बिना सद्ज्ञान के अधूरा है भौतिक ज्ञान

December 1983

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सृष्टि की संरचना जड़ चेतन के संयोग से हुयी है। प्रकृति जड़ है पर उसमें जो गति है, शक्ति है उसका कारण चेतन तत्व है। चेतना की ही सर्वत्र हलचल है तथा जीवधारियों में जीवन तत्व ही विभिन्न रूपों में क्रीड़ा-कल्लोल कर रहा है। विज्ञान जड़ प्रकृति की खोज करता है-नये-नये रहस्यों का उद्घाटन करता है। अध्यात्म का क्षेत्र चेतना है। उसकी खोज सृष्टि के आदि कारणों की ओर चलती है जबकि विज्ञान बाह्य जगत से अपना कार्य आरम्भ करता है। ज्ञान की दोनों ही धाराएँ यदि परस्पर पूरक बनकर कार्य करें तो सृष्टि के रहस्यों को-उसमें क्रियाशील चेतना को समझने में विशेष मदद मिल सकती है और साथ ही संसार की अगणित समस्याओं को सुलझाने में भी सहयोग मिल सकता है।

प्राचीन काल में ज्ञान की दोनों ही धाराएँ-तत्वज्ञान और भौतिक विज्ञान परस्पर सम्बद्ध थीं जिसे एक समग्र ज्ञान-अध्यात्म विज्ञान के नाम से जाना जाता था। ऋषिकाल में सब कुछ सन्तुलित-सुव्यवस्थित था। परिस्थितियाँ आज जैसी जटिल नहीं थी। न साधना की कमी थी और नहीं महान उत्कृष्टता सम्पन्न व्यक्तित्वों की। पर कालान्तर ज्ञान की दोनों ही धाराएँ एक-दूसरों से काटकर अलग हो गयी, अपनी ढपली आप बजाने लगी। अपना राग आप अलापने लगीं। इस विलगाव ने ही संसार में अगणित समस्याएँ पैदा की हैं।

ज्ञानी, तत्वज्ञानी और वैज्ञानिक मनीषी कहलाने का एकमात्र सौभाग्य मनुष्य को प्राप्त है परन्तु मनुष्य जाति के सभी सदस्य ज्ञानेन्द्रियों का साधनों का सम्यक् प्रयोग करते हुए भी वस्तुतः वैज्ञानिक नहीं है। लाखों में से कठिनता से दो चार निकलेंगे जिन्हें सही अर्थों में वैज्ञानिक कहा जा सकता है ज्ञानेन्द्रियों के सहयोग से कुछ अनुभूतियाँ प्राप्त कर लेने का नाम ज्ञान नहीं है नहीं दर्शनों के अनुशीलन का नाम दर्शन। ऋषि दार्शनिक वैज्ञानिक या तत्ववेत्ता वस्तुतः वही है जो सृष्टि के सौंदर्य से, उसके भीतर निहित गुह्य विद्या को जानने का प्रयास करे तथा कला व्यवस्था के निमित्त कारण-परम कलाकार-नियामक सत्ता से हमारा परिचय करायें। जिस सृष्टि में मनुष्य रहता है वह प्रत्येक आयाम में महान है। सृष्टि से भी महान वह कला है जो कि उसे सौंदर्य प्रदान करती है और इस कला से भी महान वह कलाकार है जिसने प्रकृति के उपादान तत्वों पर उस श्रेष्ठतम रचना की अभिव्यक्ति की है। वैज्ञानिक एवं ऋषि की आस्था इसी प्रकार की आस्तिकता में होती है। प्राचीन काल में ऋषि तथा आज के वैज्ञानिक इसी आस्था का अवलम्बन लेकर नये-नये रहस्यों का उद्घाटन करते आ रहे हैं।

