पूर्वाग्रह छोड़ें, आत्मिकी का अवलम्बन लें

December 1983

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मान्यताओं के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित होने पर सत्य के निकट पहुँच पाना सम्भव नहीं हो पाता। ऐसे व्यक्तियों की स्थिति उस मेंढक की तरह होती है जो कुएँ में परिभ्रमण करता, उसकी जलराशि एवं विस्तार को ही अधिकतम मानता रहता है। झरनों, नदियों तथा समुद्रों की अगाध जलराशि, प्रवाह, गहराई एवं विस्तार के चर्चा प्रसंग कुएँ के मेंढक को अवास्तविक लगते हैं। अपने अनुभव एवं जानकारी को ही वह सर्वोपरि महत्व देता है। लगभग ऐसी ही हालत उन तथाकथित विद्वानों बुद्धिजीवियों तथा प्रत्यक्षवाद को ही महत्व देने वाले भौतिक विज्ञानियों की है जो इन्द्रिय ज्ञान के सीमित परिकर में ही चक्कर काटते रहते हैं, जो भी दृष्टिगोचर होता है, उसे ही सब कुछ मानते हैं। इसी उथली कसौटी पर वे आत्मा एवं परमात्मा को, उसके अस्तित्व एवं विस्तार को भी कसते रहते हैं। असफलता हाथ लगने पर परम ज्ञानी की भाँति उद्घोष करते हैं-‘नो गाड’, ‘नो सोल’। जब परमात्मा की सत्ता ही नहीं तो उसे मानने से क्या लाभ? फिर कर्मफल के-आस्तिकता के-परमार्थ परायणता के मानवी अनुबन्धों एवं नैतिक अनुशासनों के परिपालन का क्या औचित्य? यह चिन्तन ही वस्तुतः प्रच्छन्न नास्तिकता के रूप में प्रकट होता है। पर इसकी जड़ें उन मान्यताओं में हैं जो प्रत्यक्षवाद की सीमित जानकारियों की पृष्ठभूमि पर बनी होती है।

ज्ञानेंद्रियों का अनुभव कितना सीमित, कितना संकुचित हैं, इसे देखकर और भी हैरत होती है। आँखें एक निश्चित दूरी तक ही देखने में सक्षम हैं। कानों के सुनने की एक मर्यादा है। वे न्यूनतम 30 सायकल्स प्रति सेकेंड तथा अधिकतम बीस हजार सायकल्स की ध्वनियों को ही सुन सकते हैं। जबकि कितने ही प्रकार की ध्वनियाँ ऐसी हैं जो कानों की पकड़ सीमा के बाहर हैं। घ्राणेन्द्रियाँ निश्चित प्रकार की गन्धों को ही अवग्रहण कर पाती हैं। जिह्वा की स्वाद अनुभूति सीमित हैं। इन इन्द्रियों की पकड़ सीमा से बाहर भी अगणित विषयों का अस्तित्व है जिनकी जानकारी इन्हें नहीं मिलती।

संसार एवं उसकी वस्तुएँ जो इन नेत्रों को दिखायी पड़ती हैं तीन आयामों के भीतर आती हैं। लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई अथवा गहराई। इनसे बनी दुनिया ही दिखायी पड़ती अथवा अनुभव में आती है। वैज्ञानिकों ने दिक् और काल के रूप में एक चौथे आयाम का अस्तित्व खोज निकाला है। उन्होंने सम्भावना व्यक्त की है कि चार आयामों से बनी एक और दुनिया इसी संसार के भीतर हो सकती है जिसकी हमें कोई जानकारी नहीं रहती। उसके पदार्थ एवं जीवन दृश्य संसार से सर्वथा भिन्न गुण धर्म वाले हो सकते हैं। स्वर्ग नरक की, भूत-प्रेत, पितर आदि की गुत्थियाँ इस अदृश्य संसार के रहस्यों के खुलने से सुलझने की सम्भावना है।

अविज्ञात दुनिया की परिकल्पनाओं से दृश्य जगत में आये तथा उससे जुड़े तथ्यों की खोज-बीन करें तो भी विदित होता है कि हमारी जानकारियाँ उतनी सत्य नहीं हैं जितनी कि प्रायः हम समझते हैं। कितने ही विषयों के संदर्भ में तो अधिकाँश व्यक्ति भ्रामक और गलत मान्यताएँ पाले रहते हैं। समझते यह भी हैं कि जो भी कुछ उन्हें ज्ञात है वहीं समग्र है।

एक स्थान पर बैठे अधिकाँश व्यक्तियों को यह कल्पना भी नहीं होती कि वे पृथ्वी के साथ कितनी तीव्रगति से परिभ्रमण कर रहे हैं। अपनी धुरी पर पृथ्वी कितनी तेजी से घूम रही है? कितनी तीव्रगति से यह एक विशेष परिक्रमा कक्ष में सूर्य के चारों और चक्कर काट रही है? सौर मण्डल भी किस गति से अन्तरिक्ष में घूम रहा है? सामान्य व्यक्ति इन प्रश्नों पर विचार भी नहीं करते। उनकी मान्यता यह रहती है कि वे गतिहीन अवस्था में एक स्थान पर स्थिर बैठे हुए हैं। जबकि यथार्थता यह है कि हर व्यक्ति हर समय शरीर से गतिहीन रहते हुए अत्यन्त तीव्र गति से पृथ्वी के साथ परिभ्रमण कर रहा होता है।

