चेतना क्षेत्र के रहस्यमय भण्डार को भी कुरेदा जाय

December 1983

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व्यक्तियों, हलचलों तथा परिस्थितियों के उतार-चढ़ावों से कई प्रकार के घटनाक्रम घटित होते रहते हैं। इनमें एक जैसे दृश्य कभी-कभी किसी दुर्घटना जैसे प्रसंग में ही देखे जाते हैं। बाढ़ में बहने, महामारी में मरने और बुद्ध में आहत होने वालों का दृश्य एक जैसा हो सकता है, पर सामान्यतया व्यक्तियों के जीवन क्रम सदा अपने-अपने ढंग से चलते हैं। एक ही समय में एक ही क्रम से एक जैसी घटनाएँ घटित हों तो इसे असाधारण ही कहा जायगा।

प्रकृति के अनेकों रहस्यपूर्ण नियम हैं। मनुष्य के हाथ तो अभी कुछ मोटी-मोटी जानकारियों ही लगी हैं। उसने खोज का विषय भी पदार्थों की संरचना जानने और उन्हें अधिक उपयोगी बनाने तक सीमित रखा है। संक्षेप में यही भौतिक विज्ञान है। विगत शताब्दियों में इसी क्षेत्र में अनुसन्धानों और आविष्कारों की शृंखला चली हैं। उपलब्धियाँ भी इसी स्तर की हुई हैं। चेतना पक्ष एक प्रकार से अछूता ही छोड़ दिया गया है। जबकि वस्तुतः मानवी विशेषता, समर्थता, प्रगति, प्रसन्नता का वास्तविक क्षेत्र चेतना के साथ ही सुसम्बद्ध है।

कभी-कभी अपवाद दृष्टिगोचर होते हैं। उन्हें प्रकृति की भूल या आश्चर्य-चमत्कार जैसा कुछ मान लिया जाता हैं, किन्तु वस्तुतः इस सुनियोजित सृष्टि व्यवस्था में व्यतिरेक जैसा कुछ है नहीं। जो कुछ घटित होता है उस सबके पीछे प्रकृति के नियम ही काम कर रहे होते हैं। यह दूसरी बात है कि उन अविज्ञात असाधारण नियमों से हम परिचित न हों और उन्हें चरितार्थ होते यदा-कदा ही देखा जाता है।

यों प्रकृति के रहस्य भी कम नहीं वे क्रमशः प्रकट होते रहे हैं। और पिछली जानकारियों की तुलना में इन नई उपलब्धियों को चमत्कार कहा जाता रहा है, पर वस्तुतः यहाँ चमत्कार जैसा कुछ है नहीं। अविज्ञात का आकस्मिक प्रकटीकरण ही चमत्कार कहा जा सकता है। यह बात पदार्थ जगत के बारे में समझी जाने लगी हैं। किन्तु उपेक्षित चेतना क्षेत्र के रहस्य भरे नियमों के बारे में तो इन दिनों उत्साह ही नहीं उभरा, अनुसंधान ही नहीं हुआ-महत्व ही नहीं समझा गया ऐसी दशा में उस क्षेत्र के असाधारण नियमों को-ऋद्धि-सिद्धि या दैवी हलचल समझा जाय तो आश्चर्य ही क्या हैं?

पंच भौतिक प्रकृति की तुलना में पंच प्राणों का चेतना क्षेत्र कहीं अधिक समर्थ और रहस्यमय है। उन विशिष्टताओं का कभी-कभी प्रकटीकरण होता है तो उन्हें रहस्यवाद का नाम दे दिया जाता है। गुत्थी न सुलझा सकने वाली बुद्धि प्रायः ऐसा कुछ बहाना मनःसन्तोष के लिए बना लेती है और अधिक गहराई में उतर कर तथ्यों तक पहुँचने के झंझट से बचने का प्रयत्न करती रहती हैं।

