वाक् शक्ति की अधिष्ठात्री गायत्री

December 1983

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मन्त्र की शक्ति असीम है। उसकी सामर्थ्य का पारावार नहीं हैं। लोहे से बने, विद्युत संचालित यन्त्रों का करतब हम प्रत्यक्ष देखते हैं पर वह होता तभी है जबकि वे सभी यन्त्र लोहे के हों, ओर सही पद्धति से निर्मित किये गये हों। बच्चों के खिलौने के रूप में रेल, मोटरें, हवाई जहाज आदि बने होते हैं पर उनकी बाहरी शक्ल बनी होती है। निर्माण पद्धति का प्रयोग जैसा होना चाहिए वैसा न होने से वे खिलौने भर बनकर रह जाते हैं, वह काम नहीं कर सकते जो असली यन्त्र करते हैं। यन्त्र की तरह मन्त्र भी है वह समर्थ और सर्वांगपूर्ण होता है लेकिन शर्त यह है कि उसके साथ साधक का व्यक्तित्व भी अध्यात्म प्रक्रिया पद्धति को अपनाए।

गायत्री मन्त्र की महत्ता सर्वोपरि प्रधान है। उसकी प्रधानता और वर्चस् को देखते हुए यह आवश्यक हो जाता है कि उसकी साधना और उपासना में व्यक्तित्व को और अधिक प्रखर बनाया जाय। स्मरण रखा जाना चाहिए कि वाणी से उपासना करना ही पर्याप्त नहीं है, उसे ‘वाक्’ बनाकर ही इस योग्य बनाया जा सकता है, कि अध्यात्म पथ पर बढ़ते हुए साधक को कुछ कहने लायक सफलता मिल सकें। आयुर्वेद में सोना, चाँदी, ताँबा, राँगा, पारद आदि की भस्म बनाकर उनके सेवन का विधान है। विषों का भी बड़ा लाभ बताया गया है। पर वह सम्भव तभी होता है जबकि उन विषों को विधान पूर्वक शुद्ध किया जाय। वाणी एक मूल पदार्थ है शोधित होने पर वह अमृत बन जाती हैं और विकृत होने पर विष का काम करती है।

गायत्री मन्त्र की साधना का प्रथम प्रयास अपने गुण कर्म, स्वभाव को परिष्कृत करना है। मात्र वाणी का संयम करने से उसे वाक् रूप में परिणत नहीं किया जा सकता। मौन, सत्य, मधुर वचन, सत्प्रयोजन, सन्तुलित एवं स्वल्प समाज जिह्वा साधना के बाह्य उपचार है। अन्तःकरण में उत्कृष्टता और क्रिया-कलाप में आदर्शवादिता का समन्वय अन्तः उपचार है। प्याज, मूली, शराब, हींग आदि खाने पर मुँह में वैसी ही गन्ध आती हैं, अन्तःकरण में यदि असन्तुलन भरा हो तो जिह्वा की रोक बाँध में भी चूक होती ही रहेगी और वस्तुस्थिति उभरकर जिह्वा के माध्यम से प्रकट होती रहेगी। असद् वाणी साधना को मात्र शब्द साधना नहीं समझना चाहिए वरन् अन्तःकरण की शुद्धि से उनका अन्योन्याश्रित सम्बन्ध समझना चाहिए। तभी वाणी का प्रत्यावर्तन वाक् रूप में होता है और उसके द्वारा उच्चारित मन्त्र सफल व सार्थक होता है। ऐसी वाक् शक्ति की शास्त्रों में पग-पग पर महिमा गाई गयी है। कहा गया है -

क्ल यद्वाग्वदन्त्य विचेतानानि, राष्ट्री देवानाँ निषसाद् मन्द्रा। चतस्रव लर्ज्ज दुदुरे पयाँसि, क्व ल्विदस्याः परमं जगाम॥ -सरस्वती रहस्योपनिषद्

अर्थात्-वाक् विश्वव्यापी है, समस्त प्राणियों में व्याप्त है। अल्प चेतनों में भी वह विद्यमान है। वह देवताओं का भी संचालन करती है। न जाने हम कब उसे जान सकेंगे।

स वै वाचमेव प्रथमामत्यवहत् सा यदा मृत्युमत्यमुच्यत सोऽग्निभवत् साऽयमग्निः परेण मृत्युमतिक्रान्तो दीप्यते। -वृ.उ. 1।3।12

अर्थात्-‘वाक्’ देवता को प्राण ने मृत्यु से पार किया। यह वाक् अग्नि बनकर अमर हो गई वह असीम शक्तियों से ओत-प्रोत होकर ज्योतिर्मय हो गई।

मननात्सर्वं भवानाँ गरुणात्संसार सागरात्। मन्त्र रुपा हि तटछक्तिर्मं तनत्राण रुपिणी॥ -प्रपंच सारतंत्र

