गंध की प्रभाव क्षमता

December 1983

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मस्तिष्क को ऊर्जा तन्त्र माना गया है। हृदय उसके लिए ईंधन जुटाता है। मस्तिष्कीय संरचना कैसी ही क्यों न हो, इसे आवश्यक जानकारियाँ प्राप्त करने और ज्ञान सम्पदा बढ़ाने के लिए ज्ञानेन्द्रियाँ पर निर्भर रहना पड़ता है। आम धारणा यह है कि कान और आँख की भूमिका अन्य इन्द्रियों की तुलना में अधिक है।

जिनके कान ठीक काम नहीं करते वे बहरे लोग बोलना भी नहीं सीख पाते। क्योंकि शब्दोच्चार सुनते और उनका अनुकरण करने से ही बोलने का अभ्यास आरम्भ होता है। जो सुनेंगे ही नहीं उनका मस्तिष्क शब्द ध्वनि और उसके साथ जुड़े हुए तात्पर्य को समझने में समर्थ नहीं इसलिए बोलने का आधार कान बन सकेगा और बहरे को गूँगा ही रहना पड़ेगा।

आँख से दृश्य दीखते हैं। वस्तुओं का स्वरूप समझ में आता है साथ ही उनके गुण एवं प्रयोग की जानकारी भी मिलती है। पढ़ने लिखने में कान की तरह आँख का भी योगदान रहता है। ज्ञानवृद्धि में शिक्षा का महत्व माना जाता है। पुस्तकें पढ़ने में आँख और अध्यापक का मार्गदर्शन समझ में कान सहायता करते हैं। पहचानने, वर्गीकरण करने में आँखों की सहायता लेनी पड़ती है। स्मृतियों को सँजोये रखना बहुत करके दृश्यों पर आधारित है।

इतना सब होते हुए भी नाक की अपनी विशेषता है। उनकी क्षमता सूक्ष्म है। तो भी इनकी अधिक है कि वह सचेतन तक को प्रभावित करने की सामर्थ्य रखती है। गंध की ज्ञानवृद्धि में कितनी बड़ी भूमिका हैं, उस प्रश्न के उत्तर में हमें अचेतन की महत्ता और क्षमता को समझना होगा। ज्ञान भण्डार मात्र आँख और कान से ही नहीं सरता वरन् उसमें गन्ध का भी योगदान रहता है। क्रमिक मानवी प्रगति में आँख कान का महत्व बढ़ गया है। प्रत्यक्ष के साथ व्यवहार अब अधिक चल पड़ा है। इसलिए प्रत्यक्ष ही सब कुछ प्रतीत होने लगा है। इसमें बौद्धिक परिधि के मनःक्षेत्र को विकसित करने में सहायता मिली है। फिर भी अचेतन को जिन परोक्ष जानकारियों की आवश्यकता होती है। उनकी पूर्ति के लिए इनको प्रमुख समझी जाने वाली इन्द्रियों से काम नहीं चलता है। अचेतन पर सर्वाधिक प्रभाव गन्ध का पड़ता है। इस दृष्टि से नासिका की महत्ता अधिक सिद्ध होती है। नासिका को भगवान ने व्यर्थ नहीं बनाया है वह आँख और कानों के बीच इसलिए अवस्थित है कि अचेतन की आवश्यक जानकारियाँ एवं उत्तेजना प्रदान करने का काम करती रहे। गन्ध की महत्ता दर्शन या श्रवण से कम नहीं अधिक ही ठहरती है। क्योंकि जीवन को समर्थ और प्रखर बनाने में मस्तिष्क के सचेतन भाग से अचेतन का महत्व किसी भी प्रकार कम नहीं है। इस क्षेत्र को प्रभावित करने में गन्ध का असामान्य योगदान होता है।

