जीभ एक वाणियाँ चार

January 1986

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वाणी सामान्य अर्थों में वह कही जाती है, जो जिह्वा से कही और कानों से सुनी जाए। इसका एक स्वरूप लेखन और वाचन भी हो सकता है। वैखरी स्थूलवाणी है, जो विचारों के आदान-प्रदान में काम आती है। इस माध्यम से अपनी मान्यताओं, भावनाओ, इच्छाओं एवं परिस्थितियों को प्रकट किया जाता है।

मध्यमा वाणी वह है, जिसमें शब्दों का उच्चारण तो नहीं होता; पर संकेतों से अभिप्राय प्रकट होता है। चेहरा एक प्रकार का दर्पण माना गया है। उस पर विचारणाएँ दौड़ती और भावनाएँ छाई रहती हैं। उन्हें पढ़ा जा सकता है और मनःस्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। हाथों की मुद्राएँ भी कुछ सामान्य-संकेत करती हैं। उनके माध्यम से अभिप्राय प्रकट किया जा सकता है। भावना की अभिव्यक्ति तो आँखें और होठों के माध्यम से ही प्रधानतया होती है। इस प्रकार से अभिप्राय प्रकट करने वाली मध्यमा वाणी में कुछ कहने-सुनने की आवश्यकता नहीं पड़ती, तो भी व्यक्ति एकदूसरे की मनःस्थिति से अवगत होते रहते हैं। विशेषतया भावनाओं और आकांक्षाओं का प्रकटीकरण तो सहज ही हो जाता है।

परा वाणी वह है, जो विचारों के रूप में मस्तिष्क में चलती रहती है। इसका प्रत्यक्ष प्रकटीकरण तो मुखाकृति से भी नगण्य होता है; पर उसका प्रभाव दूसरों पर पड़ने में कमी नहीं आती। विचार-प्रवाह एक सीमित क्षेत्र पर धूप की तरह फैला रहता है। उसका प्रभाव काम करता है। धूप और छाया के मध्य जो अंतर पाया जाता है, वही भले-बुरे विचारों का होता है। सत्संग और कुसंग में आवश्यक नहीं कि वार्त्तालाप द्वारा ही सब कुछ कहा-सुना जाए। विचारों की विद्युतीय तरंगें समीपवर्त्ती लोगों तक पहुँचती हैं और उन्हें परोक्ष रूप से अपनी प्रेरणा से अवगत एवं प्रभावित करती रहती हैं। इसमें अधिक मनस्वी दुर्बल मन वाले को परास्त करके अपना आधिपत्य जमा लेता है। ऋषियों के आश्रमों में सिंह भी गायों के साथ पानी पिया करते थे। इसमें सिद्ध हुआ कि ऋषि की प्रभाव-प्रेरणा ने सिंह के स्वभाव को दबोच लिया और उसे वैसा ही व्यवहार करना पड़ा जैसा कि प्रेरणापुँज द्वारा उसे निर्देशन दिया गया था।

उपरोक्त वाणियों में एक से दूसरी का और दूसरी से तीसरी का अधिकाधिक प्रभाव होता है, क्योंकि उनके साथ अधिक ऊर्जा का समावेश होता है। धनुष की प्रत्यंचा को जितना पीछे खींचा जाता है उसी अनुपात से तीर में दूर तक जाने और गहरा घाव करने की सामर्थ्य होती है। मुख से मनुष्य ऐसे ही बेकार बकवास में अधिक शक्ति व्यय करता है। मखौलबाजी चलती रहती है। भीतर जो है उसके विपरीत भी शब्दाडंबर प्रकट किया जाता रहता है। विशेषतया धर्म, आदर्श, कर्त्तव्य, दर्शन आदि के प्रवचन करने वाले लोग ऐसे होते हैं, जो दूसरों को सदुपदेश देने में अपनी प्रवीणता प्रकट करते हैं। कथन को लच्छेदार शब्दों में गूँथकर ऐसा बना देते हैं जो कानों को सरस लगे। इतने पर भी श्रवणकर्त्ताओं पर उसका कोई कारगर प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि उसके पीछे आंतरिक विश्वासों की आस्था एवं निष्ठा का पुट नहीं रहता। हाथी का चित्र सुहावना तो लगता है; पर उसमें इतनी शक्ति नहीं होती हैं कि वजन उठाए या किसी को अपनी पीठ पर बिठाए।

आंतरिक भावनाओं का समावेश मध्यमा में होता है। दर्शक सूक्ष्मदर्शी है तो ही चेहरा पढ़ सकता है और उसके सूक्ष्म उतार-चढ़ावों को समझ सकता है, अन्यथा मंदबुद्धि लोग भूल भी कर सकते हैं। अपनी मनोवृत्ति के अनुरूप दूसरों की भावनाओं का अर्थ लगा सकते हैं। वाणी और मुद्रा की परिधि सीमित है। कान अपनी सामर्थ्य की दूरी से शब्द सुनते और आँखों की शक्ति, आकृति के ऊपर छाई हुई अभिव्यंजना को देख सकती है।

