वातानुकूलित कमरे या रेल के डिब्बे इसलिए बनाए जाते हैं कि उनमें काम या निवास करने वालों पर सर्दी-गर्मी का अनावश्यक दबाव न पड़े। उत्तेजना चाहे ऋतु के कारण हो या किसी अन्य के कारण से एक सीमा तक ही सहन होती है। अति की स्थिति में भी किसी प्रकार जिया तो जा सकता है; किंतु उत्साहपूर्वक उतना काम नहीं हो सकता, जितना कि होना चाहिए। बेचैनी सदा हैरान ही करती है।
बेचैनी मात्र ऋतु के कारण ही नहीं, अन्य कारणों से भी होती है। तापमान बढ़ने पर ज्वर चढ़ बैठता है और शीत रोग में शरीर का स्वाभाविक ताप घट जाता है। रक्तचाप का अधिक बढ़ना या घटना भी एक विपत्ति है। इसी प्रकार मन पर आवेश का छा जाना अथवा अवसाद के कारण निराश हो जाना ऐसी स्थिति है, जिसमें व्यक्ति असंतुलित हो जाता है। जिसे तनाव भी कहते हैं। तनाव दो प्रकार के होते हैं— एक आवेशजन्य, दूसरे अवसादजन्य। क्रोध जैसी स्थिति को आवेश कहते हैं और निराशा-निष्क्रियता को अवसाद। दोनों ही असंतुलन व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को गड़बड़ा देते हैं और अस्वाभाविक ऐसी स्थिति बना देते हैं, जिसमें कुछ सोचते-समझते, करते-धरते नहीं बनता। ऐसों की गणना एक प्रकार के मरीजों में होती है, जो स्वयं भी हैरान रहते हैं और संपर्क वालों को भी हैरान करते हैं।
संतुलन बनाए रहना वातानुकूलित मकान में रहने जैसा है, जिसमें अपेक्षाकृत व्यक्ति सुखी और संतुष्ट रहता है। प्रसन्नता में काम का अनुपात एवं स्तर भी बढ़ जाता है।
संसार की बनावट ऐसी है। परिस्थितियों का क्रम ज्वार-भाटे जैसा चलता है। कभी अनुकूलता आ जाती है तो कभी प्रतिकूलता का सामना करना पड़ता है। ऐसे अवसरों पर हलके, उथले, ओछे, बचकाने लोग उखड़ जाते हैं; पर जो भारी भरकम हैं, चट्टान की तरह अपनी जगह पर जमे रहते हैं, वे उतार-चढ़ावों को खिलाड़ी की दृष्टि से देखते रहते हैं, जिसमें कभी जीतना कभी हारना पड़ता है।
असंतुलन एक ऐसा रोग है जो प्रत्यक्षतः तो नहीं दिख पड़ता; पर भीतर ही भीतर मरोड़कर रख देता। यह प्रभाव न केवल स्वास्थ्य पर; वरन क्रियाकलापों पर भी पड़ता है। वे अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। सोचना और करना यदि मनोयोगपूर्वक न हो तो उसके सही होने की आशा नहीं की जा सकती। जो मन में उद्विग्न है, वह आज नहीं तो कल रुग्ण होकर रहेगा।
परिस्थितियाँ सदा अनुकूल ही रहें, यह नहीं हो सकता। जब संसार में सर्वत्र परिवर्तन का ही दौर है तो अनुकूलता ही स्थिर रहेगी, ऐसी आशा करना व्यर्थ है। यह हो सकता है कि कटीली राह पर चलना पड़े तो जूते का प्रबंध करें और तेज धूप पड़ रही हो तो छाता लगाकर चलें। मनःस्थिति गड़बड़ाने से पूर्व हमें ऐसा अभ्यास कर लेना चाहिए कि कुसमय आने पर अपना बचाव हो सके।
अनुपयुक्त स्थिति के दबाव को कम करने के लिए हमें शिथिलीकरण का अभ्यास करना चाहिए। यह साधना अर्धनिद्रा का काम दे जाती है और थकान को घटाती है। यों चिंतामुक्ति तो सर्वथा तभी मिलती है, जब गहरी नींद आए या मौत इस संसार से उठाए।
हमारे दैनिक व्यायामों, योगाभ्यासों में एक शिथिलीकरण भी सम्मिलित रहना चाहिए। शरीर को शिथिल और मन को उनींदा कर लेने की क्रिया कठिन नहीं है। कोमल बिस्तर पर लेटकर अपने को रुई जैसा हलका या उनींदा अनुभव करने से यह स्थिति कुछ दिन के अभ्यास से बन जाती है कि अपने को संकल्पबल के सहारे अर्धनिद्रित स्थिति में ले जाया जाए।
