ओछे लोगों की उद्धत सनक फिजूलखर्ची

December 1983

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उपलब्धि एक बात है और साधनों का सदुपयोग सुझा सकने वाली विवेक बुद्धि सर्वथा दूसरी। यह हो सकता है कि किसी के पास विपुल वैभव हो पर उसके सहारे वह न कर सके जिससे अपना कल्याण और दूसरों का हित साधन होता है। यह भी हो सकता है कि वह हस्तगत साधनों को अनर्थ में न सही व्यर्थ में गँवाता रहे। कितने व्यक्ति दुर्व्यसनों और क्रूर कर्मों में रस लेने लगते हैं। आवश्यकता या विवशता न होने पर भी ऐसी कार्य पद्धति अपनाते हैं जिससे असंख्यों को त्रास मिले प्रस्तुत किये अनाचरणों से दुर्बल मन वालों को वैसा ही अनुकरण करने को मन चलता है। सम्पन्नों को समर्थों का उत्तरदायित्व है कि वे साधनों के बल पर ऐसी परम्परा विनिर्मित न करे जिससे अपना और दूसरे अनेकों का भविष्य अन्धकारमय बनता हो।

आवश्यक नहीं सम्पन्नों में विवेक बुद्धि भी हो। कई बार वे सम्पदा को इस प्रकार व्यर्थ बर्बाद करते हुए भी देखे जाते हैं जिसके आधार पर उन्हें सनकी, अपव्ययी जैसे शब्दों में भर्त्सना की जा सके। धन अपने अधिकार में है उसका अर्थ यह तो नहीं होना चाहिए कि उन्हें अहंकार के उद्धत प्रदर्शन में बेतरह लुटाया जाय। कुछ चाटुकार अपना उल्लू सीधा करने के लिए ऐसे लोगों की झूठी बड़ाई भी कर सकते हैं पर मुँह फेरते ही सच्चाई हर किसी के मुँह से निकलती है। अपव्ययी की सच्चे मन से कोई समझदार व्यक्ति प्रशंसा नहीं कर सकता। जिन साधनों से अनेकों उपयोगी कार्य हो सकते थे उसे उद्धत अहंकार की पूर्ति में ऐसे ही लुटा दिया जाय तो उसे कोई किस प्रकार समझदार मानेगा।

इतिहास में ऐसे अपव्ययी सनकियों के अनेकानेक उल्लेख मिलते हैं।

बगदाद के खलीफा हसन जब कभी यात्रा पर निकलते, उनके सेवक हजारों मील तक उनके सामने चाँदी के सिक्के बिखेरते चलते। इसका अभिप्राय उन्हें सभी लोग धनी-मानी जानने-मानने का था। ऐसी यात्राएँ उनने सैकड़ों बार सम्पन्न की और हर बार यही तरीका अपनाया जाता।

फारस के शाह फतह को बेश-कीमती- रत्न जटित पोशाक पहनने का बहुत शौक था। हर रोज नया वस्त्र पहनता। राज्याभिषेक के समय तो उसकी पोशाक सोने-चाँदी, हीरे-जवाहरात, पन्ना व लाल से इतने जटित थे कि पोशाक का वजन उसके वजन से कहीं अधिक था। अधिक भार के कारण उसका बड़ा होना मुश्किल रहता था।

12वीं शताब्दी के प्रख्यात यमन सम्राट मलिक अल-अजीज तो बेमिसाल था। नित नये कपड़ों को तैयार करने के लिए सैकड़ों कारीगर उसके यहाँ लगे रहते थे। वस्त्र भी कोई सामान्य नहीं-हीरे-पन्नों से जटित होते थे। जिसका मासिक खर्च लाखों में आता था। इस अपव्यय से प्रजा अत्यधिक रुष्ट हो गयी। अन्ततः राज्य में बगावत हुई और वह शासक मारा गया।

हैदराबाद के छठवें निजाम ‘मीर बहबूब अली खाँ’ की विचित्र आदत थी। प्रतिदिन नई पोशाक सफेद बारीक मलमल की पहनता था। उसे दूसरे नौकरों आदि में बाँट देता, स्वयं एक बार का पहना कपड़ा, दुबारा नहीं पहनता था।