प्राणियों के विकास क्रम और दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि प्रागैतिहासिक काल के जीवधारी निर्वाह व्यवस्था जुटाने, कठिनाइयों से निपटने और सहयोग बढ़ाने में घ्राण शक्ति का ही सबसे अधिक उपयोग करते रहे हैं। आँख और कान का विकास तो बहुत बाद में हुआ है। प्रारम्भ में वे गौण हैं। आगे चलकर उनने प्रमुखता प्राप्त कर ली यह दूसरी बात है।

पशु पक्षियों की जीवनचर्या में अभी भी घ्राण शक्ति का ही प्रमुख योगदान रहता है। हिंस्र पशु अपना अधिकार ढूँढ़ने और जिन पर आक्रमण की आशंका है वे उसी आधार पर खतरा समझने में समर्थ होते हैं सिंह, व्याघ्र आदि को इसी आधार पर यह पता चलता है कि इन्हें क्या शिकार किस दिशा में कितनी दूरी पर क्या करता हुआ मिलेगा। विभिन्न पशुओं के शरीर से निकलने वाली गन्धों की तुलना में उनकी घ्राण शक्ति अपने काम के पशुओं की गन्ध अधिक अच्छी तरह पहचानती हैं। इसलिए आक्रमण करने और शिकार पकड़ने में जिस पूर्व जानकारी की आवश्यकता है उसे उनकी नासिका जुटाती रहती है।

हिरन, खरगोश, सुअर आदि को हिंस्र वर्ग में जाना पड़ता है। उन्हें आत्म रक्षा का अवसर मिलता रहे इस सतर्कता में उनकी भी प्राण शक्ति ही काम करती है। इस आधार पर वे जान लेते हैं कि आक्रमण कहाँ और किस स्थिति में है। संकट में बचने के लिए वे दौड़ने, छिपने, दिशा बदलने की सुरक्षात्मक कार्यवाही करने लगते हैं। इसी आधार पर उन्हें यह भी पता चलता है कि आक्रामक भूखा है या नहीं। भूखे होने पर ही वे आक्रमण करते हैं। भूखे के शरीर से अन्य प्रकार की गन्ध आती है। यही कारण है कि वे जब खतरा देखते हैं तभी चौकन्ने होते हैं अन्यथा भरे पेट के सिंह के आसपास भी शिकार हो सकने वाले प्राणी निर्द्वन्द्व होकर विचरण करते रहते हैं।

कुत्ते, बिल्ली और भेड़िये अपने शरीर से एक विशेष प्रकार की गन्ध निकालते हैं। उसका प्रभाव जितने क्षेत्र में रहता है उतने में उस बिरादरी के अन्य प्राणी प्रवेश नहीं करते हैं तो यह समझ का कार्य है कि लड़कर ही उस क्षेत्र में पैर जमाये जा सकते हैं। जिनका आधिपत्य है वह आक्रमण करेगा। इस क्षेत्रीय बटवारे के आधार पर उन वर्गों वाले अपने लिए अन्य सुरक्षित क्षेत्र ढूँढ़ते हैं अथवा आक्रमण के लिए तैयार होकर हड़पने या मर मिटने के लिए तैयार होते हैं। आक्रामक पशुओं के अपने-अपने क्षेत्र इसी आधार पर बनते और घटते-बढ़ते रहते हैं। इस प्रयोजन में नासिका की समर्थता ही उनका मार्ग दर्शन करती है। शिकार के अन्य क्षेत्र में घुस जाने पर प्रायः आक्रामक वापस लौट पड़ते हैं। सोचते हैं दूसरे के अधिकार क्षेत्र में शिकार पकड़ने पर उन्हें क्षेत्र के अधिकारी को स्पष्ट करने का खतरा उठाना पड़ेगा।

कुत्ते इस संबंध में और भी आगे हैं। उनकी घ्राण शक्ति अन्य पशुओं की तुलना में अधिक होती है। मनुष्य से तो सैंकड़ों गुनी अधिक है। इसलिए प्राचीन काल में शिकारी लोग कुत्तों के झुण्ड साथ लेकर चलते थे। अभी भी उनका प्रयोग अपराधियों को पकड़ने के लिए पुलिस द्वारा किया जाता है।

