अलौकिक सिद्धियाँ

January 1986

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सिद्धियाें का वर्णन शरीरगत कौतूहलों के रूप में किया जाता है। काया का छोटा हो जाना, बड़ा हो जाना, पानी पर चलने लगना, हवा में उड़ जाना आदि विलक्षणताओं को शरीर द्वारा कर दिखाना सिद्धपुरुषों का, सफलता का लक्षण माना जाता है। बहुत से इन पर विश्वास भी करते हैं और तलाशते फिरते हैं कि जो ऐसे कृत्य कर दिखाएँ उन्हें सिद्धपुरुष या पहुँचा हुआ योगी मानें; किंतु ऐसे योगी लोग कदाचित ही कहीं होते हों।

तिब्बत को ऐसे योगियों की क्रीड़ास्थली बताया जाता रहा है। वह स्थान दुर्गम एवं प्रतिबंधित होने के कारण वहाँ सर्वसाधारण की पहुँच नही होती रही है, इसलिए किंवदंतियों का अन्वेषण भी नहीं होता। वहाँ लामा संप्रदाय का प्रभुत्व था। वे अपने ज्ञान, चरित्र और सेवा के आधार पर तो अपनी विशेषता बता नहीं पाते थे, अलौकिकताओं की मनगढ़ंत कहानियाँ गढ़ने वालों को बताते रहते थे। सुनने वाले उनमें और नमक-मिर्च मिलाकर तिल का ताड़ बना देते थे; पर जब चीन का हमला हुआ और तिब्बत-क्षेत्र हड़प लिया गया तो किसी भी लामासिद्ध की करामात काम न आई।

बुद्ध का एक शिष्य किसी राजा द्वारा ऊँचे बाँस पर टाँगे हुए कमंडलु को उस पर चढ़कर उतार लाया था और अपनी सिद्धाई से चमत्कृत करके उस राजा और उसकी प्रजा को अपना शिष्य बना लिया था। स्वर्णकमंडलु लेकर जब वह बुद्ध के पास पहुँचा तो उनने सारी बात जानी। वह शिष्य पहले नट था। बाँस पर चढ़ने की कला आती थी। उसी अनुभव के आधार पर वह ऐसी करामात दिखाने में सफल हुआ था। बुद्ध ने समस्त शिष्यमंडली को बुलाया और उस कमंडलु को तुड़वाकर नदी में बहा दिया, कहा कि मेरा कोई शिष्य कभी भी ऐसा आडंबर न रचे। यदि ऐसा हुआ तो बाजीगर लोग सिद्धपुरुष माने जाने लगेंगे और सच्चे योगी वैसा ढोंग न रच पाने के कारण उपेक्षित-तिरष्कृत होते रहेंगे। उनके सदुपदेश भी कोई न सुन सकेगा।

जिस प्रागैतिहासिककाल में शरीरों को वायुप्रधान, जलप्रधान, अग्निप्रधान बताया जाता था। उस जमाने में कोई ऐसा कुछ कर दिखाता भी होगा; पर इन दिनों तो पृथ्वीप्रधान शरीर होते हैं। ऐसी दशा में किसी के लिए ऐसा कर दिखाना संभव नहीं है। श्रीलंका के एक डॉक्टर का अभी भी बैंक में एक लाख रुपया इसलिए जमा पड़ा हुआ है कि कोई अलौकिक चमत्कार कर दिखाए तो उस रकम को सहर्ष उठाए; पर किसी ने भी उस चुनौती को स्वीकार नहीं किया है।

योग वस्तुतः मनोविज्ञान का विषय है। उसका संबंध चेतना के परिष्कार से है। गाँधी, बुद्ध, विवेकानंद, अरविंद आदि ने कोई करामातें नहीं दिखाई थीं। वे अपनी मानसिक उत्कृष्टता के आधार पर ही महानता के ऊँचे स्तर तक पहुँचे थे।

जहाँ ऐसे चमत्कारी वर्णन हैं, वे शारीरिक नहीं भावनात्मक या अलंकारिक हैं। व्यामोह की सुरसा, हनुमान को निगलना चाहती थी। वे अपने को वैभववान नहीं, अकिंचन बनकर उससे छुटकारा पा सके। साधारणजनों को अपने में डूबा लेने वाले भवसागर के ऊपर होकर जो चल सकता है, पार जा सकता है, उसे जल पर चलने की सिद्धी प्राप्त हुई, यह समझना चाहिए। हनुमान की नम्रता अकिंचन भावना ही उसकी अणिमा सिद्धि थी।