चेतना क्षेत्र के संयोग साम्यों के कई बार ऐसे घटना क्रम सामने आते हैं जिन्हें देखकर अवाक् रह जाना पड़ता है। दो व्यक्तियों के समक्ष एक जैसे घटनाक्रमों का प्रवाह क्यों कर जुड़ गया, इसका कोई स्पष्ट समाधान नहीं मिलता। जब वैयक्तिक हलचलों और विभिन्न परिस्थितियों के तालमेल से घटनाक्रमों में भी स्वाभाविक भिन्नता रहती है तो फिर ऐसा क्यों होता है कि दो अपरिचित व्यक्ति एक ही प्रवाह में बहें, एक जैसे घटनाक्रम से अनायास ही प्रभावित हो चलें। ऐसे कुछ प्रसंग दृष्टव्य हैं-

उन दिनों इंग्लिश स्टील कम्पनी के धातु विज्ञान एरिक डब्ल्यू स्मिथ शेफील्ड नामक उपनगर में निवास कर रहे थे। उनके घर के पीछे एक जंगल था जहाँ लोग घोड़ों पर सवारियाँ करने आते थे। बसन्त और ग्रीष्म ऋतु में स्मिथ का नियम था कि वे उस स्थान पर आकर काफी समय शान्ति और प्रसन्नता के साथ व्यतीत करते और चलते वक्त घोड़े की लीद एकत्रकर अपने साथ घर ले जाते। इसको खाद के रूप में अपने बाग के टमाटर के खेतों में डालते।

सन् 1950 में एक दिन स्मिथ जंगल में टमाटर के खेतों में खाद डालने के लिए लीद एकत्र करते आगे बढ़ रहे थे। अचानक उनकी नजर सामने से आते एक व्यक्ति पर पड़ी। वह व्यक्ति भी वही कार्य रहा था जिसे वर्षों से स्मिथ करते आ रहे थे।

रास्ते में आकर दोनों व्यक्ति एक बेंच पर बैठ गये। संयोग से दोनों के पास एक छोटा-सा डस्टपैन लीड एकत्र करने के लिए तथा एक पुराना मोमजामा खरीददारी के लिए साथ था। दोनों ही अपने-अपने टमाटर खेतों के लिए खाद एकत्र किया करते थे। परिचय पूछे जाने पर दोनों ने अपना नाम एरिक स्मिथ बताया। दोनों के पास एक ही प्रकार की वर्जीनिया तम्बाकू और पीने का पाइप भी समान आकार के थे। इस वैचित्र्य पूर्ण संयोग को देखकर दोनों आश्चर्यचकित रह गए।

जॉन और आर्थर मॉफोर्थ दोनों ही जुड़वा भाई थे। इनमें परस्पर घनिष्ठ आत्मीयता थी। एक दिन 22 मई 1975 को दोनों को अपने सीने में अचानक भयानक दर्द का अनुभव हुआ और दोनों अस्पताल में भर्ती हो गए। जॉन-ब्रिस्टल अस्पताल में और दूसरा भाई आर्थर 70-80 मील दूर विन्डसोर अस्पताल में भर्ती हुआ। भर्ती होने के कुछ क्षणों बाद इनमें से दोनों की हृदयाघात के कारण एक साथ, एक समय मृत्यु हो गई।

सुप्रसिद्ध मेजबान और स्तम्भ लेखक इर्ब कुपकिनेट “कुप” सन् 1953 में एलिजाबेथ द्वितीय के राज्याभिषेक में भाग लेने के लिए सेवाय होटल में ठहरे हुए थे। अपने कमरे के एक दराज से उन्हें अपने पुराने घनिष्ठतम मित्र बास्केटबाल संयोजक हैरी हेनिन से संबंधित कुछ लेख मिले। दो दिन बाद हेनरी हेनिन का पत्र पाकर वे और आश्चर्यचकित रह गये जिसमें लिखा गया था कि “अ कभी विश्वास नहीं करेंगे” परन्तु यह सत्य है कि जैसे ही मैंने पेरिस के म्यूरिक होटल में जिसमें मैं ठहरा हुआ हूँ के एक दराज को खोला उसमें एक टाई पर आपका नाम लिखा मिला।”

