त्रिविधि बंधन और उनसे मुक्ति

January 1986

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कैदी तीन जगह से बँधा होता है। हाथों में हथकड़ी, पैरों में बेड़ी, गले में तौक या कमर में रस्सा। इस प्रकार सभी प्रमुख क्रिया अंग जकड़ जाने से वह उन बंधनों को छुड़ाकर भागने की स्थिति में नहीं रहता; किंतु जो प्रयत्नशील होते हैं, मुकदमा लड़ते या भूल का प्रायश्चित करते हैं, उनकी सजा समय से पहले ही छूट जाती है और बंधनों से छूट्टी मिल जाती है।

ठीक इस प्रकार मनुष्य के सूक्ष्मशरीर में कई जगहों पर बंधन बँधे हुए हैंं। उन्हें खोलने, काटने एवं छोडने का प्रयत्न मनुष्य को करना होता है। इसी को बंधनमुक्ति कहते हैं।

बंधनों को अध्यात्म की भाषा में ग्रंथिबेध कहते हैं। ग्रंथियाँ तीन बताई गई हैं (1) ब्रह्मग्रंथि (2) विष्णुग्रंथि (3) रुद्रग्रंथि। इनके स्थान (1) जननेंद्रिय मूल (2) नाभिस्थान (3) मस्तक प्रदेश हैं, इसलिए षट्चक्रों के बेधन एवं पंचकोशों के जागरण की तरह ग्रंथिबेध साधना का भी अपना महत्त्व एवं विधान है।

तीन शरीर माने गए हैं। स्थूल, सूक्ष्म, और कारण। यही ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं। इन्हें तीन लोक भी कहा गया है। गायत्री त्रिपदा है। यज्ञोपवीत में तीन लड़ें और तीन ग्रंथियाँ होती हैं। यह सब भी ग्रंथि विज्ञान की ओर ध्यान दिलाने के लिए हैं। यज्ञोपवीत कंधे पर धारण किया जाता है। उसका एक तात्पर्य यह भी है। मनुष्य पर देवऋण, ऋषि और पितर ऋण तीन लदे हुए हैंं। उन्हें चुकाकर संसार से प्रयाण करना चाहिए। अन्यथा ऋणी की जो दुर्गति होती है, वह अपनी भी होगी। कहीं अन्यत्र चला जाए और वहाँ से भी पकड़ा जाता है। घर-परिवार कुर्क हो जाता है। इन बातों का स्मरण दिलाने के लिए ग्रंथिबेध विज्ञान में बहुत कुछ तत्त्वदर्शन सन्निहित है।

ब्रह्मग्रंथि का स्थान जननेंद्रिय मूल-मूलाधार माना गया है। यह उत्पादन क्षेत्र है। मनुष्य शरीर की उत्पत्ति इसी केंद्र की हलचलों से होती है। ब्रह्मा सृष्टि उत्पन्न करते हैं, इसीलिए उन्हीं की तुलना दायित्व वहन करने वाले इस क्षेत्र पर ब्रह्मा का अधिकार माना गया है।

दूसरा नाभिचक्र है। गर्भावस्था में प्राणी माता के साथ इसी नाल द्वारा जुड़ा रहता है और पोषण प्राप्त करता हुआ क्रमशः बड़ा होता रहता है। प्रसव के उपरांत भी पेट ही पाचन का काम करता है, रक्त बनाता है। पोषण के दायित्व पेट के ऊपर आ जाते हैं, इसीलिए यह विष्णुक्षेत्र है। पालनकर्त्ता विष्णु ही माने गए हैं।

तीसरा केंद्र मस्तिष्क है। यहाँ विवेक-बुद्धि रहती है। उसी के आधार पर अनौचित्य का संहार होता है। जीवन में परिवर्तन भी यहीं से आता है। नर-पशु को नर-नारायण बनाने की क्षमता इसी में है। अभाव, अज्ञान और अशक्ति से निपटने वाला त्रिशूल भी यहाँ अवस्थित है, इसीलिए मस्तिष्क को रुद्र का अधिकार क्षेत्र सही माना गया है। कैलाश सहस्रारचक्र है और उसके इर्द-गिर्द भरा हुआ ग्रेमैटर मानसरोवर।

बंधन तीन हैं। वासना, तृष्णा, और अहंता। वासनाओं की स्वामिनी जननेंद्रिय है। वह यौनाचार से ही तृप्त नहीं होती, वरन चिंतन-क्षेत्र में भी कामुकता के रूप में समय-कुसमय छाई रहती और कल्पना-चित्र बनाती रहती है। मनुष्य इसी से बंधन में बँधता है। विवाह करता है। उसके साथ ही संतानोत्पादन का सिलसिला चल पड़ता है। स्त्री-बच्चों की जिम्मेदारी साधारण नहीं होती। पूरा जीवन इसी प्रयोजन के लिए खपा देने पर भी उसमें कमी ही रह जाती है और मरते समय तक मनुष्य इन्हीं की चिंता करता रहता है। इस पूरे प्रपंच को ऐसा बंधन समझना चाहिए, जिसे बाँधता तो मनुष्य हँसी-खुशी से है; पर फिर उसी बोझ से इतना लद जाता है कि अन्य कोई महत्त्वपूर्ण काम नहीं कर पाता।

