त्राताओं की भूमिका दाताओं से ऊँची

January 1986

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जिन्हें अनीति का लाभ लेते रहने की आदत पड़ गई है, उनसे यह आशा नहीं की जा सकती कि वे अपने सहज विवेक से न्याय का औचित्य समझेंगे और उसे स्वेच्छापूर्वक अपनाने के लिए सहमत होंगे।

परिवर्तन लाने के लिए पीड़ित पक्ष को अपनी दुर्दशा का इजहार करना होगा और यह भय छोड़ना होगा कि अत्याचारी कुछ अधिक क्रुद्ध होंगे और अधिक अत्याचार करेंगे। इस प्रकार सहते रहने और आँसू बहाते रहने से तो अनंतकाल तक वही स्थिति बनी रह सकती है।

भावनाशीलों का दायित्व है कि पीड़ितपक्ष के समर्थन में अनीतिकर्त्ताओं से जूझने के लिए संगठित हों और अपने साथ ऐसों को लें जिनमें शौर्य और साहस विद्यमान हैं। ऐसे गुट भले ही छोटे हों, पर उनकी संगठित शक्ति बड़ी कारगर होती है और जब वे तनकर खड़े हो जाते तो इतने भर से एक सीमा तक अनौचित्य से निपटने का माहौल बन जाता है।

कई बार पिछड़ापन लोगों के उस मनोबल का भी हरण कर लेता है जो अपने मानवीय अधिकारों के लिए विरोध कर, संघर्ष कर सकें। शारीरिक दृष्टि से सामान्य होते हुए भी मनोबल की दृष्टि से पिछड़े हुए लोग बीमारों, दुर्बलों, अपंगों, की तरह असमर्थ हो जाते हैं। अब अपने बलबूते न अपने ऊपर चल रहे शेष उत्पीड़न से निपट सकते हैं और न न्याय ही माँग या पा सकते हैं।

इस पीड़ित पक्ष को साहस, प्रोत्साहन और समर्थन देने की आवश्यकता है। इसके लिए ऐसा मध्यवर्ती समुदाय उभरना चाहिए, जो दूसरों पर होने वाले अत्याचारों को भी ऐसा ही अनुभव करे मानो वह विपत्ति उन्हीं पर टूट रही है।

समर्थ और संगठित उद्दंडों की हरकतें रोकने के लिए विरोध भरे आंदोलनों की आवश्यकता होती है।

जिस समुदाय में ऐसे आंदोलनकारी हों, समझना चाहिए कि वह वर्ग जीवित है। इस जीवन को भगवान का मूर्तिमान प्रकाश समझा जा सकता है। उसे समाज का आशाकेंद्र और मेरुदंड भी समझा जा सकता है। पीड़ितव र्ग को न्याय दिलाने में उसी की भूमिका सराही जा सकती है।

अनाचारी कायर होता है। वह तभी तक शेर रहता है जब तक उसके सामने विरोध नहीं आता। जब कभी उससे बड़ा मिल जाता है तो उसे बिल्ली की तरह पूँछ दबाकर भागते भी देखा जा सकता है।

न्याय के समर्थन में उठ जाने वालों को ही वस्तुतः न्यायमूर्ति कहा जाना चाहिए। वे आंदोलनकारी के रूप में अपने शौर्य-पराक्रम का परिचय देते हैं। हो सकता है कि उसमें उन्हें अनाचारियों के आक्रमण का सामना करना पड़े और उसमें जोखिम उठाने पड़े; पर इस प्रकार का मोर्चा बनाए बिना भी तो गति नहीं।

संत ही महान नहीं होते, सुधारक और शहीदों को भी महामानव ही गिना जाता है। आवश्यक नहीं कि धन कमाकर सदावर्त्त ही लुटाए जाए और कीर्तिस्तंभ ही खड़े किए जाएँ। यह भी एक बड़ा काम है कि जो वर्ग साहस के अभाव में अपनी विपत्तियों से आप नहीं जूझ सकता, उसे साथ लेकर न्याय की पुकार को बुलंद किया जाए।

अनीति के विरोध में कानून तो है; पर उससे भी लाभ उठाने की स्थिति जिनकी नहीं हैं उनका उद्धार कर सकना उन्हीं के लिए संभव है जो पीड़ितों का मनोबल बढ़ाते, समर्थन करते और सहयोग देते हैं। संसार के इतिहास में दासप्रथा, सामंतवाद जैसे अनेकों से छुटकारा वे ही दिला सके हैं जो उत्पीड़न के विरुद्ध डटकर लड़े हैं। भले ही जो स्वयं सताए न गए हों; पर जो उत्पीड़न के विरुद्ध बगावत का नियोजन करते हैं, उन्हें ही त्राता कहा जा सकता है। आज दाताओं से अधिक त्राताओं की आवश्यकता है।


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