पत्तों को नहीं, जड़ों को सींचा जाय

December 1983

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मानवी व्यक्तित्व को तीन घटकों में विभाजित किया जा सकता है-शरीर, मन और आत्मा। शरीर की भूमिका दैनन्दिन जीवन में प्रत्यक्ष दिखायी पड़ती है। मन के क्रिया-कलाप इच्छाओं, आकाँक्षाओं, कल्पनाओं के रूप में अनुभव में आते हैं। सबसे सूक्ष्मतम परत आत्मा की है जो इन्द्रियों से न तो दिखायी पड़ती और न ही उसकी सत्ता पकड़ में आती है। प्रत्यक्ष अनुभव में न आने पर भी उसकी चैतन्य प्रेरणाओं को एक सबसे अधिक सामर्थ्यवान शक्ति के रूप में स्वीकार किया जाता रहा है। मन की घुड़-दौड़ तथा शरीर की हलचल भी प्रकारान्तर से उसी अजस्र शक्ति स्त्रोत की सामर्थ्य से अभिप्रेरित है।

मनुष्य के सर्वांगीण विकास का लक्ष्य तभी पूरा हो सकता है जबकि तीनों ही घटक अपने-अपने अनुरूप पोषण प्राप्त करें। उनकी देख-रेख-सुधार-सम्भाल एवं विकास पर सन्तुलित ध्यान दिया जाय।

वैज्ञानिक अनुसन्धानों की एक विडम्बना यह रही कि वे शरीर के इर्द-गिर्द तथा उससे जुड़े साधनों के आविष्कार में ही घूमते रहते हैं। लाभ यह हुआ है कि अधिकतम चिकित्सा एवं सुविधा साधन जुटने से मनुष्य की औसत आयु बढ़ी है पर उसी अनुपात में उसकी जीवनी शक्ति कम हुई तथा मनःस्थिति विकृत हुई है। संसार में ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं जो शरीर से समर्थ हैं, युवा हैं पर मानसिक दृष्टि से उन वृद्धों के समान है और न ही उमँग। शरीर से जीवित पर आत्म गरिमा से वंचित मरे हुओं की संख्या करोड़ों में है। मन के रुग्ण-असन्तुलित रहने तथा आत्म-सत्ता के उपेक्षा के गर्त्त में पड़े रहने का ही परिणाम है कि संसार में मरघट के पिशाचों की भाँति जलते रहने वालों की बिरादरी अब दिनों-दिन बढ़ती जा रही है।

दृष्टिकोण का शरीर तक परिसीमित रह जाने का ही यह दुष्परिणाम है कि अंगों की टूट-फूट, चिकित्सा आदि पर जितना ध्यान दिया एवं पैसा खर्च किया जा रहा है, वह आश्चर्यजनक है। चिकित्सा विज्ञान की अंग प्रत्यारोपण की विधा विकसित हो जाने से कोई भी व्यक्ति अपनी अपंगता अथवा इन्द्रियों की विकृतियों को उनके सहयोग से दूर कर सकता है।

संसार के मूर्धन्य वैज्ञानिक जीवशास्त्री तथा रसायनविद् विभिन्न प्रयोगशालाओं में ‘बायोनिक मैन’ के निर्माण एवं विकास के लिए प्रयत्नशील हैं। इस कार्य में तो सफलता नहीं मिल पाई है पर कुछ ढर्रे के कार्यों के लिए आविष्कृत यन्त्र मनुष्य के स्थानापन्न बन चुके हैं। मानव शरीर के जीवित सक्रिय अंगों के क्षतिग्रस्त होने पर दूसरे कृत्रिम अंगों के प्रत्यारोपण में न्यूनाधिक रूप से सफलता मिलने लगी है।

