हर परिस्थिति के लिए तैयार रहें

January 1986

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प्रकृति के नियमों में एक रहस्य बड़ा ही विचित्र, अद्भुत एवं रहस्यपूर्ण है। वह यह है कि हर एक विपत्ति के बाद उसकी विरोधी सुविधा प्राप्त होती है। जब मनुष्य बीमारी से उठता है तो बड़े जोरों की भूख लगती है, निरोगिता शक्ति बड़ी तीव्रता से जागृत होती है और जितनी थकान बीमारी के दिनों आई थी वह तेजी के साथ पूरी हो जाती है। ग्रीष्म की जलन को चुनौती देती हुई वर्षा की मेघमालाएँ आती हैं और धरती को शीतल, शांतिमय हरियाली से ढक देती हैं। हाथ-पैरों को अकड़ा देने वाली ठंड जब उग्ररूप से अपना जौहर दिखा चुकती है तो उसकी प्रतिक्रिया से एक ऐसा मौसम आता है, जिसके द्वारा यह शीत सर्वथा नष्ट हो जाती है। रात्रि के बाद दिन का आना सुनिश्चित है, अंधकार के बाद प्रकाश का दर्शन भी अवश्य ही होता है। मृत्यु के बाद जन्म भी होता ही है। रोग, घाटा, शोक आदि विपत्तियाँ चिरस्थाई नहीं हैं, वे आँधी की तरह आती हैं और तूफान की तरह चली जाती हैं। उनके चले जाने के पश्चात एक दैवी प्रतिक्रिया होती है, जिसके द्वारा उस क्षति की पूर्ति के लिए ऐसा विचित्र मार्ग निकल आता है, जिसे बड़ी तेजी से उस क्षति की किसी न किसी प्रकार पूर्ति हो जाती है, जो आपत्ति के कारण हुई थी।

एक बार नष्ट हुई वस्तु फिर ज्यों की त्यों उसी रूप में नहीं आ सकती यह सत्य है; परंतु यह भी सत्य है कि मनुष्य को सुसंपन्न, सुखी बनाने वाले और भी कितने ही साधन हैं और उन नए साधनों में से कई एक उस क्षतिग्रस्त व्यक्ति को प्राप्त होते हैं, हो सकते हैं। जब घास को हम बार-बार हरी होते हुए देखते हैं, जब अंधकार को हम बार-बार नष्ट होते देखते हैं, जब रोगियों को पुनः आरोग्य लाभ करते देखते हैं, तो कोई कारण नहीं कि विपत्ति के बाद पुनः संपत्ति प्राप्त होने की आशा न की जाए। जो उज्ज्वल भविष्य की आशा नहीं करता, जिसे यह विश्वास नहीं कि मुझे पुनः अच्छी स्थिति प्राप्त होगी, वह नास्तिक है। जिसे ईश्वर की दयालुता पर विश्वास न होगा वह ऐसा सोच सकता है, कि मेरा भविष्य सदा के लिए अंधकार में पड़ गया। जो पर्वत को राई कर सकता है, उसकी शक्ति पर यह भी भरोसा करना चाहिए कि वह राई को पर्वत भी कर सकता है। जो आज रो रहा है, उसे यह न सोचना चाहिए कि उसे सदा ही रोता रहना पड़ेगा। निराशा परमात्मा के परम प्रिय पुत्र को किसी प्रकार शोभा नहीं देती।

जब किसी की एक टांग टूट जाती है, उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि एक टांग से चलना तो दूर खड़ा रहना भी मुश्किल है। अब उससे किसी प्रकार चला-फिरा न जा सकेगा; पर जब अधीरता छोड़कर विवेक से काम लिया जाता है तो काम चलाऊ तरकीब निकल आती है। लकड़ी का पैर लगाकर वह आदमी अपना काम करने लगता है। इसी प्रकार अन्य कोई अंग भंग हो जाने पर भी उसकी क्षतिपूर्ति किसी अन्य प्रकार हो जाती है और फिर कुछ दिन बाद उस अभाव का खटकना बंद हो जाता है।

“मैं पहले इतनी अच्छी दशा में था, अब इतनी खराब दशा में आ गया” यह सोचकर रोते रहना और अपने चित्त को क्लेशांवित बनाए रहना कोई लाभदायक तरीका नहीं। इससे लाभ कुछ नहीं होता, हानि अधिक होती है। दुर्भाग्य का रोना-रोने से, अपने भाग्य को कोसने से मन में एक प्रकार की आत्महीनता का भाव उत्पन्न होता है। मेरे ऊपर ईश्वर का कोप है, देवता रुठ गए हैं, भाग्य फूट गया है, इस प्रकार का भाव मन में आने से मस्तिष्क की शिराएँ शिथिल हो जाती हैं। शरीर की नाड़ियाँ ढीली पड़ जाती हैं, आशा और प्रसन्नता की कमी के कारण नेत्रों की चमक मंद पड़ जाती है। निराश व्यक्ति चाहे किसी भी आयु का क्यों न हो उसमें बूढ़ों के लक्षण प्रकट होने लगते हैं, मुँह लटक जाता है, चेहरे पर रूखापन और उदासी छाई रहती है, निराशा और नीरसता उसकी हर एक चेष्टा से टपकती है। इससे आदमी अपने शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के स्वास्थ्य को खो बैठते हैं। मंदाग्नि, दस्त साफ न होना, दाँत का दर्द, मुँह के छाले या सोते समय मुँह से लार बहना, सिर दर्द, जुकाम, बाल पकना, नींद कम आना, डरावने स्वप्न दिखना, पेशाब में पीलापन व गदलापन, मुँह या बगलों से अधिक बदबू आना, हाथ पैरों में हड़फूटन, दृष्टि कम होना, कान में सनसन होना जैसे रोगों के उपद्रव आए दिन खड़े रहते हैं। निराशा के कारण शरीर की अग्नि मंद हो जाती है, अग्नि की मंदता से उपरोक्त प्रकार के रोग उत्पन्न होने लगते हैं। शनै-शनै स्वास्थ्य को घुलाता हुआ वह व्यक्ति अल्पायु में ही मृत्यु के मुख में चला जाता है।

