अंबपाली (कहानी)

January 1986

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अंबपाली वैशाली की अनुपम रूपवती नगर वधू थी। उसके पास धन-दौलत का अंबार था। प्रशंसकों और सहयोगियों की कमी न थी।

उन्हीं दिनों भगवान का धर्मचक्र-प्रवर्तन अभियान चल रहा था। सहस्रों नर-नारी, घर-गृहस्थी का मोह छोड़कर बौद्ध बिहारों में शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करके देश-देशांतरों में धर्मप्रचार के लिए निकल जाते। अपने प्रयास से वातावरण को बदलने में सफल होते।

उस तूफानी प्रवाह से अंबपाली भी अप्रभावित न रह सकी। उसने जीवन के महत्त्व और साथ ही उसके वर्तमान दुरुपयोग को समझने का प्रयत्न किया तो आत्मा से यही आवाज आई कि भगवान की दी हुई रूप और कंठ की विभूति को अपने तथा दूसरों के पतन हेतु नियोजित नहीं किया जाना चाहिए।

वह आत्मा की पुकार को अधिक दिन दबाए न रह सकी। बुद्ध की शरण में गई और अपनी वृत्ति छोड़कर लोक-कल्याण के लिए निकल पड़ी। सारा संचित धन उसने प्रायश्चित स्वरूप बुद्ध बिहार को दान में दे दिया और भिक्षुणी बन गई।

तुलसीदास जी अपनी पत्नी रत्नावली के प्रताड़ना भरे उपदेश सुनकर ही श्रेयमार्गगामी बने और अमर हो गए।


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