अन्तर्ग्रहीय आदान-प्रदान के केन्द्र ध्रुव प्रदेश

December 1983

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मस्तिष्क और हृदय दो केन्द्र होते हैं जो शरीर के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। यों तो महत्व हर अंग अवयव का है। शरीर परिचालन तथा विभिन्न क्रियाकलापों में उनकी अपनी-अपनी भूमिकाएँ हैं, पर जो रोल मस्तिष्क और हृदय का है, अन्य किसी भी कायिक अंग-प्रत्यंग का नहीं है। मस्तिष्क का सामान्य परिचय विभिन्न तन्त्रों के ऊपर नियन्त्रण रखने तथा हृदय का रक्त परिवहन में केन्द्रीय भूमिका निभाने के रूप में मिलता है। ये कार्य स्थूल हैं। इनकी सूक्ष्म भूमिकाएँ और भी अधिक महत्वपूर्ण हैं। सोचने विचारने निर्णय लेने आदि की क्षमता मस्तिष्क में ही होती है। हृदय से भाव सम्वेदनाएँ निस्सरित होती है। बाह्य जगत से आदान-प्रदान का क्रम भी इन्हीं दो केन्द्रों के माध्यम से चलता है। ये स्वयं भी बाह्य परिस्थितियों से प्रभावित होते तथा दूसरों को भी अपनी स्थिति के अनुरूप प्रभावित करते हैं। अत्याधिक संवेदनशील होने के कारण इनकी स्थिति में समय-समय पर परिवर्तन होते रहते हैं, जिसकी प्रतिक्रियाएँ व्यक्ति एवं वातावरण पर दिखायी पड़ती हैं। समूचे शरीर में क्या परिवर्तन होते रहते हैं, जिसकी प्रतिक्रियाएँ व्यक्ति एवं वातावरण पर दिखायी पड़ती हैं। समूचे शरीर में क्या परिवर्तन हो रहे हैं, उसकी सूक्ष्म जानकारी इन दो मर्मस्पर्शी केन्द्रों की स्थिति से मिल जाती है। विचारणा के स्तर तथा अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के आधार पर उसका परिचय आसानी से मिल जाता है।

सौर मण्डल शरीर की तरह ही एक विराट् शरीर है। ब्रह्माण्ड में ऐसे अगणित विराट् घटक क्रियाशील है। उनकी संख्या एवं स्वरूप की सही-सही जानकारी किसी को भी नहीं हैं। अपने सौर-मण्डल में नौ ग्रह हैं। उल्टी कक्षा में घूमने वाले एक अन्य ग्रह का भी प्रमाण मिला है जिसे दसवाँ ग्रह समझा जा रहा है। मंगल, पृथ्वी, बृहस्पति, बुध, शनि, शुक्र, प्लेटो, नेपच्यून, यूरेनस के अतिरिक्त दसवाँ ग्रह भी उस परिवार में सम्मिलित हो गया है। ये सभी सूर्य के चारों और परिक्रमा करते हैं। हर ग्रह के एकानेक उपग्रह हैं। अपनी पृथ्वी का चन्द्रमा है। सौर मण्डल के हर घटक परस्पर एक-दूसरे से अन्योन्याश्रित रूप से जुड़े हुए हैं तथा अपनी गति एवं स्थिति से एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। पृथ्वी का निज का जितना वैभव है उससे अनेक गुना दूसरे घटकों के अनुदानों से मिला है। गर्मी, प्रकाश, वर्षा आदि अनुदान तो प्रत्यक्ष दीखते हैं पर सूक्ष्म दिखायी नहीं पड़ते। सूक्ष्म आदान-प्रदान के अति सम्वेदी केन्द्रों का परिचय पृथ्वी के ध्रुव केन्द्रों के रूप में मिला है। उनके सम्बन्ध में जो तथ्य विदित हुए हैं वे हैं तो अत्यल्प पर अत्यन्त विलक्षण तथा आश्चर्यचकित करने वाले हैं।

पृथ्वी के अन्य भागों की अपेक्षा ध्रुवों की परिस्थितियां असामान्य हैं। समझा जा रहा है कि अंतर्ग्रही विशिष्ट अनुदान इन्हीं केन्द्रों के माध्यम से अवतरित होकर समस्त भू-मण्डल पर वितरित होते हैं तथा विजातीय द्रव्य दक्षिणी ध्रुव के माध्यम से अन्तरिक्ष में फेंक दिए जाते हैं।