पक्षियों को झुण्ड बनाकर रहने, अपने परिवार वालों को पहचानने में आँखों से नहीं नासिका से सहायता मिलती है। उनमें से नेता कौन है, किस का अनुकरण करता है यह निर्णय वे प्रमुख की जानी पहचानी गन्ध से ही करते हैं। चिड़ियों के परिवार और दम्पत्ति जीवन में जिस पहचानने की आवश्यकता पड़ती है उसे वे घ्राण शक्ति के सहारे ही पूरा करते हैं। मधु-मक्खियों, तितलियों और चींटियों का अति जटिल जीवनचर्या इसी आधार पर चलती है। तितलियों को नर-मादा पुष्पों के बीच निषेचन की दलाली करनी पड़ती है वे नर वर्ग का पराग अपने पैरों और पंखों में लपेट कर मादा वर्ग तक पहुँचाती हैं। उन्हें इन दोनों वर्गों का अन्तर गन्ध भिन्नता के आधार पर ही करना पड़ता है। मधु-मक्खियाँ इसी आधार पर ताड़ लेती हैं कि उन्हें किस दिशा में खिले हुए पुष्पों से मधु संचय में सुविधा रहेगी। चींटियाँ मिठास का पता लगाने और वहाँ तक टेढ़े-मेढ़े रास्ते पार करके भी जा पहुँचने में अपनी नासिका से सहायता लेती है।

मछलियाँ अपने तैरते अण्डे बच्चों की स्थिति इसी आधार पर समझती और उनकी सहायता करती रहती हैं। इसी प्रकार अन्य जल जन्तु भी बहते प्रवाह एवं गहरे जलाशयों में रहते हुए भी अपना परिवार सम्भालते, शिकार पकड़ते और आक्रामकों से जान बचाते रहते हैं। वंश वृद्धि के लिए उपयुक्त समय स्थान और साथी ढूंढ़ निकालने का सुयोग बिठाने में भी उन्हें शरीरों से निकलने वाली गन्ध के सहारे ही काम चलाना पड़ता है।

पशु पक्षियों से लेकर कृमि-कीटकों तक में यथा समय मादा वर्ग के शरीरों से विशेष प्रकार की तेज गन्ध निकलती है। वह जितने क्षेत्र में फैलती है उसमें रहने वाले नर वर्ग को उत्तेजित एवं आकर्षित करती है। निमन्त्रण पाते ही वे दौड़ पड़ते हैं और वंश वृद्धि के कार्य में जुट पड़ते हैं। गन्ध समाप्त होते ही आकर्षण भी समाप्त हो जाता है और वे अपना-अपना रास्ता पकड़ते हैं।

मौसम बदलने और कोई प्रकृति उभरने का पूर्वाभास कितने ही प्राणियों को होता है। वे संकट अपने से पूर्व ही अपना स्थान बदलने और सुरक्षित स्थान पर जा पहुँचने का प्रयत्न करते हैं। इसे उनकी अतीन्द्रिय क्षमता कहा जाता है। यह क्या है और कहाँ से उत्पन्न होती है इसका रहस्य खोजने वालों का निष्कर्ष यह है कि यह उस गन्ध का चमत्कार है जो घटनाक्रम बदलने के साथ-साथ अपना स्वरूप एवं स्तर बदलती रहती है। जिनकी घ्राण शक्ति पैनी है वे उसे पहचान लेते हैं और संकट से बचने का प्रयत्न करते हैं।