बीसवीं सदी के आरम्भ में कृत्रिम पैर, बाजू, दाँत तथा दृष्टिकोण को दूर करने वाले सहयोगी यन्त्र बनने लगे थे। कृत्रिम गुर्दे तथा “हार्ट बाय-पास” मशीन का विकास क्रमशः 1940 तथा 1950 में हुआ जिससे प्रेरणा लेकर 1955 में “अमेरिकन सोसायटी फॉर आर्टीफिशियल इण्टरनल आर्गन्स” संस्था बनी। पिछले एक दशक में जापान तथा अन्य यूरोपीय देशों में ऐसी कितनी ही संस्थाओं का गठन हो चुका है जो ‘बायो इंजीनियरिंग’ के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य कर रही हैं। इस क्षेत्र में तीव्र विकास का एक प्रमुख कारण है ‘इलेक्ट्रानिक्स’ ‘कम्प्यूटर साइन्स’, ‘पदार्थ विज्ञान’ तथा रसायन शास्त्र की स्तुत्य उपलब्धियों का योगदान। इन क्षेत्रों की उपलब्धियों ने विभिन्न प्रकार के कृत्रिम अंगों के निर्माण एवं उनके प्रत्यारोपण का कार्य अत्यन्त सुगम बना दिया है। बायो इंजीनियरिंग के शोध कार्य में पदार्थ विज्ञान, शरीर विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान, भौतिकी के विशेषज्ञ अब परस्पर सहयोग से कार्य कर रहे हैं तथा मानव को अधिकतम सुविधाएँ दे सकने में सफल हुए हैं।

कोलम्बिया विश्व-विद्यालय के कृत्रिम अंग विभाग के डायरेक्टर विलियम डोवले ने कृत्रिम नेत्र योजना का कार्य अपने हाथों में लिया है। वे शरीर विज्ञान विशेषज्ञ हैं। बायो इंजीनियरिंग में प्रवीण विभिन्न विषयों के विशेषज्ञों के सहयोग से वे कृत्रिम नेत्रों का निर्माण करते हैं। “माइक्रोसरकिट लैबोरेटरी ऑफ यूटाह यूनिवर्सिटी” के भौतिकविदों द्वारा आविष्कृत कृत्रिम नेत्र की प्रणाली का वे उपयोग करते हैं। इन्हें न्यूरोसर्जन के माध्यम से यूनाइटेड स्टेटस् तथा कनाडा के विभिन्न मेडिकल सेन्टरों अन्धों में प्रत्यारोपित किया जाता है। वैज्ञानिकों के इस दल द्वारा आविष्कृत कृत्रिम नेत्र मस्तिष्क के दृश्य कार्टेक्स के संवेदनशील केन्द्रों पर सीधे विद्युत अभिप्रेरणा सिद्धान्त के आधार पर कार्य करते हैं।

कान एवं नेत्र क्रिया प्रणाली की दृष्टि से एक दूसरे के अधिक निकट हैं। इन विशेषज्ञों द्वारा यह प्रयास चल रहा है कि कृत्रिम आँख, नाक तथा कान को एक ही प्रणाली में एक साथ विकसित किया जाय। क्योंकि इनमें पारस्परिक संबंध है। अनुमानतः कृत्रिम आँखों के प्रत्यारोपण का खर्च एक व्यक्ति पर दस लाख रुपयों से भी ऊपर आता है। कार्निया बैंक में दान दिये गये नेत्रों की कीमत कम पड़ती है। पर यदि उन्हें बाजार भाव से खरीदना पड़े तो सामान्य व्यक्ति के लिए खरीद सकना तो असम्भव ही होगा।

कृत्रिम गुर्दे अथवा डायलसिस मशीनों का प्रयोग पिछले पैंतीस वर्षों से हो रहा है। सन् 1978 में 39000 अमरीकी रोगियों ने डायलिसिस के माध्यम से नव जीवन प्राप्त किया। गुर्दे के रोगी यदि कृत्रिम गुर्दे लगवाने पड़ें तो एक गुर्दे का न्यूनतम खर्च पन्द्रह लाख रुपये से कम नहीं आयेगा। जो अपने गुर्दे दूसरों को दान दे देता है वह पैसे की दृष्टि से कम से कम उपरोक्त राशि का नकद सहयोग देता है। जिससे जीवन दान मिला, उस उपलब्धि की कोई कीमत नहीं लगायी जा सकती।

