बिना संपन्नता के भी संतोष का अनुभव

January 1986

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आवश्यकता या इच्छा के अनुरूप सभी साधन उपलब्ध हो सकेंगे, इसकी आशा करना समय को देखते हुए दुराशामात्र है। परिस्थितियाँ अपने इच्छानुसार बनाने के लिए आवश्यक साधन जुटाने होते हैं और उनमें देर लगती है। तब तक खीजते रहने की अपेक्षा यह अधिक सही है कि परिस्थिति के साथ तालमेल बिठाकर चला जाए और उस भविष्य की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा की जाए, जिसमें अपने पुरुषार्थ से इच्छित साधन जुटाए जा सकें। लेकिन इसके लिए यह नहीं कहा जा सकता कि उस स्थिति के उपलब्ध करने में कितना समय लगेगा। तब तक खिन्न, रुष्ट, असंतुष्ट बैठे रहने से कोई लाभ नहीं। ऐसी मनोदशा में रहने पर तो अनुकूलता प्राप्त करा सकने वाला पुरुषार्थ और भी ढीला पड़ जाएगा जो संभावनाओं के जल्दी समीप आने की अपेक्षा उनकी दूरी और देरी बढ़ाती ही जाएगी।

अनिच्छा रहने पर भी परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाना पड़ता है। न बिठाया जाए तो जो संभव है, वह अवसर भी हाथ से निकल जाता है। अधीर और अदूरदर्शी लोग ऐसे ही कदम उठाते हैं, जिसमें उछलकर चलने पर हाथ-पैर टूटने का जोखिम बढ़े। इससे तो धीरे चलना और कम में काम चलाना अच्छा, जिसमें धीमी किंतु आशाजनक प्रगति हो सकती है।

असंतोष तब भड़कता है जब अपनी तुलना सुसंपन्नों के साथ की जाती है और चाहा जाता है कि ऐसे ही सुविधा-साधन हमें क्यों न मिलें? साधनसंपन्न जीवन की ललक बुरी नहीं है; पर उसके लिए आवश्यक क्षमता एवं उपलब्धि के लिए अनुकूलता होनी चाहिए। कठोर परिश्रम करने पर भी किन्हीं क्षेत्रों में रहते हुए यह संभव नहीं कि संपन्नता अर्जित की जा सके और उस तरह रहा जा सके, जिस तरह अमीर एवं बड़े लोग रहते हैं।

ऐसी दशा मे तीन प्रतिक्रियाएँ होती हैं— एक यह कि निरंतर रुकते रहा जाए, दूसरा यह कि किन्हीं अपराधी प्रवृत्तियों को अपनाकर धन जुटाया जाए, तीसरी यह कि अपनी भड़ास निकालने के लिए संपन्नों को गालियाँ देते, आक्षेप लगाते रहा जाए। ईर्ष्याजन्य आक्रोश को शांत करने का यह भी एक तरीका है।

यह तीनों ही कदम ऐसे हैं, जिनमें लाभ मात्र मन हलका कर लेने भर का है, हानि बहुत है। अपराधों में कड़े दंड भुगतने का स्पष्ट जोखिम है। दूसरे दो का पता, जब दूसरों को चलता है तो अपनी अयोग्यता एवं क्षुद्रता ही स्पष्ट होती है। ऐसे लोगों के साथ कोई संपर्क बढ़ाना पसंद नहीं करता। उन्हें खतरनाक स्तर का मानता है। इससे उपेक्षा और असहयोग पल्ले पड़ता है; किंतु किसी समस्या का हल नहीं होता। जो मस्तिष्क रचनात्मक कदम उठाने, योग्यता अर्जित करने एवं उपयुक्त अवसर तलाशने में लगना चाहिए था वह कुढ़ने में नष्ट हो जाता है।

उन्नति के लिए प्रयत्न करें पर साथ ही जो उपलब्ध है, उसमें संतोष भी करें। संपन्नता ही प्रसन्नता दे सकती है, यह आवश्यक नहीं। जो हस्तगत है उसी को सुनियोजित करके प्रसन्न रहा जा सकता है। अपने स्वभाव में मिलनसारी और सहनशीलता की मात्रा बढ़ाकर स्वल्प साधनों में भी हँसती-हँसाती जिंदगी जियी जा सकती है।

मनुष्य अपने को दरिद्र या पिछड़ा हुआ तब अनुभव करता है, जब बड़ों के साथ अपने को तौलता है। संसार में ऐसे भी अगणित लोग हैं जो उस स्थिति के लिए भी तरसते हैं, जो अपनी है। उनके साथ तुलना करने पर अनुभव करते हुए ईश्वर को धन्यवाद देने और गौरव अनुभव करने का अवसर मिल सकता है। धन की प्रचुर मात्रा संग्रह करना तो परिस्थितिजन्य है। अपने सद्गुणों को-दृष्टिकोण को परिष्कृत करते हुए हम किसी भी स्थिति में प्रमुदित रह सकते हैं।


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