अध्यात्म की ओर मुड़ता लोक मानस

December 1983

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तर्क और प्रत्यक्षवाद ने मनुष्य की भौतिकवाद की ओर अग्रसर किया है। इस क्षेत्र में गम्भीरता पराक्रम भी हुए। विज्ञान के अनेकानेक आविष्कार हुए और उनके सुविधा साधनों के ढेर लगा दिये। समझा जाने लगा कि प्रगति और समृद्धि का यही मार्ग है। कुछ समय उपरान्त इसी मार्ग पर चलते हुए प्रचुर वैभव अर्जित कर लिया जायगा और उसके सहारे मनुष्य की सुविधा सम्पदा का असीम लाभ मिल सकेगा। किन्तु वे आशाएँ पूरी न हो सकीं। बुद्धिवाद लक्ष से भटका और अर्थवाद के उस कुचक्र में फँस गया जिसमें मनुष्य स्वार्थी, विलासी और अहंकारी बनकर रह गया। चतुरों ने सामर्थ्य सम्पदा को अपने हाथों जकड़ लिया। गरीब अधिक गरीब बन गये और अमीर अधिक अमीर। ऐसी स्थिति में विग्रह उत्पन्न होना स्वाभाविक ही था। एक और पिछड़ों और सम्पन्नों के बीच ठनी, दूसरी और संग्रही अपनी बिरादरी को भी सहन न कर सके। फलतः प्रगति की परिणति मर्यादाओं के व्यतिक्रम से अराजकता जैसी स्थिति उत्पन्न कर दी। यही है आज की स्थिति का सार संक्षेप। इस जंजाल में उलझा हुआ व्यक्ति अपने को असहाय अनुभव कर रहा है। और नये सिरे से विचार करने लगा कि जिस प्रत्यक्षवाद की प्रगतिशीलता का पर्यायवाचक माना जाने लगा था, वह वस्तुतः वैसी है भी या नहीं। प्रगति के साथ नीति का संपर्क सूत्र टूट जाने से जो बिखराव पैदा हुआ है उसका समाधान खोजा जा रहा है। इस खोज में अनायास ही उस पुराण युग की ओर ध्यान मुड़ा है जिसमें लोग न केवल सुख-शान्ति से रहते बताये जाते हैं वरन् सिद्धि विभूतियों से सम्पन्न भी कहे जाते हैं। प्रगतिशीलता ने जो विभीषिकाएँ खड़ी कर दी हैं वे सबके सामने हैं व्यक्ति खोखला हो चला और बढ़ी हुई सुविधा के रहते हुए भी घुटन अनुभव करने लगा। समाज की भी ऐसी ही दुर्गति हुई है। वर्जना टूटी तो, पर उनके स्थान पर उत्साहवर्धक स्थापना नहीं हुई। अप्रामाणिकता की बाढ़ में मानवी गरिमा के पैर उखड़ गये। अनिश्चितता, असुरक्षा और अविश्वास के वातावरण में कहीं पैर टिकाने के लिए मनुष्य जगह खोज रहा है। इस संदर्भ में उसे अध्यात्म क्षेत्र की फलश्रुतियों की ओर उसका ध्यान मुड़ा है। सोचा जाने लगा है कि जिस आधार पर कभी समुन्नत परिस्थितियाँ होती रही हैं उसे फिर से क्यों न अपनाया जाय। पौराणिक इतिहास में जिस सुख-शान्ति का वर्णन है। उस पर यों संदेह भी कम नहीं है पर उसके अतिरिक्त और कुछ सूझता भी तो नहीं। यह सरल प्रतीत लगने लगा है कि क्यों न उसी का पर्यवेक्षण किया जाय। प्रत्यक्षवाद ने जब उलझनों से निकलने का रास्ता बताने से लगभग इनकार जैसी सनक स्थिति बना ली है तो फिर डूबते को तिनके का सहारा लेने की तरह उसी ओर चलना पड़ रहा है। निश्चितता न सही उसमें गति तो है।

भौतिकवाद या अध्यात्मवाद के प्रति कुछ कट्टर पन्थियों को छोड़कर मनीषा का कभी कोई दुराग्रह नहीं रहा। चाहा यही गया है कि चिन्तन और व्यवहार को प्रभावित करने वाला कोई ऐसा तत्वदर्शन हाथ लगे जिसके सहारे सुखपूर्वक रहा और शान्तिपूर्वक जिया जा सके। पिछले दिनों प्रत्यक्षवाद ने यह आशा दिलाई थी कि उसके सहारे प्रगतिशील जीवन जिया जा सकेगा।

न केवल हारे थके, प्यासे उदास लोग छाया तलाशने के लिए अध्यात्म की ओर मुड़ रहे हैं, दूसरी बात यह भी हुई है कि विज्ञान ने क्रमशः अधिक सूक्ष्म की गहराई में उतरते-उतरते वहाँ तक पहुँच बढ़ाई है जहाँ प्रकृति की समीपता दृष्टिगोचर होती है। जहाँ चेतना और पदार्थ सम्पदा के बीच दृष्टिगोचर होने वाली दूरी घटती ओर समीपता बढ़ती है। अब अध्यात्म विद्या और परा मनोविज्ञान आपसे तालमेल बनाने और पटरी बिठाने लगे हैं। इस सम्भावना आर्थर कौए स्तर जैसे अनेकों मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने जोरदार शब्दों में स्पष्ट किया है।


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