अनेकों प्रयत्नों के बावजूद भी कृत्रिम लीवर का निर्माण कर सकना सम्भव नहीं हो सका है। एक स्वस्थ लीवन द्वारा अनेकों प्रकार के विजातीय विषाक्त पदार्थों का निष्कासन रक्त से होता है। बुरी आदतों अथवा नशेबाजी के कारण जब दूषित पदार्थ अत्यधिक मात्रा में जमा हो जाते हैं तो लीवर क्षतिग्रस्त हो जाता है तथा काम करना बन्द कर देता है। इस अवरोध को दूर करने के लिए विषाक्तता परिशोधन हेतु कितने ही प्रयास किये गये पर सफलता अत्यल्प ही मिल पायी है। जितनी सफलता मिली है उसमें एक खतरा यह बना रहता है कि रक्त परिशोधन में कहीं वे विषाक्त पदार्थ रक्त प्रवाह में पहुँचकर पूरे रक्त को ही दूषित न कर दें। इसका एक समाधान शरीर विज्ञानियों ने यह निकाला है कि ऐसी स्थिति में आने के पूर्व ही पूरे रक्त से प्लाज्मा को अलग कर दिया जाय तथा शुद्ध रक्त के प्लाज्मा को इन्जेक्ट कर दिया जाय जो कि अत्यन्त महंगा तथा कष्टसाध्य विकल्प है।

अग्न्याशय (पैन्क्रियाज) से उपयुक्त मात्रा में इन्सुलिन उत्पादन न होने से मधुमेह रोग उत्पन्न होता है अनुमानतः संसार की पाँच प्रतिशत आबादी इस रोग से पीड़ित है। लगभग तीस प्रतिशत अमरीकी तथा संसार की एक प्रतिशत जनसंख्या अग्नाशय के कैन्सर से पीड़ित हैं जिसमें से अधिकाँश को तो जीवन पर्यन्त अपने भयंकर रोग की जानकारी भी नहीं मिल पाती। मधुमेह के मरीजों के लिए उपचार यह है कि विशिष्ट मर्यादाओं का पालन करते हुए उचित परिणाम में इन्सुलिन की मात्रा ग्रहण करते हैं। बायो इंजीनियरिंग के विशेषज्ञों ने कृत्रिम अग्नाशय के विकास के लिए प्रयास किया है ताकि स्वसंचालित यान्त्रिक प्रक्रिया से रक्त के लिए आवश्यक परिणाम में इन्सुलिन का उत्पादन होता रहे। सम्बन्धित संवेदनशील यन्त्र एक ग्लुकोज सेन्सर, एक पम्प तथा इन्सुलिन वितरण नलिका से युक्त होता है। यह यन्त्र थोड़े समय तक कार्य करने में सक्षम हो सकता है पर लम्बे समय तक प्रयुक्त नहीं हो सकता। साथ ही इसके लिए करोड़ों रुपये की जरूरत भी पड़ती है जो मरीज वहन नहीं कर सकता।