इन ध्रुव प्रदेशों पर दुर्लभ मनोरम दृश्य दिखायी पड़ते हैं। उत्तरी ध्रुव पर छाया रहने वाला सुविस्तृत तेजोवलय ‘आरोरा बोरिएलिस’ अपनी अद्भुत आभा से हर किसी का मन मोह लेता है। “दि नेशनल एरौनाटिक्स एण्ड स्पेश एडमिनिस्ट्रेशन” (नासा) द्वारा छोड़े गये डायनामिक्स एक्स प्लोरट- ‘ए’ सेटेलाइट से अनेकों हाई रिजोल्यूशन फोटोग्राफ्स लिए गए। उससे आश्चर्यजनक जानकारियाँ मिली। अध्ययन-अन्वेषण में लगे वैज्ञानिकों का मत है कि अन्तरिक्ष से आने वाले सब एटोमिक पार्टिकल्स पृथ्वी के विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र में प्रवेश करके आवेशित हो जाते हैं तथा ध्रुव केन्द्रों पर ध्रुव प्रथा के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। ध्रुव प्रभा का क्षेत्र विस्तार 4000 कि.मी. व्यास हैं। इसकी किरणें की पट्टियाँ जो ध्रुव केन्द्र को आवृत किए होती हैं, उनकी चौड़ाई 1000 कि.मी. हुआ करती है। यह प्रभा मण्डल जमीन से 100 कि.मी. ऊपर चमकता है तथा उसके स्वयं की ऊँचाई दस से लेकर सैकड़ों किलोमीटर तक होती है। दिन में चर्म-चक्षुओं से आरोरा को देखने में कठिनाई होती है पर रात को वह स्पष्ट दिखायी पड़ता है। दिन और रात के आरोरा के विशेष अन्तर भी पाया जाता है। सूर्य किरणों के आड़े-तिरछे पड़ने से उसका रूप, रंग बदलता रहता है। जैसे शक्तिशाली कैमरों से देखा और उसका फोटो लिया जा सकता है।

यूनाइटेड स्टेट्स के उत्तरी क्षेत्र के आकाश मार्ग से ध्रुवीय ज्योति को सत फ्रेंसिस्को, मेमफिस तथा एटलान्टा के दक्षिण छोर पर रंग बिरंगे रूप में देखा जा सकता है। 53 डिग्री अक्षाँश पर तथा मध्य रात्रियों में उसके दर्शन किए जा सकते हैं। वैज्ञानिकों को अभिमत है कि ध्रुवीय ज्योति का प्रकाश हाइड्रोजन आयन अथवा प्रोटोन के प्रवाह से उत्पन्न होता है जो सूर्य से 1500 मील प्रति सेकेंड की गति से फेंका जाता है। प्रकाश कण प्रोटोन्स इलेक्ट्रान्स को भी साथ खींचकर लिये चलते हैं जिनका कुछ अंश पृथ्वी तक पहुँचता है जहाँ का चुम्बकीय क्षेत्र इलेक्ट्रानों तथा प्रोटानों को अलग कर देता है। प्रोटानों का जल कुछ अंश पृथ्वी के वायुमण्डल से स्पर्श करता है तो ध्रुवीय ज्योति (आरोरा) के रूप में प्रकट होता है। इसका यथार्थ स्वरूप तथा भूमिका अविज्ञात होते हुए भी सम्भावना व्यक्त की गयी है कि धरती पर अन्तर्ग्रहीय अनुदानों की वर्षा का वह स्थूल प्रकटीकरण है।

किसी सौर टेलिस्कोप से दक्षिण ध्रुव के हिमाच्छादित प्लेटो का अध्ययन किया जाय तो आश्चर्यजनक तथ्य एवं दृश्य सामने आते हैं। वहाँ के स्थान तो प्राकृतिक लगते हैं पर दिखायी पड़ने वाले दृश्य अत्यन्त ही अस्वाभाविक मध्य गर्मी के मौसम में वहाँ सूर्यास्त होता ही नहीं। कभी-कभी 16 दिनों तक सूर्य बिना अस्त हुए चमकता रहता है। रातें भी 20 से लेकर तीस रातों जितनी लम्बी होती हैं। कितनी बार हिमखण्डों पर कितने ही नकली सूर्य चमकते दिखायी पड़ने लगते हैं जो अवास्तविक होते हुए भी वास्तविक जान पड़ते हैं।

उत्तरी ध्रुव की तरह दक्षिणी ध्रुव में भी ध्रुव प्रभा के दर्शन होते हैं। उत्तरी ध्रुव से उसकी भिन्नता होने के कारण वैज्ञानिकों ने उसका नाम ‘आरोरा आस्ट्रेलिस’ दिया है। दिन यहाँ भी बहुत ही लम्बे होते हैं। जिन अन्वेषी दलों ने वहाँ की परिस्थितियों का अध्ययन किया है उनका कहना है कि कई दिनों तक रात्रि के दर्शन नहीं हो सके। आकाश में रंग-बिरंगे गैसों के बादल मँडराते रहते हैं। तापक्रम शून्य से भी कई डिग्री नीचे बारहों माह तक बना रहता है। सदा बर्फ की मोटी परत जमीं रहती हैं। सफेद भालू, पेन्गुइन पक्षी तथा मछलियाँ उस भयंकर शीत में भी जीवित रहते हैं। अनुसंधानकर्ताओं का मत है कि उत्तरी दक्षिणी ध्रुव पर दीखने वाला प्रभा मण्डल का अंतर्ग्रहीय परिस्थितियों के आदान-प्रदान से गहरा सम्बन्ध है जिसकी यथार्थ जानकारी तो उपलब्ध नहीं हो सकी हैं, पर अगले दिनों मिलने की सम्भावना है।