ऋषियों और वैज्ञानिकों में समानता यह है कि दोनों की ही खोज जिज्ञासा से अभिप्रेरित होती रही है। एक पिण्ड और ब्रह्माण्ड के मूलतत्व की खोज करता है, तो दूसरा सृष्टि के रहस्यों के उद्घाटन में अपने को खपा देता है। वैज्ञानिक अपने सीमित साधनों एवं ज्ञान के सहारे सृष्टि के विशद् अध्ययन की यात्रा सम्पन्न करता है। सृष्टि भी उसकी तपस्या और आस्था पर मुग्ध होकर धीरे-धीरे अपने समस्त गुह्य रहस्यों को वैज्ञानिक के समक्ष अभिव्यक्त करने लगती है। हिरण्यमय पात्र से ढँका हुआ सत्य भी अपने सही रूप में अनावृत्त होकर वैज्ञानिक के सामने प्रकट होने लगता है। वैज्ञानिक जगत में जितने भी आविष्कार हुए हैं उनके पीछे विचित्र संयोग भी जुड़े हुए हैं। प्रकृति का किसी न किसी रूप में उनमें परोक्ष सहयोग रहा है। ऋषियों ने अपनी खोज भीतर से आरम्भ की। अपनी तपस्या तथा अविचल निष्ठा-आस्था द्वारा इन रहस्यों का साक्षात्कार किया। वे विज्ञान परम्परा के आदि-जनक थे। उसी ऋषि परम्परा में आज के वैज्ञानिक भी सृष्टि सम्बन्धी जिज्ञासाओं के समाधान में लगे हुए है।

विज्ञान के माध्यम से जो जानकारियाँ मिली है उनसे अणु और महान, सूक्ष्म और विराट् की दोनों ही दिशाओं में परमात्म सत्ता के विराट् भाव का कुछ आभास कराती है। परमाणु के सूक्ष्मतम स्वरूप की नयी-नयी जानकारियाँ मिलती जा रही हैं। एक बदलती है तो दूसरी मान्यता स्थानापन्न बनती है। सूक्ष्मता की ओर खोज जारी है। उसका अन्त कहाँ होगा, यह किसी को मालूम नहीं। विराट् की ओर अत्यधिक आधुनिक यन्त्रों के माध्यम से देखने का प्रयास किया गया। उस खोज का भी कोई सुनिश्चित अन्त दिखायी नहीं पड़ता। लगता है अगले दिनों विज्ञान को भी ऋषियों की भाँति उद्घोष करना पड़ेगा “अणोरणीयान् महतोमहीयान्।” “वह अणु से भी विराट् है, महान से भी महानतम है।”

समय के साथ विज्ञान की सूक्ष्मता अब अत्यन्त आगे बढ़ चुकी है। एक सेकेंड के समय मापन को अब बहुत स्थूल माना जाता है। ऐसे यन्त्र बन चुके हैं जिनसे एक सेकेंड के एक लाखवें भाग जैसे अल्पकाल को भी मापा जा सकता है। द्रव्य के ऐसे सूक्ष्म कणों की जानकारी मिल चुकी है जिनका जीवन काल 10-12 से 1030 सेकेंड की माप के बीच है-अर्थात् एक सेकेंड का वह सूक्ष्म भाग जिस पर 10 के अंक पर 20 से 30 बिन्दु तक होवें। एण्टी यूनीवर्स- एण्टी मैटर- एण्टी मैन की एक अति सूक्ष्म पर अत्यन्त सामर्थ्यवान दुनिया हाथ लगने वाली है।

खगोलशास्त्री धरती पर बैठे हुए सुदूर स्थित ग्रह नक्षत्रों की- ज्योति पिण्डों का परिचय प्राप्त कर रहे हैं। उनमें से कितने ऐसे हैं जिनका प्रकाश पृथ्वी पर आने में वर्षों लग जाते हैं वैज्ञानिक धरती की आयु अधिक से अधिक दो से चार अरब वर्ष मानते। पर ऐसे अगणित सृष्टि पिण्डों का परिचय मिला है जिनकी आयु खरबों वर्ष से भी अधिक हैं। अपने सौर मण्डल में एक सूर्य, एक चन्द्रमा है पर ऐसी सम्भावना है कि ब्रह्माण्ड में इनसे भी बड़े और प्रकाशवान अगणित सूर्य, चन्द्र जैसे पिण्ड मौजूद हैं।

