एक तपस्वी किसी धर्मात्मा राजा के महल में पहुँचे। राजा गद्-गद् हो गए और पूछा— "आज मेरी इच्छा है कि आप का मुँहमाँगा उपहार दूँ।" तपस्वी ने कहा— "आप ही अपने मन से सबसे अधिक प्रिय वस्तु दे दें। मैं क्या मांगूँ?"
राजा ने कहा— "अपना राज्यकोष समर्पण करता हूँ।" तपस्वी बोले— "वह तो प्रजाजनों का है। आप तो संरक्षकमात्र हैं।" राजा ने बात मानी और दूसरी बार कहा— "महल, सवारी आदि तो मेरे हैं, इन्हें ले लें।" तपस्वी हँस पड़े। राजन! आप भूल जाते हैं। यह सब भी प्रजाजनों का है। आपको कार्य की सुविधा के लिए दिया गया है।
अबकी बार राजा ने अपना शरीर दान देने का विचार रख दिया। उसमें तपस्वी ने कहा— "यह भी आपके बाल-बच्चों का है, इसे कैसे दे पाएँगे।" राजा को असमंजस में देखकर तपस्वी ने कहा— "आप अपनेपन का अहंकार दान कर दें। अहंकार ही सबसे बड़ा बंधन है।" राजा दूसरे दिन से अनासक्त योगी की तरह रहने लगे। तपस्वी की इच्छा पूर्ण हो गई।