गजनी के बादशाह ‘मसूद’ को अपने खजाने के प्रदर्शन का बड़ा शोक था। वह जब कभी यात्रा करता, तो अपना सम्पूर्ण खजाना ऊँटों की पीठ पर लादकर ले चलता था तीन हजार ऊँट इस कार्य के लिए प्रशिक्षित और नियुक्त थे। प्रशिक्षण इस बात का कि चोरों-डकैतों से वे अपनी रक्षा स्वयमेव कर सकें। कहते हैं कई बार डाकुओं ने यात्रा के बीच उसकी धनराशि लूट ली, पर विपुल धनराशि को साथ लेकर, युद्ध के मैदान में भी चलने की आदत उसकी अन्तिम दिनों तक समाप्त नहीं हुई।

मिस्र के एक धनाढ्य ‘अमीर बेसारी’ की सनक और भी विचित्र थी। उसे विरासत में बेशुमार धनराशि मिली, जिसे शराब में बर्बाद कर डाला। जिन सोने के प्यालों में एकबार शराब पीता था, उसे मिट्टी के सकोरों की तरह फेंक देता। दुबारा शराब नये सोने के प्याले में ही पीता। धीरे-धीरे उसने सम्पूर्ण पैतृक सम्पत्ति शराब में गवाँ दी। मरते समय उसके पास कफ़न के लिए पैसे न रह गये। उसकी अन्त्येष्टि क्रिया निकटवर्ती लोगों की व्यवस्था से सम्पन्न हुई।

काफी समय पहले अफ्रीका के गायना में एक सम्राट हुआ था- व्यूविस्र। उसे नित नये सिंहासन पर बैठने का शौक था। उसे रोज सिंहासन मिल सके, इसके लिए देश के चुने हुए कारीगरों की स्थायी नियुक्ति हुई थी। सिंहासन की डिजाइन भी हर बार नये ढंग की होती थी। साथ ही मूल्यवान रत्न उसमें जड़े हुए होते थे। ऐसे सिंहासन पर सम्राट एक ही बार बैठता यही नहीं उस सिंहासन को यह कहकर नदी में प्रवाहित करा दिया जाता कि यदि कोई दूसरा इस सिंहासन पर बैठेगा, तो सम्राट की गरिमा गिरेगी।

मंगोलिया के शेख शाहरुख को अपने जन्मदिन विचित्र ढंग से मनाने का शौक था। इस दिन जो भी व्यक्ति आता उसे हीरे-मोतियों से भरा थाल उपहार में मिलता। यह क्रम उसने अपने 43 जन्म दिनों पर सम्पन्न किये। फलतः उसकी सारी सम्पत्ति हाथ से चली गई।

मिस्र के टकसाल के मालिक खलील था। हेरी की मक्का यात्रा बड़ी विचित्र होती। रास्ते में सोने की मोहरें इस उद्देश्य से बिछाई जाती कि उसका ऊँट जमीन पर नहीं, सोने पर ही कदम रखता हुआ चले। बाद में उसे अन्य यात्री उठा लिया करते। उसका समस्त कोष इसी प्रकार समाप्त हो गया।

बगदाद के खलीफा हारुन अलरशीद पर दानशीलता का भूत सवार था। वह प्रतिदिन घोड़े पर बैठकर निकलते और जो भी सामने पड़ जाता उसकी और 100 चाँदी के टुकड़ों की थैली उछाल देता। भले ही वह जरूरत मन्द हो या नहीं। उसके इस सनक ने उसे तो कंगाल बना दिया लेकिन धूर्तों ने इससे पर्याप्त लाभ उठाया।

भारतीय नवाब अलीशाह का नाम भी ऐसे ही व्यक्तियों की श्रेणी में आता है। वह बिना सोचे-समझे अपने कृपा पात्रों को विपुल धनराशि यों ही दे देता। एकबार तो उसने अपने बाल काटने वाले नाई पर प्रसन्न होकर उसे चौलखी इमारत का एक समूह ही मुफ्त में दे दिया। विशेषज्ञों ने उन इमारतों की कीमत एक करोड़ रुपये आँकी थी।