पृथ्वी का द्रव्यमान दस अरब का 6600 गुना टन है। उस वजन की मात्र कल्पना की जा सकती है। सौर मण्डल के अन्य ग्रह हैं। सूर्य उनमें सबसे विशाल है। वह पृथ्वी के दस अरब गुणा 6600 अरब टन द्रव्यमान से भी 3,30000 गुणा भारी है। अपनी आकाश गंगा में कम से कम दस अरब सूर्य हैं जिनमें से औसतन प्रत्येक सूर्य का आकार एवं भार अपने सूर्य से अधिक है ज्योतिर्विदों का मत हैं कि इस आकाश गंगा जैसी कम से कम एक लाख आकाश गंगाएँ इस ब्रह्माण्ड में हैं उनमें अपनी पृथ्वी, सूर्य और चन्द्रमा जैसे कितने पिण्ड होंगे, उनका कितना अधिक भार होगा, यह सोचकर ही मानव मन हतप्रभ हो जाता है और विराट् की एक झाँकी उसे दिखाई देने लगती है।

लेकिन इन्द्रियों और यन्त्रों की पकड़ में आने वाला यह गोचर-इन्द्रियातीत का क्षेत्र वृहद् हैं। पर एक-दूसरे को प्रभावित भी करते हैं। दृश्य जगत पर अदृश्य की प्रतिक्रियाएँ होती देखी जाती है। इससे अदृश्य जगत की सत्ता तथा उसकी सामर्थ्य का बोध होता है। उदाहरणार्थ एक्स किरणें आँखों को दिखायी नहीं पड़ती। अल्ट्रावायलेट, इन्फ्रारेज, कास्मिक रेज आदि की भी यही स्थिति है। पर जब वे अनुकूल पर्दों पर पड़ती है जो तो फ्लोरेन्स उत्पन्न करती हैं जो इन्द्रियगम्य हैं जिसे देखकर एक्सरे की प्रतीत होती है। विद्युत धारा दिखायी पड़ती पर उसका परिचय बल्ब जलने, पंखा चलने, हीटर के गरम होने आदि के रूप में होता है।

उल्लेखनीय बात यह भी है कि प्रत्यक्ष की तुलना में परोक्ष जगत अद्भुत और विलक्षण ही नहीं है। जैसे-जैसे परोक्ष से परिचय बढ़ेगा, नयी-नयी महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हाथ आती जायेंगी। पर उनका सदुपयोग मानव तभी कर सकेगा जब उसमें सद्ज्ञान का सद्विवेक का प्रादुर्भाव होगा। ज्ञान के विस्तार से मनुष्य का कल्याण भी हो सकता है और विनाश का मार्ग भी प्रशस्त हो सकता है।

परमाणु बम भी बन सकते हैं और परमाणु संचालित ऊर्जा स्टेशन भी चल सकते हैं। पर ज्ञान पर विवेक का अंकुश लग जाने से दुरुपयोग की सम्भावना नहीं रहती। यह विवेक मानव मस्तिष्क में विद्यमान है जो विशुद्ध रूप से परमात्मा की देन है। विवेक ने ही सृजन की अगणित सम्भावनाओं को साकार किया है। उसके जागरण से ही मानव जाति का कल्याण होगा।

परिकल्पना तर्क पर आधारित हो तथा उनसे निकले निष्कर्ष युक्तियुक्त हों तो वे सर्वग्राही बन जाती हैं जिन्हें वैज्ञानिकों एवं दर्शन शास्त्रियों दोनों ही को स्वीकार करना पड़ता है। आइन्स्टीन की रिलेटिविटीथ्योरीलॉजिक की दृष्टि से खरी उतरती है। वैज्ञानिक विधि में सरफ्राँसिस बेकन का आगमनिक तर्क (इंडक्टिव लॉजिक) तथा अरस्तू का निगमनिक तर्क (डिडक्टिव लॉजिक) मान्यता प्राप्त है। ये उदाहरण बताते हैं कि हाइपोथीसिस बनाने हेतु कोई सशक्त आधार हो तो किसी विवेकशील को उसे स्वीकार करने में कोई अड़चन नहीं।