अर्थात्-मन, मनन और भावनायें समस्त जगत का त्राण करने वाली शक्ति का नाम मन्त्र है। वह मूल में एक होते हुए भी प्रयोग में अनेक हो जाती है।

मन्त्र साधना में जप का प्रमुख स्थान है। उसकी साधना ही जप द्वारा की जाती है। मंत्र जप का अर्थ बताते हुए कहा गया है।

जकारो जन्म विच्छेदः पकारः पाप नाशकः। तस्याज्जप इति प्रोक्तो जन्म पाप विनाशकः॥ -अग्नि पुराण

अर्थात् ‘ज’ अर्थात् जन्म मरण से छुटकारा, ‘प’ अर्थात् पापों का नाश। इन दोनों प्रयोजनों को पूरा करने वाली निष्पाप और जीवन मुक्त बनाने वाली साधना ‘जप’ कहते हैं।

जप के लिये प्रयुक्त की जाने वाली वाणी का स्तर ऊँचा होना चाहिए। जिह्वा से होने वाले शब्दोच्चारण की बैखरी वाणी कहते हैं। यह केवल जानकारी के आदान-प्रदान से प्रयुक्त होती है। भावों के प्रत्यावर्तन में मध्यमा वाणी काम आती है। इसे भाव सम्पन्न व्यक्ति ही बोलते हैं। जीभ और कान के माध्यम से नहीं वरन् हृदय से हृदय तक यह प्रवाह चलता है। भावनाशील व्यक्ति ही दूसरों की भावनायें उभार सकता है। यह बैखरी और मध्यमा वाणी मनुष्यों के बीच विचारों एवं भावों के बीज आदान-प्रदान का काम करती है।

इससे आगे दो और वाणियाँ हैं जिन्हें परा और पश्यन्ति कहते हैं। परा पिण्ड में और पश्यन्ति ब्रह्माण्ड क्षेत्र में काम करती है। आत्म-निर्माण का-अपने भीतर दबी हुई शक्तियों को उभारने का काम ‘परा’ करती है। ईश्वर से-देव शक्तियों से-समस्त विश्व से-लोक-लोकान्तरों से संबंध संपर्क बनाने में पश्यन्ति का प्रयोग किया जाता है। अस्तु इन परा और पश्यन्ति वाणियों को दिव्य वाणी एवं देव वाणी कहा गया है।

ऐं चत्वारि वाक् परिमिता पदानि, तानि विदुर्वाह्मणा यं मनीषिणः। गुहा त्रीणि निहिता नेंगयन्ति, तुरीर्य वाचो मनुष्या वदन्ति॥

अर्थात्-वाणी के चार चरण होते हैं, परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी। इनमें से पृथक तीन अन्तःकरण रूपी गुफा में छिपी रहती है चौथी बैखरी ही बोलने में प्रयुक्त होती है।

चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदु ब्रह्मिणा ये मनीषिणः। गुहा त्रीणि निहिता नेगयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति॥ ऋक् 1।22।164।40

अर्थात्-यह वाणी चरण वाली होती है। उसे विद्वान ब्रह्मवेत्ता ही जानते हैं। इन वाणियों में से तीन तो गुफा में ही छिपी बैठी है। वे अपने स्थानों से नीचे नहीं हिलती। चौथी बैखरी को ही मनुष्य बोलते हैं।

परायामंकुरी भूय पश्यन्ताँ द्विदलीकृता॥ मध्यमायाँ मुकुलिता बैखर्या विकसीकृता। पूर्व यथोदिता वाग्विलोमेनास्तगा भवेत्॥ -योग कुण्डल्युषनिषद् 3।18-19

अर्थात्-वाणी का उद्भव परा से होता है। पश्यन्ती में विकसित होकर उसकी दो शाखायें फूटती है। मध्यमा में वह पुष्पों से लद जाती है और बैखरी में वह फलित होती है। जिस क्रम से उसका विकास होता है उसके उलटे क्रम से वह लय भी हो जाती है।

विधानात्मक कर्मकाण्ड की उपयोगिता भी है और महत्ता भी। पर उसे समय सर्वांगपूर्ण नहीं मानना चाहिए उसके साथ जब भावनाओं का-वृत्तियों का-समन्वय होता है तभी उस कर्मकाण्ड से शक्ति उत्पन्न होती है।

वाक् शक्ति को अग्नि भी कहा गया है। यह अग्नि सर्वत्र तेजस्विता, ऊर्जा, प्रखरता एवं आभा उत्पन्न करती है इसलिए वाक् अग्नि भी है। ऋग्वेद के दशक मण्डल के 98 वें सूत्र में 9 वें मन्त्र में कहा गया है कि ऋषि वाणी द्वारा ही अग्नि को प्राप्त करते रहे हैं। यदि देव, मन्त्र, वाक्, जप और स्वर के तात्विक स्वरूप को समझा जा सके तो गायत्री की अद्भुत चमत्कारी क्षमता मूर्तिमान होकर सामने खड़ी हो सकती है।


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