कृमि-कीटकों के यौनाचार का संयोग बिठाने में मादा वर्ग के शरीर से निकलने वाली जिस गन्ध की प्रधान भूमिका रहती है उसे ‘फेरीमोन’ रसायन कहा जाता है। इसे अब वैज्ञानिक विधि से उन शरीरों से पृथक भी किया जाने लगा है। इस गन्ध को जहाँ बखेरा जाता है वह उस वर्ग का नर समुदाय दूर-दूर से आकर इकट्ठाने होने लगता है। इस आधार पर उन्हें पकड़ने या मार का उद्देश्य पूरा किया जाता है। नर वर्ग अपनी परिपक्वता की छाप छोड़ता है और समूह की अनेक मादाएँ उसके हरम में सम्मिलित होती हैं। कोई नया नर उभरता है तो उस परिपक्वता का दबाव से अपना मन मार लेता है। या तो बिना दम्पत्ति सहयोग के ही काम चलने लेता है या फिर अन्यत्र जाने या प्रमुख को खदेड़ने की बात सोचता है। नवयुवकों को क्या करना चाहिए इसके लिए उसे प्रमुख की गन्ध प्रखरता को देखते हुए ही अनुमान लगाना पड़ता है। ऐसा भी देखा गया है कि किसी की प्रखरता के सामने उस समुदाय का मन ही ठण्डा पड़ जाता है। रानी मधुमक्खी की प्रजनन शक्ति इतनी प्रखर होती है उस छत्ते की अन्य मादाओं में प्रजनन की आकाँक्षा ही नहीं उभरती वे अपना चुपचाप श्रम करती और दिन काटती रहती है। नरों का दबाव भी अपने झुण्ड के अन्य नरों को निस्पृह बनाकर रख देता है।

मनुष्य की घ्राण शक्ति आँख और कान की प्रमुखता मिलने के कारण दब गई है। काम न मिलने उपयोग न हो पर ही वस्तु निकम्मी हो जाती है। अपनी नाक का भी यही हाल है वह साँस लेने भर का काम करती रहती है। सर्दी जुकाम होने पर ही उसके अस्तित्व का पता चलता है। इतने पर भी वह अचेतन को अनेकानेक परोक्ष जानकारियाँ अभी भी देती रहती है। यदि वह वस्तुतः अपनी क्षमता गँवा बैठे तो मनुष्य बुद्धिमान दीखते हुए भी अचेतन क्षेत्र की समस्वरता गँवा बैठेगा और बुद्धू या सनकी बनने लगेगा।

प्राण विद्युत की इन दिनों बहुत चर्चा है। शरीर में पाई जाने वाली बिजली के ऊपर गहरे अनुसंधान चल रहे हैं। इस संदर्भ में नये तथ्य यह सामने आये हैं कि यह प्राण विद्युत ताप, शब्द या प्रकाश तरंगों के रूप में पहचानी तो जाती है। पर वस्तुतः होती गन्ध की प्रतिक्रिया भर ही है। ऋषि आश्रमों में सिंह गाय के एक घाट पानी पीने में वातावरण की जिस विशेषता पर दृष्टिपात किया गया है अब उसे गन्ध विशेष के रूप में निरूपित किया जा रहा है। व्यक्ति विशेष के शरीर से जो गन्ध निकलती है उस आधार पर व्यक्तित्व के अनेक पक्षों का पता चलता है। यहाँ तक कि शारीरिक एवं मानसिक रोगों तक का स्वरूप समझा जा सकता है। चिकित्सा क्षेत्र में अब तक मल, मूत्र, रक्त आदि की परीक्षा ही निदान के लिए प्रयुक्त होती थी अब इससे रोगी के शरीर में निकलने वाली गन्ध को भी जाँच-पड़ताल का एक माध्यम मानने लगा है। हर रोग के रोगी में एक विशेष प्रकार की गन्ध पाई जाती है जिस घ्राण शक्ति विकसित कर लेने वाला कोई भी चिकित्सक सहज ही पहचान कर सकता है और रोग का स्वरूप समझने की गुत्थी सुलझा सकता है।

