पौराणिक मान्यता है कि जीव चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के उपरांत मनुष्य शरीर प्राप्त करता है। इस ईश्वरीय अनुदान का सदुपयोग न करने पर उसे फिर उसी चौरासी के चक्कर में कोल्हू के बैल की तरह घूमना पड़ता है और अपने कर्मों का फल उन तुच्छ प्राणियों के शरीरों में रहकर प्राप्त करना पड़ता है।
पुनर्जन्म की जितनी भी घटनाएँ प्रकाश में आई हैं, उनसे यही सिद्ध हुआ है कि मनुष्य को मरने के उपरांत भी मनुष्य जन्म ही मिलता है।
कर्मफल भुगतने की बात अन्य योनियों में ही बन पड़े, सो बात नहीं है। मनुष्य जीवन में तो शारीरिक कष्टों के अतिरिक्त मानसिक कष्ट भी हैं, जिनसे उसे अन्य जीवों की तुलना में कम नहीं, अधिक ही त्रास मिलता है; जबकि पक्षी, तितली, मधुमक्खी आदि अनेक जीव-जंतु सुखपूर्वक जीवनयापन करते हैं।
ऐसी दशा में चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने वाली बात कटती है; किंतु वैज्ञानिको ने भ्रूण-विकास-प्रक्रिया का जो स्वरूप बताया है, उसके अनुसार यह भी सिद्ध हो जाता है कि मनुष्य नौ महीने के गर्भवास में ही चौरासी लाख आकृतियाँ बदल लेता है। इस प्रकार पौराणिक मान्यता के साथ इस वैज्ञानिक विवेचना की संगति बैठ जाती है।
भ्रूण-विकास-प्रक्रिया के संबंध में अब तक जो पर्यवेक्षण किया गया है। उसकी विशालता और गंभीरता को देखते हुए उसे एक स्वतंत्र क्षेत्र के रूप में वैज्ञानिक मान्यता मिल गई है। इस शाखा का नाम है— ‘हाउसे आन्दोजैनी रिपोट्स फायलॉजी”।
इस शोध के अनुसार भ्रूण की आकृति गर्भाधान से लेकर प्रसवकाल की अवधि में प्रति ढाई मिनट में भ्रूण की आकृति में अंतर होता रहता है। पहली से दूसरी में भारी हेर-फेर हो जाता है। इस प्रकार नौ महीने पेट में रहने की अवधि में भ्रूण प्रायः 80 लाख 60 हजार 666 आकृतियाँ बदल लेता है। कुछ बच्चे देर से प्रायः नौ महीने दस-दस दिन में भी पैदा होते हैं। इस प्रकार यह गणना पौराणिक मान्यता के अनुसार 84 लाख योनियों जितनी ही हो जाती है।
शरीर की तरह मन की स्थिति में भी अंतर पड़ता जाता है। जैसे-जैसे भ्रूण की आयु बढ़ती है वैसे-वैसे उसकी मानसिक स्थिति में भी अंतर पड़ता जाता है। प्रायः चार-पाँच महीने में ही उसे यह आभास होने लगता है कि किसी बंधन में बँधा हुआ है, इससे उसे छूटना चाहिए; इसलिए माता के पेट में ही हाथ-पैर चलाने और अंगों को फड़फड़ाने लगता है। कुछ और समय बीत जाने पर उनका हृदय धड़कने लगता है। रक्तसंचार चल पड़ता है और माता की मनःस्थिति को आत्मसात करता जाता है। यहाँ तक कि परिवार के वातावरण में से भी कुछ संस्कार ग्रहण करने लगता है।
प्रसव के समय शिशु को अच्छा-खासा मल्लयुद्ध करना पड़ता है। बाहर निकलने के लिए द्वार छोटा पड़ने पर जो कठिनाई उसे पड़ती है, उसका समाधान अपने ही पुरुषार्थ से उसे निकालना पड़ता है। यह भी एक चक्रव्यूहभेदन के समान है। इसी प्रकार शरीर के कण-कण में फैला हुआ प्राण समेटने और बाहर निकालने में भी जीव को कम संघर्ष का सामना नहीं करना पड़ता है। शरीर का तथा स्वजनों का मोह अलग ही त्रास देता है।
इस प्रकार इस शंका का भी समाधान हो जाता है कि दूसरी योनियों में ही दुष्कर्मों के फल भुगते जाते हैं। मनुष्य जीवन में भी वे कठिनाइयाँ कम कहाँ हैं।