‘आज’ का हम अभिनंदन करें।
विगत ‘कल’ का क्यों क्रंदन करें॥
आज में ही जीना है हमें, जहर-अमृत पीना है हमें।
विगत-आगत का बोझा लाद, व्यर्थ ही क्यों भारी मन करें ॥
दिखा तो स्वप्न ‘भूत’ की रात, कल्पना है ‘भविष्य’ की बात।
हाथ के खिले पुष्प क्यों छोड़, व्यर्थ कल्पित नंदन वन करें॥
करें यदि ‘वर्तमान’ को प्यार, ‘भूत’ के सुखद स्वप्न साकार।
व्यर्थ क्यों बुन भविष्य का जाल, शेखचिल्ली-सा जीवन करें॥
समस्याएँ अगणित हैं आज, ग्रसित है जिनसे मनुज समाज।
विगत-आगत की चिंता छोड़, आज का ही हम चिंतन करें॥
मिली हैं अमित शक्तियाँ हमें, लोक-मंगल विभूतियाँ हमें।
खपाकर उन्हें भोग में अरे! न पशुवत् हम पागलपन करें॥
‘भूत’ का मोह ‘भविष्य’ का लोभ, व्यक्तिगत स्वार्थ बनेगा क्षोभ।
साधना ‘वर्तमान’ की साध, धरा पर स्वर्ग अवतरण करें॥
सात्त्विक-साधन, लक्ष्य महान, किया करते देवी उत्थान।
आत्मसंतोष, लोक-सम्मान, दिव्य वरदान संवरण करें॥
— मंगल विजय
*समाप्त*