पृथ्वी को सूर्य से सर्वाधिक अनुदान मिलते हैं। और ही वह उसकी स्थिति गति एवं परिवर्तनों से प्रभावित भी होती हैं। उन प्रभावों को इन ध्रुवों पर अध्ययन कर सकना अधिक सुगम है। ध्रुवीय ज्योति का सूर्य कलंकों से भी घना सम्बन्ध है। जल सूर्य का प्रकृति शान्त रहती है तब ध्रुवीय ज्योति मन्द दिखायी पड़ती है पर उग्र होने पर उस ज्योति का दर्शन दिन और रात को अधिक समय तक किया जा सकता है। सौर गतिविधियों का चक्र चरम बिन्दु के नीचे उतरना प्रारम्भ होने पर नासा अनुसंधान केन्द्र द्वारा उसके प्रभावों का अध्ययन करने के लिए एक सेटेलाइट छोड़ा गया। उससे प्राप्त निष्कर्षों के अनुसार प्रति 11 वर्ष की अवधि में सूर्य हलचलों की एक अवस्था ऐसी आती है जब उसका उच्चतम उफान क्रम नीचे उतरना आरम्भ होता है। ध्रुवीय प्रदेशों में चलने वाले ऑटोरल स्टार्म्स सर्वोच्च स्थिति में जा पहुँचते हैं जब सौर चक्र की स्थिति अपने निम्नतम बिन्दु को स्पर्श कर रही होती है। विशेषज्ञ हाफमैन के अनुसार किन्हीं अज्ञात कारणों से ध्रुव प्रभा के अंतर्गत सौर स्पन्दन के उतार के समय में अति उच्च गति के तूफान उठा करते हैं।

सूर्य ग्रहण के समय दिखायी पड़ने वाले कोरोना का अध्ययन करने से यह ज्ञात हुआ है कि 11 वर्षीय चक्र में सबसे कम धब्बों एवं लपटों वाले समय में कोरोना का उभार भी सबसे कम होता है और जिस समय अधिकतम धब्बे व लपटें देखी जाती हैं उस समय कोरोना में भी सबसे अधिक उभार देखा जाता है। इन सब घटनाओं का संबंध सौर चुम्बकीय क्षेत्र की हलचलों से है जिसका सीधा प्रभाव पृथ्वी की परिस्थितियों पर पड़ता है। विशेषकर उस प्रभाव को ध्रुव केन्द्रों पर अधिक स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है।

स्पेश क्राफ्ट से किये गये निरीक्षणों के अनुसार सोलर विण्ड की धाराएँ सूर्य के विषुवत वृत्त से उत्तर एवं दक्षिण की ओर क्रमशः फैलते-उतरते हुए उत्तरी-दक्षिणी ध्रुव तक जा पहुँचती हैं। सोलर विण्ड की गति जब तीव्र रहती हैं तो सूर्य के उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव के पोलर होल्स अधिक चौड़े रहते हैं। जिसके कारण ध्रुव प्रदेशों में सोलर विण्ड की धारा उत्पन्न तेज पायी जाती है। जब उनकी गति कम होती है तो ध्रुव प्रदेशों में भी उस प्रवाह की गति कम दिखायी पड़ती है।

न केवल अन्तर्ग्रहीय प्रभावों को इन ध्रुव केन्द्रों पर देखा जा सकता है बल्कि पृथ्वी एवं उसके वातावरण में हुए हेर-फेर का भी प्रभाव वहाँ देखना सम्भव है। विगत दिनों यह आश्चर्यजनक तथ्य विदित हुआ है कि पृथ्वी पर होने वाले नाभिकीय परीक्षणों से होकर विकिरण दक्षिणी ध्रुव तक न आने कैसे और क्यों पहुँच जाते हैं। खतरनाक विकिरणों की बड़ी मात्रा दक्षिणी ध्रुव के किनारे एकत्रित होती जा रही है।

मानवी काया की तरह ही रहस्यमय एवं विलक्षणताओं से युक्त पृथ्वी के ध्रुव अनेकों ऐसे महत्वपूर्ण सूत्र पिण्ड ब्रह्माण्ड के संबंधों के विषय में देते हैं जिनसे अन्तर्ग्रहीय आदान-प्रदान की विधि व्यवस्था बनाने समझने में मदद मिलती है। आवश्यकता उन केन्द्रों के विषय में अधिक बनने की तो है ही उनसे संपर्क बिठाकर लाभान्वित होने की भी है।


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