सुप्रसिद्ध उपन्यासकार एनी पेरिश ने 1920 में अपने पति के साथ पेरिस नगर की यात्रा की। साइन नदी के किनारे बसे ‘इलेडि ला साइट’ नामक स्थान पर एक सेकेंड हैण्ड बुक स्टाल पर खड़े होकर पुस्तकों के पन्ने पलट रहे थे कि अचानक “जैक फ्रास्ट एण्ड अदर स्टोरीज” नामक एक पुरानी पुस्तक हाथ लगी। अपने पुराने मित्र को पाकर एनी पेरिश अत्यन्त खुश हुई। कोलोरैडो स्प्रिंग्स में अपने बाल्यकाल में उन्हें यह पुस्तक सर्वाधिक प्रिय थी। जो बाद में कहीं खो गई थी। पुस्तक के पन्ने पलटने पर उनके पतिदेव ने देखा कि एक पन्ने के किनारे पर “एन्नी पेरिश 209 एन बेबर स्ट्रीट, कोलोरैडा स्प्रिंग्स” लिखा था। बड़ी ही विचित्रता थी इस घटनाक्रम में, जिसमें वही पुस्तक उसी व्यक्ति को वर्षों बाद संयोगवश मिल गई।

डबलिन आयरलैण्ड के निवासी अन्थोनी एस. क्लैन्सी ने “द रुट्स ऑफ क्रोइन्सीडेन्स’ के प्रख्यात लेखक आर्थर कोएस्लर को 1973 में एक पत्र लिखा। अपने जीवन में घटित होने वाले 7 अंकों को भाग्यशाली बतलाते हुए क्लैन्सी ने लिखा कि उनका जन्म वर्ष के सातवें महीने में महीने के सातवें दिन और सप्ताह के सातवें दिन तथा शताब्दी के सातवें वर्ष में हुआ। वे अपने पिता की सातवीं सन्तान थे। उनके पिता के साथ भाई थे जिनमें से प्रत्येक के सात-सात पुत्र थे। अपनी 27 वीं वर्षगाँठ पर वे एक घुड़दौड़ देखने गये जहाँ उन्हें सातवें नम्बर का रेस कार्ड मिला। उस सातवें घोड़े का नाम ‘सेवन हैवन’ था जिस पर क्लैन्सी ने सात शिलिंग रखे। और वह सात पर ही समाप्त हुआ। इसका उल्लेख उन्होंने अपनी पुस्तक में किया है।

प्रख्यात मनोवैज्ञानिक डा. लारेंस ली शान द्वारा लिखा गया ध्यान और पैरानार्मल फेनामिना पर एक लेख सन् 1968 में इंटरनेशनल जनरल ऑफ पैरासाइकोलाजी नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ।

दिसम्बर 1967 में लारेंस ने रहस्यवाद में लिखी गई अपनी एक अनुपम कृति को पढ़ने और उस पर अपने बहुमूल्य सुझाव देने के लिए सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डा. नीना रिडिनौर के पास भेजा। नीना रहस्यवाद की विशेषज्ञ मानी जाती थी। 11 दिसम्बर को लारेंस डा. नीना से एक लचं पर मिले और अपने पेपर से संबंधित उनके विचारों, और समीक्षाओं को ध्यान से नोट करने लगे। लेख से संबंधित रहस्यवाद पर आठ पुस्तकों के नाम नीना ने सुधारा जिनमें पांचवीं पुस्तक एम. ए. क्रेंमरमग द्वारा लिखित ‘दी विजन ऑफ एशिया’ थी।

