वन विहार को निकले (kahani)

December 1983

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एक राजा थे वन विहार को निकले। रास्ते में प्यास लगी। नजर दौड़ाई एक अन्धे की झोपड़ी देखी। उसमें जल भरा घड़ा दूर से ही दीख रहा था।

राजा ने सिपाही को भेजा और एक लोटा जल माँग लाने के लिये कहा। सिपाही वहाँ पहुँचा और बोला- ऐ अन्धे एक लोटा पानी दे दे।

अन्धा अक्कड़ था। उसने तुरन्त कहा- चल-चल तेरे जैसे सिपाहियों से मैं नहीं डरता। पानी तुझे नहीं दूँगा। सिपाही निराश लौट पड़ा।

इसके बाद सेनापति को पानी लाने के लिए भेजा गया। सेनापति ने समीप जाकर कहा अन्धे! पैसा मिलेगा, पानी दे।

अन्धा फिर अकड़ पड़ा। उसने कहा- पहले वाले का यह सरदार मालूम पड़ता है। फिर भी चुपड़ी बातें बनाकर दबाव डालता है। जा-जा यहाँ से पानी नहीं मिलेगा।

सेनापति को भी खाली हाथ लौटता देखकर राजा स्वयं चल पड़े। समीप पहुँचकर वृद्धजन को सर्वप्रथम नमस्कार किया और कहा- “प्यास से गला सूख रहा है। एक लोटा जल दे सकें तो बड़ी कृपा होगी।”

अन्धे ने सत्कारपूर्वक उन्हें पास बिठाया और कहा- “आप जैसे श्रेष्ठजनों का राजा जैसा आदर है। जल तो क्या मेरा शरीर भी स्वागत में हाजिर है। कोई और भी सेवा हो तो बतायें।”

राजा ने शीतल जल से अपनी प्यास बुझाई फिर नम्र वाणी में पूछा- “आपको तो दिखाई पड़ नहीं रहा है फिर जल माँगने वालों को सिपाही, सरदार और राजा के रूप में कैसे पहचान पाये?”

अन्धे ने कहा- “वाणी से हर व्यक्ति के स्तर का पता चल जाता है।”


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