वेवील के अलेक्जेण्डर को एकबार अपनी अदूरदर्शिता पर बहुत पछतावा हुआ उसने अपने प्रिय दोस्त की मृत्यु के शोक का विचित्र रूप में प्रदर्शन किया। 96 करोड़ डालर की सोने की सिल्लियाँ दोस्त के साथ उसने दफना दी जिसे दूसरे ही दिन चोर खोद ले गये। अलेक्जेण्डर को अपनी मूर्खता पर पछताने के अलावा कुछ हाथ नहीं लगा।

अमीर खुसरो के नाना के पास 200 तुर्क और 2,000 गुलाम व नौकर सिर्फ उनकी सेवा के लिए थे। इसके अतिरिक्त 50-60 गुलाम तो मात्र सभा में पान पेश करने के लिए नियुक्त थे। यदि कोई सुन लेता कि किसी खान या मालिक ने 500 आदमियों को खाना खिलाया है तो वह 1,000 को निमन्त्रित करने का प्रयास करता था। अगर कोई घोड़े पर निकलता हुआ 200 तन्का खैरात करता तो दूसरा 400 तन्का बाँटने का इरादा करता। कोई यदि किसी पान गोष्ठी में 50 घोड़े और 200 वस्त्रों के जोड़े समर्पित करता तो दूसरा 100 घोड़े व 500 वस्त्रों के जोड़े देने की योजना बनाता। इस तरह फिजूलखर्ची के कारण ‘उमरा’ हमेशा ऋण की भार से दबे रहते थे। वे हुण्डी-पर्चे लिखकर सेठ साहूकारों से रुपया उधार लेते तथा अपना खर्च चलाते। बड़े कर्जों पर सूद की दर 10 प्रतिशत तथा छोटों पर 20 प्रतिशत वार्षिक थी।

अमीर खुसरो के नाना के पास 200 तुर्क और 2,000 गुलाम व नौकर सिर्फ उनकी सेवा के लिए थे। इसके अतिरिक्त 50-60 गुलाम तो मात्र सभा में पान पेश करने के लिए नियुक्त थे। यदि कोई सुन लेता कि किसी खान या मालिक ने 500 आदमियों को खाना खिलाया है तो वह 1,000 को निमन्त्रित करने का प्रयास करता था। अगर कोई घोड़े पर निकलता हुआ 200 तन्का खैरात करता तो दूसरा 400 तन्का बाँटने का इरादा करता। कोई यदि किसी पान गोष्ठी में 50 घोड़े और 200 वस्त्रों के जोड़े समर्पित करता तो दूसरा 100 घोड़े व 500 वस्त्रों के जोड़े देने की योजना बनाता। इस तरह फिजूलखर्ची के कारण ‘उमरा’ हमेशा ऋण की भार से दबे रहते थे। वे हुण्डी-पर्चे लिखकर सेठ साहूकारों से रुपया उधार लेते तथा अपना खर्च चलाते। बड़े कर्जों पर सूद की दर 10 प्रतिशत तथा छोटों पर 20 प्रतिशत वार्षिक थी।

यह उन सम्पन्नों और समर्थों के फिजूल खर्चों के कुछ नमूने हैं। जिसके पास अनाप-शनाप सम्पदा भरी पड़ी और सदुपयोग की सूझ-बूझ का अभाव है वे ऐसे उद्धत आचरण करें तो बात एक सीमा तक समझ में आती है। पर उनके लिए क्या कहा जाय जो निजी एवं पारिवारिक प्रगति के आवश्यक खर्चों की तो उपेक्षा करते रहते हैं पर जेवर, फैशन, शृंगार, दुर्व्यसन आदि पर ढेरों पैसा बहाते रहते हैं। उन लोगों की मनःस्थिति और भी अधिक दयनीय है जो विवाह शादियों के अवसर पर आवेशग्रस्त विक्षिप्तता अपना लेते हैं और आवश्यक कामों को रोककर बाहर से कर्ज लेकर ऐसा दिखावा करते हैं मानो कहीं कूड़े-करकट की तरह पड़ा मिल गया हो और उसकी होली जलाकर मजा लूट रहे हों।


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