मध्यमा द्वारा निःसृत होने वाली विचार-तरंगें काफी दूर तक जाती हैं। यह चिंतक के व्यक्तित्व और प्राण-प्रवाह पर निर्भर है कि वह कितनी दूर तक पहुँचे और कितना प्रभाव उत्पन्न करे। इस संबंध में एक बात और भी है कि समान विचार के लोग परस्पर सरलतापूर्वक आदान-प्रदान कर लेते हैं, जबकि प्रतिकूल स्तर के साथ वे टकराकर छितरा जाते हैं और अस्वीकृत-तिरष्कृत होने पर वापस लौट जाते हैं। विश्वामित्र मनस्वी थे। उनके स्वप्नदर्शन का हरिश्चंद्र पर इतना प्रभाव पड़ा कि अपना राजपाट, शरीर, परिवार दान देने के लिए तैयार हो गया; किंतु ताड़का, सुबाहु, मारीच उनकी इच्छा के विपरीत यज्ञ में विघ्न ही डालते रहे। उनसे निपटने के लिए राम-लक्ष्मण को बुलाना पड़ा। कुश्ती का पहलवान अपने क्षेत्र में बाजी जीतता है; पर क्रिकेट से अनभ्यस्त होने पर हार जाता है।

चौथी वाणी पश्यंती है। इसमें उपरोक्त तीन वाणियों की तरह न्यूनाधिक मात्रा में भी शब्दों का प्रयोग नहीं करना पड़ता; वरन इसे जागृत करने के लिए मौन रहने का अभ्यास करना पड़ता है ताकि इस क्षमता को पूरी तरह संग्रहित करके रखा जा सके। मौन में शक्ति की बचत सबसे अधिक होती है। मनुष्य की प्राणशक्ति निरंतर वार्त्तालाप करने में बहुत अधिक खर्च हो जाती है। ऐसी दशा में उसके दूरगामी परिणाम उत्पन्न करने जैसी क्षमता शेष नहीं रहती। वाचाल व्यक्ति दूसरों को उच्च प्रयोजनों के लिए प्रभावित नहीं कर सकता।

पश्यंती वाणी का भंडार भरने के लिए साधक को न केवल अधिक समय मौन रहना पड़ता है, वरन उसे अपने शारीरिक, मानसिक दोष-दुर्गुणों का निराकरण करते हुए सर्वतोमुखी पवित्रता अर्जित करनी पड़ती है।

पश्यंती वाणी यदि सामान्य क्षमता की ही हो तो अपने संकल्पबल से समीपवर्त्ती वातावरण में सद्विचारों का संचार कर सकती है। गिरों को उठा सकती है और उठों को बढ़ा सकती है। उसे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसका कथन संकल्पमय हो जाता है, अस्तु अनेकों को श्रेयपथ पर घसीट ले जाने की उसकी क्षमता काम करने लगती है। अरविंद-रमण जैसे आत्मबल के धनी लोगों ने अपने समय का वातावरण बदल देने में असाधारण स्तर की सफलता पाई थी। गाँधी और बुद्ध प्रभावशाली वक्ताओं में नहीं गिने जाते थे, फिर भी उनकी सामान्य वाणी के सामान्य परामर्शों ने अनेकों को कठिन मार्ग पर चलने के लिए कितने ही सामान्यजनों को दुस्साहस कर गुजरने के लिए सहमत कर लिया।

पश्यंती वाणी अत्यंत ओजमय होती है। वह सीमित क्षेत्र में अवरुद्ध नहीं रहती, वरन उसका प्रभाव दूरगामी और अत्यंत प्रभावी होता है। व्यापक जनमानस का प्रवाह-परिवर्तन करने में वैखरी वाणी काम नहीं आती। वक्ता-प्रचारक बहुत कुछ कहते रहते हैं; किंतु उनके कथन का प्रभाव सीमित ही होता है, किंतु पश्यंती वाणी बिना एक शब्द कहे ही अनेकों को अनुगमन करने के लिए प्रेरित करने में सफल होती देखी गई है।

पश्यंती वाणी को उभारने में मौन के अतिरिक्त यह भी आवश्यक है कि चरित्र और लक्ष्य ऊँचा रहे। आहार और दिनचर्या में उत्कृष्टता का स्तर गिरने न पाए।

पश्यंती का उद्गम अंतःकरण है, जिसमें से प्रभावशाली प्रवाह उद्भूत करने के लिए यह आवश्यक है कि स्थूलशरीर के क्रियाकलाप, सूक्ष्मशरीर के चिंतन और कारणशरीर के सद्भाव उच्चकोटि के रहें। इन सबकी संयुक्त उत्कृष्टता ही पश्यंती वाणी का निर्माण करती है। वह इतनी प्रचंड हो सकती है कि अनाचार से लोहा ले सके और सत्प्रवृत्तियाँ दूरगामी क्षेत्र में सफल बनाने की भूमिका निभा सकें।


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