जो व्यक्ति अपने आप को दुर्भाग्यग्रस्त मान लेते हैं, उनमें मानसिक शिथिलता भी आ जाती है। कपाल की भूरी मज्जा कुंहला जाती है। उसमें से चिकनाई कम हो जाती है, विचारशक्तियों का संचालन करने वाले नाड़ी तंतु कठोर और शुष्क हो जाते हैं, उनमें से जो विद्युत-धारा बहा करती है, उसका प्रवाह नाममात्र का रह जाता है, स्फुरण, कंपन, संकुचन, प्रसारण, सरीखी वे क्रियाएँ जिनके द्वारा मानसिक शक्तियों में स्थिरता एवं वृद्धि होती है, बहुत ही धीमी पड़ जाती है। फल यह होता है कि अच्छा भला मस्तिष्क कुछ ही दिन में अपना काम छोड़ बैठता है, उसकी क्रियाशक्ति लुप्त हो जाती है।

कहते हैं कि विपत्ति अकेली नहीं आती। वह अपने साथ और भी अनेक विपत्तियों का जंजाल लाती है। एक के बाद दूसरी आपत्ति सिर पर चढ़ती है। यह बात असत्य नहीं है। निस्संदेह एक कष्ट के बाद दूसरे कष्टों का भी सामना करना पड़ता है। इसका कारण यह है कि विपत्ति के कारण मनुष्य निराश, दुःखी और शिथिल हो जाता है। भूतकाल का स्मरण करने, रोने-धोने और भविष्य का अंधकारमय कल्पना-चित्र तैयार करने में ही उसका मस्तिष्क लगा रहता है। समय और शक्ति का अधिकांश भाग इसी कार्य में नष्ट होता रहता है, जिससे पुनः सुस्थिति प्राप्त करने की दिशा में सोचने और साहसपूर्ण मजबूत कदम उठाने की व्यवस्था नहीं बनती। उधर शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य चौपट होने लगता है, एक ओर स्वभाव के बिगड़ जाने के कारण विरोधी बढ़ जाते हैं और मित्रों की कमी हो जाती है। सब ओर असावधानी पर असावधानी होने लगती है। दुष्टता की सत्ता का ऐसे ही अवसरों पर दाव लगता है, मौका देखकर उनके वाण भी चलने लगते हैं। निर्बल एवं अव्यवस्थित मनःस्थिति का होना मानों विपत्तियों को खुला निमंत्रण देना है। मरे हुए पशु की लाश पड़ी देखकर दूर आकाश में उड़ते हुए चील, कौवे उसके ऊपर टूट पड़ते हैं, इसी प्रकार निराशा से शिथिल और चतुर्मुखी अव्यवस्था से ग्रस्त उस अर्धमृत मनुष्य पर आपत्ति और कष्टों के चील-कौए टूट पड़ते हैं और इस उक्ति को चरितार्थ करते हैं कि विपत्ति अकेली नहीं आती।

आकस्मिक विपत्ति का सिर पर आ पड़ना मनुष्य के लिए सचमुच बड़ा दुखदाई है। इसमें उसकी बड़ी हानि होती है; किंतु उस विपत्ति की हानि से अनेकों गुनी हानि करने वाला एक और कारण है, और वह है “विपत्ति की घबराहट”। विपत्ति कही जाने वाली घटना चाहे वह कैसी ही बड़ी क्यों न हो किसी का अत्यधिक अनिष्ट नहीं कर सकती। वह अधिक समय ठहरती भी नहीं, एक प्रहार करके चली जाती है; परंतु “विपत्ति की घबराहट” ऐसी दुष्टा पिशाचिनी है कि वह जिसके पीछे पड़ती है, उसके गले से खून की प्यासी जोंक की तरह चिपक जाती है और जब तक उस मनुष्य को पूर्णतया निःसत्व नहीं कर देती तब तक उसका पीछा नहीं छोड़ती। विपत्ति के पश्चात् आने वाले अनेकानेक जंजाल इस घबराहट के कारण ही आते हैं। शारीरिक, मानसिक और सामाजिक सुस्थिति का सत्यानाश करके वह मनुष्य की जीवनशक्ति को चूस जाती है।

आकस्मिक विपत्तियों से मनुष्य नहीं बच सकता। राम, कृष्ण, हरिश्चंद्र, नल, पांडव, प्रताप, शिवाजी, गुरु गोविंद सिंह जैसी आत्माओं को विपत्ति ने नहीं छोड़ा तो अन्य कोई उसकी चपेटों से बच जाएगा, ऐसी आशा न करनी चाहिए। इस सृष्टि का विधि-विधान कुछ ऐसा ही है कि हानि-लाभ का चक्र हर एक के ऊपर चलता रहता है।


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