विगत कुछ दशकों में प्लास्टिक सर्जरी के क्षेत्र में भी असाधारण प्रगति हुई है। उसकी मदद से कोई भी व्यक्ति अपनी बदसूरती तक को मिटाने में सफल हो सकता है। प्लास्टिक सर्जरी में आरोपण योग्य पदार्थ के रूप में सिलीकॉन युक्त रबर का प्रयोग सफलतापूर्वक किया जाता है। यही ऐसा पदार्थ हैं जो शरीर के विभिन्न तरल पदार्थों के प्रति प्रायः अक्रियाशील रहता है। पर कुछ स्थान ऐसे भी हैं जहाँ उसका प्रयोग वर्जित है। उदाहरणार्थ कृत्रिम यूरेटर्स, तथा मूत्राशयों में यदि सिलीकॉन पदार्थ का प्रयोग किया जाय तो वह उनके कैल्शियम साल्ट को सिलीकॉन रबर की दीवारों पर अवक्षेपित कर देता है जो कितने ही नये प्रकार के खतरों को जन्म देता है। इस खतरे से बचने के लिए वैज्ञानिकों ने कितने ही अस्थायी कृत्रिम विकल्प प्रस्तुत किये हैं जिनका प्रयोग विभिन्न देशों में चल पड़ा है। हृदय के वाल्वों (कपाटों) के विकृत हो जाने पर कृत्रिम प्लास्टिक की गेंद जो तार के घेरे में फँसी गोलाकृति होती है, के प्रत्यारोपण में भी सफलता मिल चुकी है।

रक्त परिवहन संस्थान की शरीर क्रिया प्रणाली को सुचारु रूप में चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। एक सदी पूर्व तक लाखों व्यक्ति रक्त परिवहन संस्थान से जुड़े रोगों से अकाल मृत्यु को प्राप्त होते थे। पर कृत्रिम “हार्ट-लंग बाइपास” मशीन के निर्माण एवं विकास से अगणितों को जीवनदान मिला है। बीसवीं सदी के इन महत्वपूर्ण आविष्कारों से न केवल खुले तौर पर हृदय की शल्य-चिकित्सा में मदद मिली है बल्कि इस संस्थान की अनेकों समस्याओं को दूर करने में आशातीत सफलता प्राप्त हुई है। संसार में आज लाखों व्यक्तियों में कृत्रिम वाल्वों का सफल प्रत्यारोपण हो चुका है। अब तो पूर्णतः सफल प्रत्यारोपण किसी व्यक्ति द्वारा दान में दिए गये हृदय का ही नहीं बनाए गए कृत्रिम हाथ और पैरों का भी होने लगा है, जिनकी मदद से वे अपना दैनन्दिन कार्य आसानी से चला सकते हैं।

अंग प्रत्यारोपण के क्षेत्र में ही नहीं अगणित रोगों के उपचार में चिकित्सा विज्ञान तथा जैव इंजीनियरिंग की मिली सफलताएँ आश्चर्यजनक हैं। वैज्ञानिक प्रशंसा के पात्र हैं जिनने अपनी साधना से असंख्यों व्यक्तियों को जीवनदान दिया है। पर अनुसंधान की इस शृंखला में कुछ महत्वपूर्ण कड़ियाँ और भी जोड़नी होंगी। अंगों की टूट-फूट, रुग्णता की भाँति मन भी विघटित होता है-व्याधियों से घिरता है। अन्तःक्षेत्र जो आत्मा की क्रीड़ा स्थली है, की परत और भी गहरी है। असन्तुलन इस क्षेत्र में भी पैदा होता है। शरीर की तुलना में उपचार इनका होना और भी आवश्यक है। अन्यथा शरीर को स्वस्थ, सन्तुलित एवं सुगठित रखने के वे प्रयास सार्थक सिद्ध नहीं हो सकेंगे। शरीर का संचालन मन और अन्तःकरण के हाथों में है। वे विक्षुब्ध रहेंगे तो प्रभावित अन्ततः शरीर भी होगा। अगणित प्रकार के नये रोग पैदा होंगे।

आवश्यकता इस बात की है कि व्यक्तित्व के अति महत्वपूर्ण घटकों की उपेक्षा न की जाय। धन, जन, प्रतिभा, समय का जितना अंश शरीर से जुड़े अनुसन्धान कार्यों में नियोजित हो रहा है, उतना ही मन और आत्मा की परतों की खोज-बीन में प्रयुक्त है। उनकी भी साज, सम्भाल उपचार एवं विकास की शरीर की तरह ही आवश्यकता है। यह सम्भव हो सके तो इसी काया में एक नये महामानव का जन्म हो सकता है जिसकी आज जरूरत है।


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