धर्मोपदेश ही नहीं अधर्म से संघर्ष भी

January 1986

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सज्जनता का माहात्म्य बताना और धर्म की दुहाई देना सरल है। उससे वक्ता को धर्मोपदेश कहलाने का अवसर मिलता है और श्रोता 'भक्तजन' समझे जाते हैं। यह सब सरल है। वाचाल और मूढ़मति इन दोनों कार्यों को सरलतापूर्वक करते और सस्ती वाहवाही लूटते रहते हैं।

कठिन कार्य है, अनीति का विरोध करना और अवांछनीयता से जूझना। ऐसे जुझारू शूरवीर यदि उत्पन्न न हों तो समझना चाहिए कि अधर्म और अनाचार अपने स्थान पर यथावत बना रहेगा। उसे हटाने और मिटाने का कोई सुयोग न बनेगा। प्रतिरोध के अभाव में अनाचार के हौसले बढ़ते हैं और वह चौगुनी-सौगुनी गति से बढ़कर उन लोगों को भी चपेट में लेता है, जो मुँह न खोलने के कारण अपने को सुरक्षित समझते थे और सोचते थे कि हम किसी को नहीं छेड़ते, तो हमें कोई क्यों छेड़ेगा?

स्मरण रखे जाने योग्य बात यह है कि अनाचारों का आक्रमण उन्हीं पर होता है, जो सज्जनता की आड़ में अपनी कायरता को छिपाए बैठे रहते हैं। बहेलिए चिड़ियों और मछलियों को ही जाल में समेटते हैं। जलाशयों में रहने वाले घड़ियालों और जंगलों में घूमते चीतों से उन्हें भी डर लगता है। कीड़े-मकोड़ों को लोग पैरों तले कुचलते चलते हैं; पर साँप बिच्छुओं से उन्हें भी बचकर चलना पड़ता है। बर्र के छत्ते में हाथ कौन डालता है?

अनीति करना बुरी बात है; पर उसे सहन करते रहना उससे भी बुरा। जीत की संभावना न हो तो पिसते रहने की अपेक्षा विद्रोह पर उतारू होकर मर-मिटना कहीं श्रेष्ठ है।

गाँधीजी अपने युग के सच्चे अहिंसावादी थे। उन्होंने धर्म और नीति की वकालत करने में कोई कोर-कसर रहने नहीं दी; पर साथ ही इस तथ्य की ओर से आँखें नहीं मूँदी कि आतताई को रास्ते लाने के लिए दाँत खट्टे किए जाने चाहिए और यह सिखाया जाना चाहिए कि औचित्य को अपनाए बिना और कोई मार्ग नहीं। अंग्रेजों ने भारत को स्वाधीनता दान में नहीं दी, यह उनकी विवशता थी। परिस्थितियों ने मजबूर कर दिया कि पैर पीछे हटाने में ही भलाई है।

धर्म-प्रवचन अच्छी बात है। उसको ध्यानपूर्वक सुनना और भी अधिक अच्छा है, क्योंकि इससे जनसाधारण का कर्त्तव्यबोध होता है; पर इतना ही पर्याप्त नहीं। विद्यालयों में शिक्षा-संवर्द्धन का कार्य होता है; पर उस भवन में पागल कुत्ता घुस आवे या साँप किसी बिल में से निकल पड़े, तो उसे लाठी से ही पाठ पढ़ाया जा सकता है। धर्मोपदेश सुनकर वे आक्रमण करना छोड़ देंगे, ऐसी आशा करना नासमझी की बात है।

काशी करवट लेकर स्वर्ग जाने की मान्यता सही हो सकती है; पर गीता का कृष्ण का अर्जुन को दिया गया संदेश भी मिथ्या नहीं है, जिसमें अनीति के विरुद्ध लड़ मरने की बात कही गई है। रामराज्य स्थापना से पूर्व भगवान को असुरों का दमन करना पड़ा था। धर्म की स्थापना एक इमारत उठाने की तरह है और अधर्म का नाश उससे भी अधिक आवश्यक नींव खोदने की तरह। धर्म का पालन और संरक्षण योद्धा ही करते हैं। कायर तो उसकी दुहाई भर देते रहते हैं।

आतंकों का दमन सशस्त्र सैनिकों का काम है; पर सामाजिक अवांछनीयताओं, कुरीतियों, मूढ़मान्यताओं से जूझना तो उन भावनाशीलों का कार्य है, जिसमें शौर्य और पराक्रम के तत्त्व भी जीवित हैं। धर्मोपदेश जितना आवश्यक है, उतना ही अभीष्ट। यह भी है कि शोषण-उत्पीड़न से नारी वर्ग या पिछड़े समुदायों को मुक्ति दिलाने के लिए आधार किए जाएँ। भले ही वे झगड़े-झंझट उकसाने जैसे प्रतीत होते हों।


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