एक दूसरा अभ्यास यह है कि मन, वचन और शरीर को एक ही काम पर एकाग्र किया जाए। इन तीनों प्रमुख शक्तियों को बिखरने न दिया जाए। एकाग्रता की महिमा सभी बताते हैं और उसके प्रयोग भी सुझाते हैं; पर सबसे सरल और उपयोगी तरीका यह है कि सामने के काम को सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाए और उसे सही रीति से करने को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया जाए। जो पूरे मन और पूरे श्रम से काम करता है, उसकी वाणी भी इधर-उधर की बकवास नहीं करती। शक्तियों को बिखेरने में इधर-उधर की बेतुकी बकवास भी एक बड़ा दुर्गुण है। इसके कारण हर काम अधूरा रह जाता है। भोजन के अथवा पूजा के समय जिस प्रकार मौन रखा जाता है उसी प्रकार अपने हर छोटे-बड़े काम में तत्परता और तन्मयता बरतनी चाहिए और वाचालता पर अंकुश रखना चाहिए।
कई बार मनुष्य की असहिष्णुता और अतिवादिता भी तिल का ताड़ बनाती है और छोटी-सी कठिनाई, हानि या असफलता को राई से पर्वत बनाकर मनुष्य को उद्विग्न कर देती है। उस कुटेव का उपचार यह है कि सदा हँसने-मुस्काने की आदत डाली जाए। मुस्कान सबसे बड़ा सौंदर्य-प्रसाधन है। इसको अपनाते ही कुरूप भी सुंदर लगने लगता है। मन का बोझ उतर जाता है। हलकी-फुल्की, हँसती-हँसाती जिंदगी जीना एक उच्चस्तरीय कलाकारिता है। इसे नित्यप्रति के अभ्यास में सम्मिलित करके अपने को निश्चिंत-निर्द्वंद्व रहने का आदी बनना चाहिए। उतार-चढ़ावों को कम से कम महत्त्व देना चाहिए।
कुछ लोग कुविचारों, कुकर्मों और मनोरोगों से ग्रसित होते हैं; फलतः उन्हें पग-पग पर असहयोग और अपमान का सामना करना पड़ता है। ऐसे लोगों के लिए उचित है कि सफल-सम्मानित मनुष्यों के गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता का चिंतन किया करें और अपने को उसी ढाँचे में ढालने का प्रयत्न किया करें? आत्मसुधार का, आत्मनिरीक्षण का क्रम चल पड़ने पर व्यक्तित्व निखरने और सुधरने लगता है। गुण, कर्म, स्वभाव में शालीनता की अभिवृद्धि करते चलने वाला व्यक्ति आमतौर से मनस्वी होता है, संतुष्ट रहता और सम्मान पाता है।
कुछ व्यक्ति लोभ, मोह में अत्यधिक व्यस्त रहते हैं और ठाट-बाट बनाने की सनक में इतने डूबे रहते हैं कि आत्मिक आवश्यकता, मानवी गरिमा और सामयिक कर्त्तव्यों को एक प्रकार से भुला ही देते हैं। ऐसे लोगों को आत्मा और शरीर की भिन्नता का अभ्यास करना चाहिए।
प्रातःकाल उठते ही एक दिन की जिंदगी बालजन्म मिलने की भावना करनी चाहिए और साथ ही सोचना चाहिए कि यह सृष्टा की सर्वोपरि महत्त्व की कला-कृति उसे किस शर्त पर मिली है जीवन का स्वरूप, लक्ष्य और सदुपयोग क्या है? इसी निष्कर्ष के आधार पर ऐसी दिनचर्या बनानी चाहिए, जिसमें शरीर यात्रा के अतिरिक्त आत्मा के उत्कर्ष, लोक-मंगल में प्रवृत्ति और ईश्वरीय इच्छा की पूर्ति होती रहे।
रात को सोते समय निद्रा को मरण का रिहर्सल मानते हुए सोचना चाहिए कि जो भूलें शरीर के साथ पक्षपात और आत्मा के साथ अन्याय के रूप में आज हुई वे भविष्य में न होने पाएँगी। इस संध्यावंदन का निश्चित प्रभाव यह होता है कि जीवन-संपदा के दुरुपयोग पर अंकुश लगता और वह प्रयास चल पड़ता है, जिससे जीवन को सार्थक बनाया जा सके।
हर दिन किसी सुविधा के समय आत्मनिरीक्षण, आत्मसुरक्षा, आत्मनिर्माण और आत्मविकास के चारों विषयों पर गंभीर विचार करना चाहिए और भौतिक-क्षेत्र में आगे बढ़ने और आत्मिक-क्षेत्र में ऊँचा उठने की योजना बनानी चाहिए।
महानता के पक्षधर कार्य इसलिए नहीं हो पाते कि शक्तियों का अधिकांश भाग असंयम के छिद्रों में होकर बह जाता है और कुछ उत्कृष्ट कर सकने लायक सामर्थ्य ही नहीं बचती। आवश्यक है कि इंद्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम पर निरंतर ध्यान रखा जाए और इस प्रकार बचे हुए वैभव को उन कार्यों में लगाया जाए, जिनसे आत्मकल्याण और लोक-मंगल के दोनों प्रयोजन सधते हैं। यही जीवन को वातानुकूलित बनाने की प्रक्रिया है।