बिहार के वैशाली नगर के निकटवर्ती एक गाँव में जन्मे वर्धमान विवेक और दूरदृष्टि अपने साथ लेकर आए थे। सामान्य जन लोभ और मोह से आगे की बात सोच नहीं पाते। फलतः उन्हें समाज को ऊँचा उठाने जैसे सर्वोत्कृष्ट परामर्श के लिए न साहस होता है और न समय ही मिलता है; पर वर्धमान जल में कमल की तरह रहे। परिवार को भी उनने संभाला; पर सबसे अधिक ध्यान उस विराट का रखा, जिसे समाज कहते हैं। उनकी जीवनचर्या भगवान बुद्ध से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। दोनों के समय में भी थोड़ा-सा ही अंतर है।
वर्धमान जब तपस्वी बनकर लोक-मंगल के लिए निकले तब वे महाबली महावीर हो गए। वे उलटे प्रवाह को उलटने में बहुत हद तक अपने ही पराक्रम से सफल हुए। अगणित प्रतिभाएँ उनके सहयोगी बने और तत्कालीन प्रचलनों में क्रांति उत्पन्न हो गई।
लोग भगवान के पीछे लाठी लेकर पड़े थे। उनने कहा— “कर्म ही ईश्वर है।” निरर्थक भ्रमजाल में फँसकर भक्ति का ढकोसला पीटने से कोई लाभ नहीं। उनने अहिंसा को, प्रेम को, सृजन को परमार्थ बताया है। अहिंसा धर्म का तात्पर्य उनने यही बताया कि सबके कल्याण के लिए रचनात्मक काम किया जाए। उनकी अहिंसामात्र निषेधात्मक नहीं, वरन सृजनात्मक थी।