आत्मसत्ता का अस्तित्व

January 1986

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दर्शनशास्त्र, मनःशास्त्र या धर्म की पहुँच वस्तुतः आत्मसत्ता तक नहीं है। रहस्यवाद ही आत्मसत्ता के रहस्यों का बोध कराता है। व्यक्तित्व और मन दोनों अहम् (आत्मा) के भाग हैं, जो जानता है, समझता है और इच्छा करता है। मन चेतना का ही अंग एवं एकत्व है। व्यक्तित्व मन का प्रमुख अंग है।

समझदारी, स्मृति, मनोभाव और तर्क आदि मानसिक उपज नहीं हैं; वरन ये चेतना की प्रेरणाएँ हैं, जो मन द्वारा व्यक्त होते हैं। चेतना में अनेक अनुभूतियाँ हमेशा होती रहती हैं। हमारे शरीर और अंगों की संवेदनाएँ, तकलीफें और दर्द, इंद्रियों की अनुभूतियाँ, भूतकाल की मंद अनुभूतियाँ, वर्तमान और भविष्य की अनुभूतियाँ, आशाएँ, इच्छाएँ आदि हमेशा चेतना में रहती हैं। प्रत्येक मनुष्य की चेतना में नित्य एकता बनी रहती है और वह अपना कार्य व्यवस्थित रूप से करती है। नए अनुभव पहले के अनुभवों के परिष्करण के रूप में (इसमें) होते हैं और उनसे घुल-मिलकर एक हो जाते हैं। इन अनुभवों में चेतना के समस्त गुण एवं दृष्टिकोण होते हैं। यह मिश्रित व्यवस्था ‘सेल्फ’ कहलाती है।

सेल्फ की दो स्थितियाँ हैं- (1) बाह्यगत (2) आंतरिक। बाह्यगत सेल्फ से हम सोचने, समझने और अनुभव करने का काम लेते हैं, जो चेतना की ऊपरी परत है। इसके भीतर आंतरिक सेल्फ (इनर सेल्फ) गहराई में होता है। यह अतींद्रिय चेतना (अभौतिक) है और सबजेक्टिव कांशसनेस कहलाता है। इससे हमारे व्यवहार को प्रभावित करने वाले संवेग (अंतःप्रेरणाएँ) होते हैं। यह प्रभाव बाह्यगत चेतना (आबजेक्टिव सेल्फ) या स्मृति ज्ञान और अनुभव [जो अंतःचेतना में छिपी रहती हैं] के द्वारा अंतःचेतना पर पड़ता है।

अंतःचेतना आत्मा का आंतरिक भाग है और बाह्यचेतना आत्मा का बाह्य भाग है। आत्मा जीवन का स्रोत है और इसके रहते तक शरीर जीवित रहता है। यह स्वतंत्र है और अपनी इच्छानुसार नित्य कार्य करती है। अतः उससे समस्त ज्ञान प्राप्त होते हैं और सर्वोच्च शक्ति (परमात्मा) से वही संबंध स्थापित करती है। उसके रहस्यों का ज्ञान यह अंतःआत्मा ही देती है। यही रहस्यवादियों का आदर्श एवं प्रेरणा स्रोत है।

पदार्थ जगत में हम अधिक व्यस्त रहते हैं और अंतःजगत की भूले रहते हैं, इसीलिए हमें साधारणतः ये अनुभव नहीं होते। विषयगत विश्व से दूर रहने के कारण बच्चों को ये अनुभव कई बार होते हैं; परंतु उनके अभिभावक उन पर ध्यान नहीं देते। बच्चे ज्यों-ज्यों बड़े होते हैं, अनुभूतियाँ होना बंद हो जाती हैं।

बच्चों को अंतर्दर्शन की शिक्षा दी जानी चाहिए। यह बहुत महत्वपूर्ण अनुभवों एवं ज्ञानों का श्रोत है। अंतर्दर्शन से हम ईश्वरी तत्त्व को जानते हैं और उसकी शक्तियों को समझते हैं। विश्व में सर्वत्र यह तत्त्व भरा है; परंतु हम अज्ञानता वश इसका लाभ नहीं उठा पाते। प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर अंश है और उसमें ईश्वर की सारी शक्तियाँ सूक्ष्मरूप से भरी हैं। सारा विश्व ईश्वर का शरीर है और प्रत्येक वस्तु में वह विद्यमान है। अंतर्मन (आत्मा) मनुष्य के भाग्य का सूर्य है और संपूर्ण जीवन भर वह उसे प्रकाशित करता है। यह अंतरात्मा मनुष्य में ईश्वर की आवाजों, विचारों एवं शक्तियों को बतलाती है।

इनरसेल्फ (अंतरात्मा) पदार्थवाद से बहुत दूर सूक्ष्म अतींद्रिय क्षेत्र में रहता है, जहाँ तर्क समाप्त हो जाते हैं और अंतःदर्शन एवं अंतःज्ञान प्राप्त होते हैं। भौतिकवाद मन की उपज है और असत्य है। मन और अंतरात्मा समझ से परे हैं तथा इनको समझने के लिए विश्व में कोई भाषा या व्याकरण नहीं है। अतः अंतर्दर्शन एवं अंतरात्मा के विकास के लिए उपयोगी शिक्षा हम लोगों को अवश्य देनी चाहिए। भारतीय दर्शन का यह मौलिक सिद्धांत है।


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