यही धैर्य एवं सहनशक्ति उन्हें वह श्रेय प्रदान करती है, जिससे अन्य लोग शिक्षा ले सकें।
घटना 1914 की है। वैज्ञानिक टामस अल्बा एडीशन की प्रयोगशाला और कारखाना धू-धूकर जल रहा था। उसकी लपटें आकाश छूने की होड़ कर रही थीं। एडीसन उन लपटों में अपनी आशाओं को जलता देख रहा था। पास ही उसका पुत्र खड़ा था। इस भयंकर अग्निकांड को देखकर वह तो स्तब्ध रह गया।
वृद्ध एडीसन ने अपने युवा पुत्र से कहा— “देखते क्या हो? जाओ, अपनी माँ को बुला लाओ। उससे कहना कि जीवन में फिर कभी ऐसा दृश्य देखने को न मिलेगा।”
कुछ देर बाद उसकी पत्नी भी आ गई। उसने कहा— “बीस लाख डालर के कीमती यंत्रों के साथ आपके द्वारा संपूर्ण जीवन में जो आविष्कार किए गए, उनके संपूर्ण कागजात भी तो इस प्रयोगशाला में थे; वह भी अग्नि को समर्पित हो गए। अब क्या होगा?”
“पहले तो ईश्वर को धन्यवाद दो कि हम सबकी भूलें भी इसमें जलकर राख हो गई हैं। अब हम नए सिरे से अपने कार्य का आरंभ करेंगे। प्रत्येक हानि भी तो अपने साथ कुछ न कुछ लाभ छिपाकर लाती है।”
एडीसन दंपत्ति ऐसे सहज रूप से उस अग्निकांड को देखते रहे जैसे उनका उससे कोई सरोकार ही नहीं।
यही मनोवृत्ति जीवन के हर बदलते मोड़ पर हो तो खिन्नता का कोई कारण न रहे।