बढ़ती आवश्यकताएँ और उठते कदम

December 1983

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छोटे बच्चे का काम तनिक से दूध और कपड़े में चल जाता है पर जैसे-जैसे वह बढ़ता जाता है उसी अनुपात में उसकी आवश्यकताओं में भी अभिवृद्धि होती है। खिलौने, किताबें, फीस, खेल-कूद से लेकर क्रमशः वह विवाह, व्यवसाय के लिए साधन मँगाता है और अन्ततः अभिभावकों को अपनी बची-खुची पूँजी उत्तराधिकार में हस्तान्तरित करने तक की नौबत आती है। उत्पादकों को जहाँ उत्साह उल्लास मिलता है, वहाँ साथ ही यह उत्तरदायित्व भी बढ़ता है कि सृजन को गतिशील समझे और उसकी बढ़ती हुई आवश्यकता तथा माँग को समयानुसार जुटाने के लिए तत्परता बरतें। जो इस तथ्य से अनभिज्ञ रहते, आंखें मूँदते हैं, वे समय की माँग न पूरी कर सकने पर दाँत निपोरते, उपहासास्पद बनते और पश्चाताप करते देखे गये हैं।

किसान और माली समान रूप से जानते हैं कि बीज बोने या पौधे उगाने का काम सरल है। पर जब फसल बढ़ती पकती है तो उसकी सिंचाई से लेकर रखवाली तक की ऐसी नई जिम्मेदारियाँ सामने आती हैं जिन्हें जुटाने के लिए दिन-रात एक करना पड़ता है। व्यवसायी भी इस तथ्य से परिचित रहते हैं। बैंक से लोन लेकर रोड के नीचे मशीन फिट कर देने पर कारखाने का उद्घाटन समारोह तो हो सकता है पर उसे ठीक तरह चलाने के लिए पूँजी, कच्चा माल, ग्राहक, कारीगर, चौकीदार, मुनीम आदि के न जाने कितने साधन जुटाने पड़ते हैं। यह जुगाड़ न जुटे तो दिवालिया बनते, कारखाना नीलाम होने, कर्जदारों द्वारा माँस-खिंचाई, साथियों में लोग हँसाई होती है।

प्रज्ञा अभियान के सूत्र संचालकों-प्रज्ञा परिजनों को-श्रेय सन्तोष तो बहुत मिला है। किन्तु साथ ही यह उत्तरदायित्व भी सामने खड़ा है कि आन्दोलन का अवश्यम्भावी विस्तार जिन नई आवश्यकताओं की माँग करे, उसकी पूर्ति को न केवल ध्यान रखे वरन् जुटाने का प्रयत्न प्राण-पण के साथ करने के लिए अहिर्निशि तत्परता बरतें।

जिनका यथार्थता से पाला पड़ा है वे जानते हैं कि युग समस्याओं के समापन में सृजन संघर्ष के लिए कटिबद्ध होने के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग है नहीं। अनादि काल से महामानव इसी राज को अपनाते और मानवी गरिमा के निर्वाह का लक्ष्य प्राप्त करते रहे हैं। इसका और कोई शार्टकट नहीं। भजन-पूजन भी नहीं। वैराग्य का आडम्बर ओढ़कर प्रमादी बनने से भी बात बनती नहीं। जिन्हें भक्ति शब्द से कुछ लगाव हो उन्हें हनुमान अर्जुन का अनुकरण करना होगा। बुद्ध गाँधी न सही-विवेकानन्द दयानन्द बनने से कम में गुजारा नहीं। हम भामाशाह भले ही न बन सकें पर ईश्वरचन्द विद्यासागर की तरह न्यूनतम में निर्वाह करके अधिकतम अंशदान की उदारता तो अपना ही सकते हैं। हजारी किसान का हजारी बाग और पिसनहारी का कुँआ जब तक जीवित है तब तक किसी को भी शिक्षा सम्पदा की कमी की दुहाई देकर कृपणता के कारण असमर्थ विवशता व्यक्त नहीं करनी चाहिए।

मंजिल तो चलने से ही पार होती है। साधनों के अभाव में भी बड़े कामों के लिए बड़े कदम इस आशा से उठाने पड़ते हैं कि जब पेड़ों का माँग बादलों के बरसने के लिए विवश कर सकती है तो कारण नहीं कि जिसे प्रेरणा के बलबूते दुस्साहस किये जाते हैं वही उसकी पूर्ति का सरंजाम न जुटाये। महाभारत लड़ने के लिए अर्जुन को विवश करने वाले न हो उस असहाय के पक्ष में सैन्य दल भी न जाने कहाँ से खड़ा कर दिया था और समय पड़ने पर सारथी तक का काम सम्भाला था। अब की बार भी गूँगा-बहरा, अन्धा अपंग थोड़े ही हो गया है।