प्राचीन युग की वह मान्यता कि हर गति निरपेक्ष होती है, आइन्स्टीन के सापेक्षवाद सिद्धान्त द्वारा भ्रमपूर्ण सिद्ध हो चुकी है। किसी भी वस्तु की निरपेक्ष गति सम्भव नहीं है। गति सदा सापेक्ष होती है। प्रख्यात खगोलविद् डा. जे. एलेन हाइनेख ‘साइन्स डाइजेस्ट’ पत्रिका के ‘वॉडीज इन मोशन’ लेख में लिखते हैं कि मध्य अक्षाँश पर रहने वाले लोग पृथ्वी के केन्द्र के चारों ओर सात सौ मील प्रति घण्टे की रफ्तार से घूम रहे हैं। जबकि विषुवत् रेखा पर रहने वाले, जो ग्रहों की परिभ्रमण धुरी से दूरी पर हैं, एक हजार मील प्रति घण्टा की तीव्र गति से घूम रहे हैं। ठीक उसी समय पृथ्वी की यात्रा भी जारी रहती है। वह साढ़े अठारह मील प्रति सेकेंड सूर्य के सापेक्ष घूम रही है। अर्थात् एक घण्टे में उसकी गति 1110 मील है। रेलगाड़ी के इंजन की तरह सूर्य अपने परिवार के सभी सदस्यों-पृथ्वी तथा ग्रहों को साथ लिए आकाश गंगा के केन्द्र के चारों ओर 150 मील प्रति सेकेंड अर्थात् 9000 मील प्रति घण्टे की गति से यात्रा कर रहा है।

आकाश गंगा कितनी तेजी से परिभ्रमण कर रही है, यदि इसे हम एक कास्मिक पड़ौसी-एन्ड्रोमेडा आकाश गंगा जो सबसे निकटवर्ती होते हुए भी अपनी आकाश गंगा से मात्र 20 लाख प्रकाश वर्ष की दूरी पर है वे केन्द्र से देख सकें तो मालूम होगा कि मन्दाकिनी (आकाश गंगा) का केन्द्र हम लोगों की ओर 50 मील प्रति सेकेंड अर्थात् 300 मील प्रति घण्टा से गतिशील है। यदि और भी दूर अवस्थित आकाश गंगाओं से पृथ्वी को देखें तो वह हमसे दूर लट्टू की तरह नाचती दिखाई देगी। अभी हाल में खोज हुए क्वासार-पी.के.एस. 2000-330, जो पृथ्वी से सबसे दूर 12 अरब प्रकाश वर्ष दूरी पर अवस्थित माना जा रहा है, से यदि देखें तो पृथ्वी एक आश्चर्यजनक और अविश्वसनीय गति-1,65000 मील प्रति सेकेंड या 99,00000 मील प्रति घण्टे की गति से घूमती दिखाई देगी। पृथ्वी की यह गति प्रकाश की गति की 91.7 प्रतिशत है।

इस तरह हम देखते हैं कि हमारा शरीर कभी भी स्थिर अवस्था में नहीं है। एक आराम कुर्सी पर बैठा हुआ व्यक्ति कुर्सी के सापेक्ष तो स्थिर है, पर आकाश गंगा के केन्द्र के सापेक्ष 150 मील प्रति सेकेंड की रफ्तार से एक अविज्ञात जगत की यात्रा कर रहा है। एक घण्टे में वह दूरी 900 मील तथा 24 घण्टे में 216000 मील होती है। अर्थात् मात्र आकाश गंगा के सापेक्ष यदि दैनिक यात्रा का अनुमान लगायें तो हर व्यक्ति 216000 मील की दूरी घर बैठे तय कर लेता है। जिसकी प्रायः अधिकाँश व्यक्तियों को न तो कोई जानकारी रहती और न ही वे अधिकाँश कर पाते हैं।

इन्द्रियों के आधार पर तो दृश्य संसार की भी वास्तविक जानकारी नहीं मिल पाती। बुद्धि का क्षेत्र भी दृश्य जगत ही है। जो देखा और सुना गया है उसी के इर्द-गिर्द उसका चिन्तन घूमता है। इनमें प्राप्त अधूरे अपूर्ण और भ्रामक ज्ञान परोक्ष जगत को समझने में मदद नहीं कर सकता। आत्मा और परमात्मा का अस्तित्व तो और भी सूक्ष्म हैं। उन्हें अगोचर कहा गया है। इन्द्रियों से प्राप्त भौतिक जानकारियों के सहारे उनके अस्तित्व एवं वैभव को समझना सम्भव नहीं। यथार्थता के बोध के लिए तो जानकारियों एवं मान्यताओं के बौने धरातल से ऊपर उठना होगा तथा आत्मिकी के सिद्धान्तों का अवलम्बन लेना होगा।


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