श्री ईश्वरचंद्र विद्यासागर को उन दिनों 500 रु. मासिक वेतन मिलता था। औसत भारतीय स्तर का निर्वाह ही उनने न्यायोचित समझा और अपने सीमित परिवार का खर्च 50 रु. मासिक से चलाया, शेष 450 रुपये की बचत को निर्धन छात्रों की आवश्यकताएँ जुटाने में लगाया करते थे। वे हमेशा कहते थे; अपने लौकिक उत्तरदायित्व घटाकर लोकसेवी को परमार्थ नियोजित कर देना चाहिए। उन्होंने यह कहा भी और आजीवन निबाहा भी।