हजरत इब्राहिम (कहानी)

January 1986

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रोज की तरह आज भी हजरत इब्राहिम अपने तंबू के दरवाजे पर बैठे हुए थे कि उधर से कोई राहगीर गुजरे तो बुलाकर उसका आतिथ्य करें। इतने में उन्होंने देखा कि जिंदगी और सफर से थका-झुका सौ बरस का एक बूढ़ा राहगीर लठिया टेकता हुआ उन्हीं की ओर चला आ रहा है। इब्राहिम ने बड़े प्यार से उसका स्वागत किया, उसके पाँव धोए और उसे बैठाकर खाना परोसा। लेकिन उन्होंने देखा कि बूढ़े ने न तो प्रार्थना की, न ईश्वर को धन्यवाद दिया, बल्कि एकदम खाने पर हाथ साफ करना शुरू कर दिया। उन्होंने बूढ़े से पूछा— “बाबा तुम ईश्वर की इबादत नहीं करते?” बूढ़े ने उत्तर दिया— “मैं तो अग्नि की पूजा करता हूँ और दूसरे किसी ईश्वर को नहीं मानता।”

यह सुनना था कि हजरत इब्राहिम आग बबूला हो गए और उन्होंने बूढ़े को उसी क्षण धक्का देकर तंबू से निकाल दिया। यह भी न सोचा कि रात गहरी हो चुकी है और चारों तरफ बियाबान रेगिस्तान है। बूढ़े के चले जाने के बाद ईश्वर ने इब्राहिम को पुकारा और उनसे पूछा कि बूढ़ा अजनबी कहाँ गया? इब्राहिम ने उत्तर दिया— “भगवन! मैंने तो उसे निकाल दिया, क्योंकि वह तुम्हारी इबादत नहीं करता।

ईश्वर इस पर बोला— “इब्राहिम! वह हमेशा मेरी तौहीन करता है, फिर भी सौ साल से मैं उसे सहता चला आया हूँ। क्या तुम एक रात के लिए भी उसे नहीं सह सकते थे! तुम तो अपना कर्त्तव्य जानते थे।”


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