गाँधी, बुद्ध आदि को महात्मा सिद्धि थी। काया की दृष्टि से वे सामान्यजनों जैसी ही थे। प्रतिभा भी सामान्यजनों जैसी ही थी; पर लक्ष्य ऊँचा रखने और जीवन उसी में खपा देने के कारण वे महामानव माने गए। उनके आदेशों का पालन लाखों-करोड़ों ने किया, यह महिमा-सिद्धि कही जाए तो अत्युक्ति नहीं। शरीर से महापुरुष रावण, कुंभकरण जैसे विशाल नहीं होते; पर अपने महान व्यक्तित्व और कार्यों के कारण सामान्य लोगों की तुलना में असंख्य गुने महत्त्वपूर्ण गिने जाते हैं।

संत दादू के पास एक महिला आई। वह पति को वश में करने का जंत्र-मंत्र चाहती थी। दादू ने उसके विश्वास को देखते हुए एक कागज पर कुछ लिखकर ताबीज पहना दिया। साथ ही पति के मधुर व्यवहार की रीति-नीति भी समझा दी। पति वश में हो गया। वह स्त्री दादू के सामने थाल भरकर धन तथा उपहार लाई। बहुत से दर्शक भी मौजूद थे। दादू ने उस जंत्र-मंत्र को उससे वापस लिया और खोलकर सब लोगों को दिखाया था। उसमें कुछ भी अनोखापन नहीं था। अपने सद्व्यवहार से ही उसने पति को वश में किया था। जादू जंत्र-तंत्रो में नहीं होता, अपना स्वभाव और प्रयास के बदलने से ही अभीष्ट सफलताएँ उपलब्ध होती हैं। तथ्य दादू ने सब पर प्रकट कर दिया और उपहार जरूरतमंदों को बाँट दिया।

आकाश में उड़ जाने की सिद्धि में क्या कौतूहल है? मक्खी, मच्छर और पक्षी, पतंगे आकाश में उड़ते ही रहते हैं। जिन्हें पानी पर चलने की जल्दी हो वे नाव में बैठ सकते हैं और जिन्हें हवा में उड़ना हो वे हवाई जहाज का टिकट खरीद सकते हैं। इसके लिए किसी कष्टसाध्य योगाभ्यास की जरूरत नहीं है।

आकाश में उड़ने से मतलब है— अपना लक्ष्य ऊँचा रखना है; अपना व्यक्तित्व सामान्य लोगों की तुलना में ऊँचा उठाना।

वायुयान यात्रा में काँच की खिड़की से झाँककर नीचे की ओर देखा जाए तो रेलगाड़ी साँप-सी रेंगती दिखाई पड़ती है और हाथी-घोड़े जैसे बड़े जानवर चाबी वाले खिलौने की तरह दौड़ते हैं। नदियाँ पतली नाली जैसी दिखती हैं। ऐसा ही दृष्टिकोण दुनियादारों के प्रति महामानवों का होता है। लोग तुच्छ प्रतीत होते हैं। उनके क्रियाकलाप और परामर्श भी बच्चों जैसे। वे उनसे प्रभावित नहीं होते; वरन ओछे स्तर को बचकानापन मानकर हँस भर देते हैं। अपनी उनसे तुलना नहीं करते। वायुयान पर चढ़ा हुआ व्यक्ति दूर-दूर के दृश्य देखता है; किंतु घास चरने वाले छोटे जानवर आप-पास थोड़े ही दायरे में देख सकते हैं। कूपमंडूक की दुनिया बहुत छोटी होती है। गूलर के भुनगों की उनसे भी कम दायरे की, जबकि वायुयान पर बहुत ऊँचाई पर से देखने पर दुनिया बहुत विस्तृत दिखती है।

चंद्र यात्रियों ने चंद्रमा पर खड़े होकर उगती हुई पृथ्वी को देखा था, वह बड़े थाल के बराबर थी; पर हमारी दृष्टि में तो वही पूरा ब्रह्मांड है। इसी को कहते हैं— आकाश में उड़ना।

बच्चों को चाबी वाले खिलौने ही मनोरंजन के केंद्र बने रहते हैं; पर बड़ी आयु के व्यक्ति उन्हें खिलवाड़ भर मानते हुए तुच्छ आँकते हैं। सामान्य बुद्धि के दुनियादार लोग लोभ, मोह और अहंकार की पूर्ति को ही बहुत बड़ी वस्तु मानते हैं और उनकी उपलब्धि को भारी सफलता गिनते हैं; पर दूरदर्शी-विवेकशील इन खिलवाड़ों में अपने को उलझाते नहीं और सोचने की— करने की दिशाधारा ऐसी बनाते हैं, जो सृष्टा के युवराज की गरिमा को सुरक्षित रखे।

अन्य सभी अलौकिकताएँ भी इसी प्रकार की हैं। वे शारीरिक नहीं, मानसिक और भावनात्मक हैं। शरीर से अचंभे वाले करतब कर दिखाना जादूगरों-बाजीगरों का काम है— सिद्धपुरुषों का नहीं।


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