“इन्द्रोः मायाभिः पुरुरूप ईयते”

December 1983

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तात्विक दृष्टि अपनाने एवं अध्यात्म दर्शन के लक्ष्यों पर ध्यान देने पर पता चलता है कि संसार में फैले हुए धर्म मतों में जो भी भिन्नता दृष्टिगोचर होती है, वह बाह्य है। लक्ष्य तो सबका एक ही है। धर्म के कुछ मूल-भूत सिद्धान्त ऐसे हैं जिन्हें कोई भी नकार नहीं सकता। वे शाश्वत हैं, सनातन हैं। अन्तर वहाँ पड़ता है जब उनका अर्थ अपने संदर्भ में अलग लगा लिया जाता है। सभी धर्म सम्प्रदायों के सिद्धान्तों की आचार संहिता में तो स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप भिन्नता हो सकती है किन्तु उनके उद्देश्य-मन्तव्य में किसी भी प्रकार का मतभेद नहीं हो सकता।

ईश्वर के अस्तित्व एवं कर्त्तव्य के प्रश्न को ही लें। ज्ञात होता हैं कि इस संदर्भ में सबकी मान्यताएँ एक जैसी नहीं हैं। एक सम्प्रदाय कहता है कि जगत्कर्त्ता ईश्वर है, जबकि दूसरा इनकार करता है। दोनों वादों पर ध्यान देने पर पता चलता है कि वस्तुतः भेद है नहीं। एक ही तथ्य को दो प्रकार से कहा भर गया है। ईश्वर को जगत् का सृष्टा मानने वाला कहता है कि यदि तुम पाप करोगे-अनीति का पथ अपनाओगे तो वह तुम्हें दण्ड देगा। तुम्हें इस कुमार्गगामिता के फलस्वरूप नरक में आना होगा। सदाचरण एवं नीति पर चलोगे तो परमात्मा प्रसन्न होगा। उसके अनुदान तुम पर बरसेंगे। वह लोक व परलोक दोनों ही श्रेष्ठ बनेंगे। परमात्मा को सृष्टि का सृजेता न मानने वाले धर्म मतावलम्बियों का कहना है कि तुम्हारे पापयुक्त कर्म बन्धन के कारण होंगे तथा वे अनेकों प्रकार के रोग-क्लेशों के रूप में दिखाई देंगे। अच्छे कार्यों की परिणति ही श्रेष्ठ जीवन एवं समुन्नत परिस्थितियों के रूप में होती है।

दोनों ही प्रकार की मान्यताओं की गहराई में जाने पर पता चलता है कि दोनों ही कर्मफल के सनातन सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं। अच्छे का फल अच्छा एवं बुरे का बुरा प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है। इस मान्यता में कोई मतभेद नहीं। एक धर्म ईश्वर को जगत को सृष्टा मानकर जिस लक्ष्य की पूर्ति कराना चाहता है, दूसरा ईश्वर को सृष्टा न मानते हुए उसी लक्ष्य की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है। यहाँ भिन्नता कहाँ हुई? भिन्नता तो मात्र सोचने के तरीके एवं लक्ष्य पूर्ति के साधनों में हुई। साधन साधन हैं, लक्ष्य नहीं। साधनों की भिन्नता देखकर एक धर्म को दूसरे का विरोधी मान बैठना भारी भूल है।

मानवी संरचना एवं मनोगत प्रकृति को दृष्टिगत रख चिन्तन करते हैं तो भी दोनों ही प्रकार की मान्यताएँ उपयोगी लगती है। मानवी प्रकृति दो रूपों में विभाजित है-एक भाव प्रधान, दूसरी बुद्धि प्रधान। जो भावनाशील हैं-जिनके हृदय में सम्वेदनाओं के लिए स्थान है उनके लिए ईश्वर का क्रिया वाला स्वरूप अधिक श्रेष्ठ एवं उपयोगी है। समर्पण की उदात्त भावना के कारण वे निश्चिन्त रहते हैं, उनमें कर्त्तव्य का अहंकार नहीं पैदा होता। इस सुदृढ़ अवलम्बन द्वारा वे अपने कृत्यों को परमात्मा में अर्पित करते हुए क्रमशः लक्ष्य की और बढ़ते चले जाते हैं। जबकि ईश्वर को प्रत्येक कार्य का कर्त्ता मानने वाले से परावलम्बन को बुद्धिजीवी समुदाय एक अभिशाप मानता है। इस नीति को छोड़ कर्त्तव्य साधना में निरत रहने को ही वे सच्चा पथ मानते हैं। नीति पर चलते व अनीति से बचते हुए वे क्रमशः लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं। मानवी प्रकृति की भिन्नता के कारण दोनों ही मत अपने-अपने स्थान पर सही है।

परमात्मा को सृष्टि का कारण मानने एवं न मानने वाले दोनों ही मत पाप कर्म से बचने एवं पुण्य की ओर बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। यह एक ऐसा सार्वभौम सिद्धान्त है जो सभी धर्मों में समान रूप से पाया जाता है। इस सिद्धान्त के पीछे एक ही लक्ष्य है-मानव मात्र को सुखी व श्रेष्ठ बनाना। यह कर्मफल के सिद्धान्त को अपनाने से ही सम्भव हो सकता है। यदि यह अंकुश उठ जाय तो मनुष्य उच्छृंखल हो जायेगा। पाप-पुण्य के बीच की दीवार ही लुप्त हो जायेगी। न केवल आस्तिक वरन् नास्तिकों का भी यही कर्त्तव्य होना चाहिए-मानव मात्र सुखी एवं सन्तोष से भरा जीवनयापन करे। यह मात्र सदाचरण से ही सम्भव है। स्पष्ट है कि सभी धर्म मानव मात्र के कल्याण के लिए प्रयत्नशील हैं। अपने देशकाल एवं परिस्थितियों के अनुरूप वे सचेष्ट भी रहे हैं।