डा. लारेंस ने इस पुस्तक की खोज अनेक विख्यात पुस्तकालयों में की परन्तु कहीं भी यह पुस्तक उपलब्ध नहीं थी। एक दिन निराश लारेंस अपने घर लौट रहे थे कि अचानक रास्ते में एक पुरानी पुस्तक पड़ी हुई मिली। उठाकर देखने पर ‘दी विजन ऑफ एशिया’ शीर्षक से वह पुस्तक रखी मिली। लारेंस के विस्मय मिश्रित हर्ष का ठिकाना न रहा।

दूसरे दिन प्रातः लारेंस डा. रिडिनौर से मिले और उन्हें अपनी रहस्यात्मक कहानी कह सुनायी। पुस्तक का नाम सुनते ही लारेंस चौंक पड़ी। और बोली-“मैंने तो इस पुस्तक का नाम तक नहीं सुना।” यह एक और दूसरी पहले सामने आ उपस्थित हुई। जिसका कोई उत्तर दोनों के पास नहीं था। दोनों के मुख से एक ही समाधान सुना गया कि यह किसी अदृश्य सहायक का अनुदान है जिसने आवश्यकता का महत्व समझा और उसे पूरी करने का सुयोग बिठा दिया। शोध कार्य में इस पुस्तक से उन्हें बड़ी मदद मिली। अदृश्य आत्माओं की करतूत संबंधी एक और भी ऐसी ही घटना है।

19वीं सदी के सुप्रसिद्ध खगोलविद् कैमाइल फ्ल्मैरिआन गुह्य विद्या के भी विद्यार्थी थे अपनी पुस्तक ‘द अननोन’ में मृत्यु के बाद जीवन की पहेलियों का वर्णन करते समय उन्हें एक प्रेतात्मा से साक्षात्कार हुआ था। इस पुस्तक का प्रकाशन सन् 1900 में हुआ। कैमाइल अपने कमरे में बैठे वायुमण्डल की गतिविधियों के बारे में लिख रहे थे अचानक तेज झंझावात आया और खिड़कियों के शीशे तोड़ता हुआ कमरे के प्रवेश कर गया। लेखक की मेज पर फैले कागज के पन्नों को उड़ाता हुआ सड़क पर बिखेरता चला गया। कुछ दिनों बाद जब यह पुस्तक छपने प्रकाशक के पास भेजी गई तो उसमें हवा के प्रभाव वाला चैप्टर गायब था। जिसकी सूचना प्रकाशक ने श्री कैमाइल को अपने एक दरबान के माध्यम से भेज दी। संयोग से दरबान को रास्ते में बिखरे हुए कुछ पन्ने मिले जिन्हें समेटकर उसने अपने मालिक को दे दिया। प्रकाशक को उन खोये हुए पन्नों के मिल जाने पर प्रसन्नता मिश्रित आश्चर्य हुआ।

यह समझना भूल होगी कि जो कुछ हम जानते हैं, वह पूर्ण है। सच तो यह है कि संसार के अगणित रहस्यों में से हमें कभी तक जो हस्तगत हुआ है उसे बहुत ही स्वल्प कहा जा सकता है। जो जानना शेष है उसे विज्ञात की तुलना में असंख्यों गुना अधिक कहा जा सकता है। प्रभृति ज्ञान के संवर्धन में जब उस क्षेत्र के विशेषज्ञ तक अपनी अपूर्णता को स्वीकारते हैं तो उस चेतना क्षेत्र का तो कहना ही क्या, जिसके संबंध में हजारों वर्षों से कोई कहने लायक अनुसन्धान ही नहीं हुआ और जो पुरातन काल में उपलब्ध था, उसे भी प्रमाद वश गँवा दिया गया।

चेतना क्षेत्र के उपरोक्त रहस्यों को देखते हुए इस संदर्भ में विश्वास और उत्साह रखने वालों को चाहिए कि खोज के लिए भौतिक विज्ञानियों जैसी तत्परता बरतें और देखें कि चेतना अदृश्य जगत में संव्याप्त अतिमहत्वपूर्ण विभूतियों में से किन्हें, किस प्रकार मनुष्य के लिए हस्तगत कर सकना सम्भव हो सकता है।


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