त सन् 1944 को एक फौजी अफसर की घटना मित्र राज्य गजेटियर में प्रकाशित हुई। आफीसर स्काइट कार द्वारा जा रहा था, तभी जर्मन ऐण्टी टैंक ने उस पर सीधा प्रहार किया। उसकी कार में भी विस्फोटक पदार्थ भरा था उनमें विस्फोट हो गया। गजेटियर में लिखा है— जैसे ही विस्फोट हुआ, मैं 20 फुट दूर जा गिरा। ऐसा लगा मैं दो भागों में विभक्त हो गया। मेरा एक शरीर नीचे जमीन में पड़ा तड़प रहा है, उसके कपड़ों में आग लगी है। दूसरा ऊपर आकाश में हवा की तरह तैर रहा है। वहाँ से सड़क पार की वस्तु युद्ध का दृश्य, झाड़ियां, जलती कार मैं सब कुछ देख रहा था। तभी अंतःप्रेरणा उठी कि तड़फड़ाने से कुछ लाभ नहीं, शरीर को मिट्टी से रगड़ दो ताकि आग बुझ जाए। शरीर ने ऐसा ही किया। वह लुढ़ककर बगल की नम खाड़ी में जा गिरा, आग बुझ गई। फिर मैं वापस उसी शरीर में आ गया। अब मुझे शरीर की पीड़ा का पुनः भान होने लगा, जबकि थोड़ी देर पूर्व यही दृश्य मैं मात्र दर्शक बना देख रहा था।

सुकरात को जहर दिए जाने के समय उनके सभी संबंधी वहाँ आँसू बहा रहे थे। बिना किसी कुप्रभाव के उनके मुखमंडल पर प्रसन्नता, प्रफुल्लता और भी अधिक परिलक्षित हो रही थी। ऐसा लगता था कि किसी प्रियजन से मिलने की उमंगें उठ रही हों। पास में खड़े शिष्यों ने जब इनका कारण पूछा तो उन्होंने कहा— “मैं मृत्यु से साक्षात्कार करना चाहता हूँ और यह जानना चाहता हूँ कि मृत्यु के बाद हमारा अस्तित्व रहता है या नहीं। मृत्यु जीवन का अंत है अथवा एक सामान्य जीवनक्रम।” सुकरात को निर्धारित समय पर विष देते समय सभी दर्शकों के नेत्र सजल हो उठे। उन्होंने उपस्थित जनसमूह को संबोधित करते हुए कहा— “मेरे शरीर के सभी अवयव गतिहीन हो चुके हैं, लेकिन मेरा अस्तित्व पूर्ववत ही है। जीवन की वास्तविकता पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने बताया कि मृत्यु जीवन का अंत नहीं एक अविरल प्रवाह है। जीवन की सत्ता मरणोपरांत भी बनी रहती है।”


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