दूसरी विष्णुग्रंथि का स्थान उदर क्षेत्र है। इसमें तृष्णा रहती है। यह तृष्णा पशु-पक्षियों में तो पेट भरने तक सीमित है। इन्हें इतना ही उपार्जन करना पड़ता है; किंतु मनुष्य का पेट तो समुद्र जितना बड़ा है। जिसमें आहार ही नहीं वैभव भी चाहिए। आज के लिए ही नहीं जन्म भर के लिए, औलाद के लिए, संग्रह और व्यसनों के लिए भी चाहिए। यही तृष्णा है जो प्रचुर परिमाण में धन-वैभव कमाने पर भी शांत नहीं होती। इसके लिए उचित-अनुचित सब कुछ करना पड़ता है। मनुष्य अनीति और पाप उत्पादन करने में भी नहीं चूकता।

तीसरी ग्रंथि रुद्रग्रंथि है। रुद्र को विक्षोभ का देवता माना गया है। वे जब तांडव नृत्य करते हैं तो प्रलय उपस्थित हो जाता है। मनुष्य जीवन में अहंता का भी वही स्थान है। दूसरों को तुच्छ और अपने को महान सिद्ध करने के लिए जो विक्षोभ मन में उत्पन्न होते रहते हैं। उनकी गणना अहंता में गिनी जाती है। इसी हेतु दूसरों पर अपने बड़प्पन की छाप डालने के लिए आत्मविज्ञापन करता है। ठाट-बाट बनाता है। अपव्यय का मार्ग अपनाकर अपनी अमीरी की धाक जमाता है। संस्थाओं में, शासन में, समाज में बड़ा पद पाने के लिए इतना आतुर रहता है कि आए दिन साथियों से झगड़ना पड़ता है और उन्हें समता करने से रोकना होता है। दर्प के कारण रावण, कंस, हिरण्यकश्यपु, वृत्रासुर, दुर्योधन आदि न जाने कितनों को नीचा देखना और संकटों में फँसना पड़ा।

ग्रंथिबेध का आध्यात्मिक एवं मनोवैज्ञानिक पक्ष यह है— वासना, तृष्णा और अहंता में छिपी हुई दुष्प्रवृत्तियों का जितना अंश जिस रूप में भी छिपा पड़ा हो उसे ढूँढ़ निकाला जाए, उन पर कड़ी नजर रखी जाए और घटाने-हटाने का प्रयत्न निरंतर जारी रखा जाए।

“सादा जीवन उच्च विचार” के सूत्र-संकेत में बंधनमुक्ति के सभी सिद्धांतों का समावेश है। इस सूत्र को तीनों क्षेत्रों पर लागू किया जा सकता है। ब्रह्मग्रंथि के संबंध में दृष्टिकोण परिष्कृत करने का तरीका यह है कि जननेंद्रिय को मूत्रेंद्रियमात्र माना जाए। मल द्वारा की तरह मूत्रमार्ग को भी उसी काम तक सीमित रखा जाए। सभी वासनाग्रस्त प्राणी जब अपनी शक्ति-सामर्थ्य से कहीं अधिक प्रजनन में जुटे हुए हैंं तो कुछेक आदर्शवादी व्यक्ति परिवार में इतने लोगों के बीच रहकर अपना गुजारा बिना किसी कठिनाई के कर सकते हैं। विवाह करना ही हो तो जयप्रकाश नारायण एवं जापान के गाँधी जैसा स्तर अपनाया जा सकता है। दो मित्रों की तरह लक्ष्य की ओर बढ़ने में मिल-जुलकर काम करते रहा जा सकता है। बंधनकारी संतानोत्पादन से बच निकलने के लिए अब तो ब्रह्मचर्य भी अनिवार्य नहीं रहा। विज्ञान ने उससे बचे रहने के सरल उपाय भी निकाल दिए हैं। प्रजनन से शक्तियों को बचाकर उन्हें परमार्थ-प्रयोजनों में लगाया जा सकता है।

विष्णुग्रंथि का नियम एक सिद्धांत अपनाने भर से हो सकता है। औसत भारतीय स्तर का जीवन जिया जाए। उन लिप्साओं को निरस्त किया जाए तो लोभ, लालच, संग्रह एवं अपव्यय के लिए दौलत जमा करने की हवस भड़काती रहती हैं। परिवार भावना अपनाने पर यह ललक सहज मिल जाती है। विश्व परिवार की भावना रखी जा सके तो अपने लिए अधिक और दूसरों के लिए कम का अनौचित्य मन से हट सकता है और न्यायपूर्वक, श्रमपूर्वक कमाई से भी भली प्रकार गुजारा हो सकता है।

अहंता से छुटकारा पाने के लिए शिष्टता, नम्रता, विनयशीलता, सज्जनता अपनाने पर तो आत्मसंतोष और लोक-सम्मान का लाभ मिलता है। उस पर विचार करना चाहिए। उद्धत आचरणों में दूसरों पर छाप डालने के लिए जितना दंभ अपनाना पड़ता है, उसकाे बचकानापन समझा जा सके तो अहंकारी को अपने ऊपर आप हँसी आती है और शालीनता अपनाकर दूसरों को सम्मान देने का मार्ग चुना जा सके तो अहंकार का दुर्गुण सहज शांत हो सकता है। शरीरसत्ता को मल-मूत्र की गठरी मानने वाला, मृत्यु के मुख में ग्रास की तरह अटका हुआ तुच्छ प्राणी किस बात का अहंकार करे?

तीनों ग्रंथियों को हम विवेकदृष्टि से वस्तुस्तिथि का पर्यवेक्षण करते हुए सहज ही बंधनमुक्त हो सकते हैं। 


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