कलेवर नहीं विभिन्न धर्मों के अन्तरंग में झाँकने पर पता चलता है कि सबके सनातन सिद्धान्त प्रायः एक जैसे हैं। अज्ञान में पड़े रहने एवं साम्प्रदायिकता की दुराग्रह पूर्ण मान्यता के कारण ही भेद पनपता है। राम-कृष्ण परमहंस के विषय में प्रसंग प्रचलित है कि धर्म की साधना प्रणाली अपनायी थी। साधना की परिपक्व अवस्था में उन्होंने पाया कि सभी धर्म उसी एक सत्ता में ही जाकर मिलते हैं।

आलोचनात्मक दृष्ट छोड़कर यदि ग्रहण करने की प्रवृत्ति अपनायी जा सके तो ढूँढ़ने पर प्रत्येक धर्म में कुछ ऐसे उपयोगी तत्व मिल सकते हैं जो मानव मात्र के लिए कल्याणकारी हैं। यह समदृष्टि अपने एवं दूसरे धर्मों का आदर करने से ही सम्भव हो सकती है। इस तथ्य को हृदयंगम किया जाना चाहिए कि वर्तमान में पूर्णतया कल्याणकारी न सिद्ध होते हुए भी कोई धर्म पूर्णतया निरर्थक नहीं कहा जा सकता। सम्भव है कि जो तत्व निरर्थक नहीं कहा जा सकता। सम्भव है कि जो तत्व वर्तमान में निरुपयोगी दृष्टिगोचर हो रहे हैं, कभी उपयोगी रहे हों। कालान्तर में बदली हुई परिस्थितियों के कारण वे अब उतने लाभप्रद नहीं सिद्ध हो पा रहे हैं।

प्रत्येक धर्म सम्प्रदाय तभी जन कल्याणकारी सिद्ध हो सकता है जब वह रूढ़ियों एवं अन्ध विश्वासों को अपने अन्दर से निकाल फेंके। यह धर्म को नये परिवेश में स्वस्थ स्वरूप देने से ही सम्भव हो सकेगा। पुरातन के नाम पर अनुपयोगी कर्मकाण्डों-क्रिया कृत्यों की लकीर पीटना अविवेकपूर्ण है। उनके स्थान पर उन तत्वों एवं प्रचलनों को अपनाया जाना चाहिए जो मानवी व्यक्तित्व के विकास में योगदान देते हैं। वस्तुतः धर्म तत्वदर्शन का वास्तविक लक्ष्य भी यही है।

सार्वभौम धर्म की स्थापना के लिए साम्प्रदायिकता की संकीर्ण परिधि से बाहर आना होगा। इसके लिए आवश्यक नहीं कि सभी धर्म सम्प्रदायों को तोड़कर एक नवीन धर्म खड़ा करने की बात सोची जाय। क्योंकि यह न तो सम्भव है और न ही उपयोगी। प्रत्येक समाज की अपनी अलग परिस्थितियाँ एवं आवश्यकताएँ है। इस कारण सबको एक स्वरूप प्रदान कर सकना सम्भव नहीं है। यदि यह किसी प्रकार सम्भव हो जाय तो भी व्यावहारिक दृष्टि से प्रचलन में ला पाना सम्भव नहीं हो पायेगा।

सार्वभौम सार्वजनिक अध्यात्म दर्शन तो प्रत्येक धर्म में से सर्वोपयोगी तत्वों के चयन से ही सम्भव हो सकेगा। इसके लिए प्रत्येक धर्म की सनातन विशेषताओं को ढूँढ़ना एवं संकलित करना होगा। प्रत्येक धर्म के शाश्वत एवं उपयोगी तत्वों को लेकर ही ऐसे विश्व धर्म की पृष्ठभूमि बन सकती है। इस दिशा में जितना शीघ्र प्रयास चल पड़े उतना ही श्रेयस्कर होगा।

एक दुःखी व्यक्ति किसी सिद्ध पुरुष के पास पहुँचा, और सारे दुःख दूर करने का वरदान माँगा। महात्मा ने कहा-“इसके लिए जो अनुष्ठान करना पड़ेगा, उसके लिए एक ऐसे व्यक्ति का कुर्ता चाहिए जिसे कोई दुःख न हो। वह व्यक्ति घर-घर घूमा पर कोई भी ऐसा न मिला।”

एक अलमस्त से पूछा तो उसने अपने को सर्वसुखी बताया। जब कुर्ता माँगा तो कहा-नंगे बदन रहता हूँ। कुर्ता रहा होता तो इतना सन्तोष कैसे रह पाता।

दुःखी व्यक्ति सिद्ध पुरुष के पास नहीं गया। घर लौट पड़ा। जब संसार दुःखी और साधनों के बिना भी सुखी रहा जा सकता है तो मैं क्यों निर्धन होने का दुःख मनाऊँ?


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