सामान्य शरीर में असामान्य विलक्षणताएँ

December 1983

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मानव शरीर देखने में हाड़-माँस का बना और सीमित सामर्थ्य के सहारे सीमित कार्य कर सकने वाला प्रतीत होता है। उन्हें उसके अन्तराल में छिपी रहस्यमयी शक्तियों का यदा-कदा आभास मिलता है तब विदित होता है कि वह उतना तुच्छ नहीं जितना कि आमतौर से समझा जाता है।

सोने, खाने, चलने, दौड़ने, करने की दृष्टि से मनुष्यों के बीच थोड़ी ही न्यूनाधिकता रहती है। शेष सभी लोग मिलते-जुलते परिणाम में खाते, पहनते देखे जाते हैं। इतने पर भी जब काया में सन्निहित विलक्षण क्षमताओं का प्रमाण परिचय सामने आता है तब आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। सामान्य बुद्धि यह समझने में असमर्थ ही रहती है कि सीमित लम्बाई, मुटाई, ऊँचाई एवं वजन का मनुष्य किस प्रकार अद्भुत सामर्थ्यों का धनी हो सकता है।

13 अगस्त 1931 को ‘न्यूयार्क हेराल्ड ट्रिब्यून’ ने जैक्सनबाइल, फ्लोरिडा के विश्व प्रख्यात तैराक एन्जिलो फैटीकोनी के दुःखद निधन का समाचार प्रकाशित किया था-शीर्षक था-“ह्यूमन कार्क इज डेड, हिज सेक्रेट अनरिवील्ड”। फैटीकोनी तैरते समय अपने शरीर को इतना हल्का बना लेता था मानो लकड़ी का कोई टुकड़ा पानी पर तैर रहा हो। 15 घण्टे लगातार 20 पौण्ड वजन को अपने टखने से जकड़कर बिना किसी असुविधा के आराम से तैरता रहता था। पानी पर सो सकता था, अपने शरीर को गेंद के आकार में ढालकर कार्क की तरह तैरते रहना उसकी विशेषता था। एक बार उसे एक वजनदार कुर्सी से बाँधकर तैरने के लिए कहा गया। इस चुनौती को उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया और तैरकर अपने शारीरिक हल्केपन और उत्प्लाविकता का प्रदर्शन किया।

नाथन कोकर का जन्म 1814 ई. में एक दास परिवार में मेरीलैण्ड के हिल्सबोरो कस्बे में हुआ था। कोकर के मालिक के बचपन में ही इसे हेनर के हाथों बेच दिया। हेनरी ने बिशप एमरी और एमरी ने इस दास बालक को प्रूनेल नामक बकी के हाथों बेच दिया। प्रूनेल बहुत ही क्रूर एवं निर्दयी प्रकृति का व्यक्ति था। कोकर से रात दिन काम लिया करता और बदले में उसे मिलती डण्डे की मार और स्वल्प भोजन। नाथन सदैव भूख से छटपटाता रहता। इस तड़पन ने नाथन को नये आविष्कार करने के लिए प्रोत्साहित किया।

नाथन एक दिन रसोई घर में अकेला था और सामने चूल्हे पर मालिक के नाश्ते के लिए मालपुआ बना रहा था। नाथन ने बर्तन में खौलते वक्त गरम मालपुए में हाथ डाला और निकालकर खा गया। शाम को गरम खौलते पानी में से बसा के कुछ टुकड़े निकालकर खाया और खौलती हुई गरम कॉफी पी गया। इतना गरम खाने के बाद भी नाथन के न तो हाथ जले और न जीभ। यही आदत नाथन की दिनचर्या का एक अंग बन गई।

कुछ वर्षों बाद कोकर प्रूनेल की नौकरी छोड़कर डेन्टन शहर में लोहारी का धन्धा करने लगा। धधकती भट्टी में हाथ डालकर रक्त वर्ण गरम लौह पिण्ड निकालना, जलते अंगारे हाथ पर घण्टों रखे रहना उसका दैनिक व्यवसाय बन गया। कोकर के करामातों की चर्चा मैरीलैण्ड के पत्र पत्रिकाओं में सुर्खियों में प्रकाशित होने लगे। वैज्ञानिकों, चिकित्सकों और सम्पादकों की एक टीम ने नाथन कोकर की दृढ़ इच्छा शक्ति और उसके फायर फ्रूफ हाथों का सूक्ष्म निरीक्षण किया। हाथों में कोई जादू, रसायन कुछ भी न था। लाल अंगारों को भट्टी में से निकालने के लिए कोकर से कहा गया। कोकर ने अंगारों को हाथ पर ऐसे उठा लिया जैसे जली हुई राख। इस प्रक्रिया को तीन चार बार करके दिखाने के बाद नाथन कोकर ने पिघले शीशे को मुँह में डाला और देर तक मुँह में हिलाता रहा। और थोड़ी देर बाद मुख से बाहर निकाल दिया। मुख, जिह्वा में आँच तक नहीं लगी और न फफोले पड़े।

इस साहस का रहस्योद्घाटन करते हुए नाथन ने उपस्थित वैज्ञानिकों को बताया कि विषम परिस्थितियों में दृढ़ इच्छा शक्ति और विश्वास ने उसे इस योग्य बनाया है कि अग्नि भी उसे नहीं जला सकती।