सिद्धान्त, मत या वाद भी वस्तुतः युक्तिपूर्ण परिकल्पनाएँ होती हैं जो निश्चित प्रकार के नियमों की व्याख्या करती हैं। वर्तमान भौतिक जगत के प्रमुख प्रचलित सिद्धान्त हैं-काइनेटिक मौलिक्यूलर थ्योरी, एटामिक थ्योरी, थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन, थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी, क्वाण्टम थ्योरी, थ्योरी ऑफ यूनीफिकेशन ऑफ फोर्सेस। विज्ञान क्रमशः नवीन खोजों एवं परिकल्पनाओं द्वारा व्यवस्थित ज्ञान की ओर बढ़ रहा है। पर उसका प्रयास एकाकी और अपूर्ण है। उसकी विचारधारा जड़वादी है। उसमें प्रेम, करुणा जैसी सम्वेदनाओं का कोई स्थान नहीं है। यही कारण संसार में विज्ञान के बढ़ते प्रभाव के साथ-साथ मानवी गरिमा को सार्थक करने वाली उच्चस्तरीय भावनाएँ भी कम होती जा रही है। “पेड़-पादपों की तरह जीवन का भी अन्त सुनिश्चित है, “भलाई-बुराई का कोई अर्थ नहीं है”, ये मान्यताएँ बनी रही तो किसी दिन कोई सिर-फिरा घातक परमाणु बमों से इस खूबसूरत संसार को यह सोचकर नष्ट भी कर सकता है कि एक न एक दिन तो समस्त जीवधारियों का अवसान होना ही है तो इस कृत्य में हर्ज ही क्या है।

विज्ञान की उपलब्धियाँ निश्चित ही महत्वपूर्ण है। उसकी खोजें भी अद्वितीय हैं। पर उसकी सीमाएँ हैं। जड़ प्रकृति के सीमित रहस्यों को ही वह जान सकता है पर उसकी चमत्कारी सामर्थ्य की व्याख्या करने में वह असमर्थ है। विज्ञान यह बता सकने में अक्षम है कि ग्रह-नक्षत्र, आकाश गंगा आदि की सुव्यवस्थित गति का कारण क्या है। वह ‘क्या’ की व्याख्या कर सकता हैं, ‘क्यों’ की नहीं। विज्ञान यह तो बता सकता है कि भौतिक सृष्टि कैसे बनती है, विभीषिकाएँ कैसे आती हैं पर यह नहीं बता सकता है कि द्रव्य और ऊर्जा कहाँ से आए तथा विश्व की रचना इतनी सुव्यवस्थित कैसे हो गयी। निश्चित ही इन प्रश्नों का हल भौतिक विज्ञान के आधार पर नहीं पाया जा सकता।

स्टैनफोर्ड विश्व विद्यालय के बायोफिजीक्स के प्रोफेसर पाल क्लेरेंस एवरसोल्ड अपनी एक पुस्तक में लिखते हैं कि “अपने वैज्ञानिक अध्ययन काल के आरम्भ में वैज्ञानिक तर्कों एवं प्रणाली से मैं इतना मुग्ध हो गया था कि मुझे विश्वास हो चला था कि वैज्ञानिक विश्व की प्रत्येक घटना की व्याख्या कर सकते हैं। किन्तु ज्यों-ज्यों अध्ययन की गहराई में पहुँचता गया, उतनी ही निराशा होती गयी। मुझे अपनी मान्यता बदलनी पड़ी तथा यह मानना पड़ा कि विज्ञान के द्वारा कुछ घटनाओं की ही व्याख्या की जा सकती है। मेरा सुनिश्चित विश्वास है अध्यात्म विज्ञान का अवलम्बन लिए बिना सृष्टि की अगणित पहेलियों को सुलझ पाना सम्भव नहीं।”

खोज की गहराइयों में विज्ञान जैसे-जैसे उतर रहा है उसी अनुपात में उलझता भी जा रहा है। स्थूल की तुलना में सूक्ष्म जगत उसे और भी विस्मित कर रहा है। उसे अनुभव हो चला है कि खोज के प्रयास एकांगी और अधूरे हैं। यह स्थिति निश्चित ही उसे अध्यात्म की शाश्वत आधारों को अपनाने को विवश करेगी, ऐसा विश्वास सुनिश्चित किया जा सकता है।


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