इस प्रकार गन्ध चिकित्सा की एक उपचार पद्धति विनिर्मित की जा रही है। येल विश्व विद्यालय के शोधकर्ता डा. जुडिथ रोडन ने सिद्ध किया है कि भोजन में स्वाद ही नहीं उसकी गन्ध भी खाने वाले के शरीर में उतार-चढ़ाव उत्पन्न करती है। कपड़ों में घर आँगन में रहने वाली गन्ध को भी मनुष्य के स्वास्थ्य और सन्तुलन पर प्रभाव पड़ते देखा गया है। परीक्षण के प्रसंगों का उल्लेख करते हुए रोडन ने लिखा है कि एक व्यक्ति का चाकलेट की गन्ध मात्र से स्वास्थ्य सुधारा और वजन बढ़ा। चर्बी घटाने एवं शर्कराजन्य रोगों पर नियन्त्रण पाने में गन्ध संपर्क से उत्साहपूर्वक परिणाम देखने को मिला है।

जार्ज टाउन यूनिवर्सिटी मेडिकल सेन्टर के अभ्यास जीव विज्ञानी राबर्ट हेनकिन ने अपने प्रयोग से सिद्ध किया है कि श्रम जीवियों की थकान घटाने या बढ़ाने में कारखाने कार्यालय की पाई जाने वाली गन्ध का भी हाथ रहता है। अस्तु श्रमिकों का तनाव घटाने के लिए कार्यालयों में उपयुक्त स्तर की गन्ध का छिड़काव होना चाहिए।

सुगन्ध उत्पादन में इन दिनों अरबों-खरबों की राशि खर्च होती है। इनका उपयोग आमतौर से भोजन, वस्त्र, घर में नासिका प्रेम बनाने के लिए किया जाता। अब इस संदर्भ में एक नया अध्याय जुड़ा है कि शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य सुधार के लिए किन प्राकृतिक या कृत्रिम कामों का उपयोग किया जाय यहाँ यह समझना भी उपयुक्त होगा कि मनुष्य के स्वभाव, आचरण एवं दृष्टिकोण को भी विशेष गन्धें प्रभावित करती हैं। पूजा उपचार में इसी हेतु विभिन्न गन्धों का प्रबन्ध किया जाता है। अगरबत्ती, धूपबत्ती, कपूर, चन्दन, दीपक, हवन आदि को इसलिए भी अध्यात्म कृत्यों में सम्मिलित रखा गया है कि उनके सहारे चेतन, अचेतन और सुपर चेतन को उपयुक्त दिशा में विकसित होने का अवसर मिलता रहे।

दुर्गन्ध के साथ जुड़े रहने वाली अहितकर सम्भावनाओं से सभी परिचित हैं। सड़न से उठने वाली कुरुचि पूर्ण गन्ध यह बताती है कि यहाँ रहने से खैर नहीं। इसे हटाया जाय या स्वयं भाग जाए। अन्यथा रुग्णता का संकट सिर चढ़ेगा। कार्य क्षमता घटेगी और मानसिक संतुलन बिगड़ेगा। ठीक इसी प्रकार यह भी समझा जाना चाहिए कि सुगन्ध की परिणति भी कितनी उपयोगी हो सकती है।

इत्र, फुलेन आदि का इन दिनों बहुत प्रचलन है। यह कृत्रिम और उत्तेजक होने से उलटी प्रतिक्रिया भी उत्पन्न कर सकती है। सात्विक एवं उपयोगी गन्ध वह है कि जो वृक्ष वनस्पतियों और खिले फूलों से निकलती है। इसे भी जीवनोपयोगी आवश्यकताओं में सम्मिलित रखा जाना चाहिए। ऐसे क्षेत्र में रहना चाहिए जहाँ ऐसा सुविकसित वातावरण हो अथवा अपने घर आ जाने में पुष्पोद्यान लगाने का प्रबन्ध करना चाहिए। इस व्यवस्था की भी सुविधा एवं सुसज्जा की तरह एक महत्वपूर्ण आवश्यकता समझी जानी चाहिए।


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