सुप्रसिद्ध लेखक श्रीमती अलेक्जेण्ड्रा डेविड नील ने अपनी पुस्तक “मैजिक एण्ड मिस्ट्री इन तिब्बत” ने लिखा है कि तिब्बत के योगी बौद्ध 1100 से 18000 फीट की ऊँचाई पर स्थित बर्फीली चोटियों पर निवास करते और साधनारत रहते देखे गये हैं। अलेक्जेण्ड्रा ने 14 वर्षों तक इनकी प्रक्रियाओं का अध्ययन किया और पाया कि तिब्बत के योगी अत्यधिक सर्दी के दिनों में जब नदी, झरनों का पानी जम जाता है, वे नंगे बदन अथवा एक पतले कपड़े को शरीर पर लपेटकर साधना करते रहते हैं। बर्फ में एक गहरा गड्ढा खोदकर उसी में बैठ जाते हैं और रात भर चन्द्रमा की शीतल रोशनी में साधना करते रहते हैं। कड़ी ठण्डक का उनके शरीर के ऊपर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता।

नवदीक्षित योगियों को सर्वप्रथम ठण्डी रात में अपने बदन पर बर्फ से भीगे हुए कपड़ों के टुकड़ों को लपेटकर सुखाना पड़ता है। यह प्रक्रिया रात भर चलती है और लगभग 40 टुकड़े बदलकर नंगे बदन पर सुखाते हुए तपस्या करते रहते हैं। धीरे-धीरे शरीर के तापमान को नियन्त्रित करने की क्षमता जागृत हो जाती है और वे तपस्वी लम्बे समय तक खुले बदन बर्फ के गड्ढों में-गुफाओं में ध्यानमग्न बैठे रहते हैं।

यौगिक प्रक्रियाओं के माध्यम से शरीर के किसी एक अंग अवयव या हिस्से का तापमान घटाया अथवा बढ़ाया जा सकता है। भारतवर्ष और तिब्बत के योगियों पर 1981 में दलाई लामा के निमन्त्रण पर हारवर्ड मेडिकल स्कूल के चिकित्सकों के एक दल ने डा. हर्बर्ट बेन्सन की अध्यक्षता में प्रयोग परीक्षण किया। ध्यान के द्वारा साधक योगियों ने अपने हाथ और पेट की अंगुलियों का तापमान सामान्य तापमान से 15 डिग्री फारेनहाइट बढ़ा लिया था जबकि अन्तरंग का तापमान सामान्य बना रहा।

डा. बेन्सन इस निष्कर्ष पर पहुँचे की ध्यानावस्था में संकल्प बल से त्वचा में उपस्थित रक्तवाहनियों को फैला दिया जाता है जिससे उस अंग में रक्त का संचालन बढ़ जाता है फलतः उस स्थान का तापमान भी बढ़ जाता है। बर्फीली चोटियों पर साधनारत योगी अपने शरीर की रक्तवाहनियों को संकुचित कर लेते हैं और शरीर का तापमान वातावरण के अनुकूल बना लेते हैं।

प्रथम विश्वयुद्ध के समय जिवरपूल, इंग्लैण्ड के एक सिपाही जैक ट्रेनर को घायलावस्था में अस्पताल में भर्ती किया गया। ट्रेनर को दो गोलियाँ लगी थी एक सिर में दूसरी दाहिने बाँह में। मूर्धन्य चिकित्सकों ने ट्रेनर को विकलाँग घोषित कर दिया और सरकार की ओर से विकलाँगता पेन्शन मिलने लगी।

सन् 1923 में ट्रेनर एपीलेप्सी का शिकार बन गया। अब वह चल फिर भी नहीं सकता था। उसी वर्ष वह अपने परिवार के साथ लार्डस् फ्राँस गया और एक सामुदायिक स्नानागार में स्नान किया। चौथे दिन एकाएक अपने बिस्तर से नीचे कूद पड़ा और जाकर स्नान किया, कपड़े बदले। अब वह पूर्ण स्वस्थ हो चुका था। गोलियों के घाव भर गये थे और बिना किसी सहारे के वह चल फिर सकता था।

मानव शरीर की संरचना सृष्टा की सर्वोत्तम कलाकृति के रूप में हुई है। नियन्ता ने अपनी सभी विशेषताओं को बीज रूप से उस छोटी-सी तिजोरी में सुनियोजित रूप से संजोकर रखा है। सामान्यतया उस भण्डार में से मनुष्य उतना ही उपयोग कर पाता है, जितनी कि उसकी वास्तविक इच्छा आवश्यकता एवं पात्रता है। जब स्तर में वृद्धि होती है तो वह चाबी भी हाथ लग जाती है जिसमें विभूतियों के भण्डार का ताला खोला और उसमें से उपयुक्त वैभव निकाला और काम में लाया जा सके।

कभी-कभी फटे कपड़े में से अवयव, चमड़ी फट जाने पर माँस दीखने लगता है। ठीक इसी प्रकार कभी-कभी तो अनायास भी कायगत विलक्षणताओं का आभास मिलने लगता है पर विधि पूर्वक प्रयत्न करने से यह सम्भव हो सकता है कि चमड़े से ढके शरीर में से सन्निहित विशिष्टताओं को जगाया और काम में लाया जा सके।


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