मिशन की बढ़ती आवश्यकताओं ने कुछ नये कदम बढ़ाने और उनके लिए नये सरंजाम जुटाने के लिए विवशता उत्पन्न कर दी है। परिस्थितियों को बदलने के लिए मानवी गरिमा की फरियाद सभी मूर्धन्यों ने अनसुनी कर दी है। शासनाध्यक्ष, धर्माध्यक्ष, श्रीमन्त, साहित्यकार, कलाकार कोई भी अपना अभ्यास ढर्रा बदलने की तैयारी नहीं। जन समुदाय को जगाने, उठाने, संजोने और परिवर्तन के लिए सहमत करने का झंझट उठाने की न किसी में इच्छा है न योग्यता। नेता बनने के लिए मंच संजो लेने और उस पर चित्र-विचित्र बोलियाँ बोलने के आयोजन, सम्मेलन भी अब एक प्रकार के कला कौतुक बन गये हैं। उस विनोद मनोरंजन से लोकमानस के प्रचलित प्रवाह को उलट देने की आशा करना आकाश कुसुम खिलाने के सदृश है। स्पष्ट है कि इससे आगे मूर्धन्यों के पाँचों पथ और कुछ करने को तैयार नहीं है। इन निचली अदालतों में अर्जी खारिज होने-मुकदमा हारने के उपरोक्त मानवी गरिमा का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रज्ञा अभियान ने जनता के सुप्रीम कोर्ट में सीधा जा पहुँचने और जोर-जोर से दरवाजा खटखटाने का निश्चय किया है। उसकी योजना पाँच सौ करोड़ मनुष्य के साथ व्यक्तिगत विचार विनिमय करने-दरवाजे-दरवाजे अलग जानने, और गली चौराहों पर ऊँचे स्वर से गुहार मचाने की है। इससे कम में बात बनती दीखती नहीं। बिचौलियों के माध्यम से चर्चा कहाँ तक चलाई जाय? बात जी खोलकर करनी है और आमने-सामने खड़े होकर। इस मन्थर गति से चली आ रही क्रिया पद्धति को अब आँधी तूफान जैसी गति देने का निश्चय किया गया है।

फोटो छापने वाले प्रदर्शन पदयात्राएँ नहीं, अपनी जन-जागरण के लिए जन संपर्क योजना को पुरातन तीर्थयात्रा के स्तर पर जब जीवन प्रदान किया गया है और इसके लिए युग प्रवक्ताओं के साथ युग गायकों की टोलियाँ बनाकर उन पिछड़े देहाती क्षेत्रों में भेजने का निश्चय किया गया है जहाँ से स्वागत और उपहार की सम्भावना न देखकर अब तक वरिष्ठों में से कोई पहुँचा ही नहीं। 70 प्रतिशत देहातों में वसा हुआ-इतने ही अनुपात में अनपढ़ों से भरा हुआ-क्षेत्र की असली भारत है। इसी को इष्टदेव माना गया है और उसी के कानों पर नगाड़ा न सही टूटा, कनस्तर बजाने का निश्चय किया गया है। विचार ऐसी हजार टोलियाँ कार्य क्षेत्र में उतारने का है जिनमें पाँच-पाँच युग प्रवक्ता और गायक हों। श्री गणेश सौ टोलियों में किया गया है। क्रमशः इसमें अभिवृद्धि होती चलेगी।

इतनी संख्या में भावनाशील प्रज्ञापुत्र ढूँढ़ने और सिखाने में उतनी कठिनाई आड़े नहीं आई जितनी लगती थी। एक वर्ष की समयदान योजना के अनुरूप अपनी श्रद्धांजलियां लेकर इतने प्रज्ञा पुत्र सामने आ गये हैं जिनके बलबूते जन-साधारण की प्रचार मण्डलियाँ जितनी अभीष्ट है उतनी में जो जा सके। कठिनाई लम्बे प्रवास में उनके वस्त्र विस्तार, प्रचार उपकरण और भोजन छादन का सरंजाम लादकर चलने वाले वाहनों की है। उन पर वृद्धों, असमर्थों, रुग्णों को जब तक बैठने की सुविधा भी तो मिल जाती है। फिर आगे पहुँचकर पद यात्राओं, तीर्थ यात्राओं उद्गाताओं के आगमन की पूर्व सूचना देने और कार्यक्रम से अवगत करना भी तो आवश्यक है। इन सब कार्यों के लिए द्रुतगामी और अधिक ढो सकने वाले वाहन चाहिए। यह कार्य अभी तो जीपें ही ठीक तरह कर सकती हैं। बाद में तो पूर्वकाल की तरह भविष्य में भी बैलगाड़ियों का सहारा लेना पड़ेगा। पर आज तो बैलों का चारा, पेट्रोल की तुलना में महँगा पड़ता है।

ज्यों-ज्यों करके कुछ पुरानी-धुरानी जीप गाड़ियाँ इकट्ठी की गई हैं और ठोंक-पीटकर काम चलाऊ बनाई गई हैं या उनकी संख्या इतनी कम है कि आवश्यकता- योजना का- एक बहुत छोटा अंश ही उनसे पूरा हो सका है। आवश्यकता एक लाख बुद्ध परिव्राजकों और इतने ही ईसाई मिशनरियों जितनी है, पर उनके निर्वाह प्रशिक्षण तक का सरंजाम जुट नहीं पा रहा है। नालन्दा तक्षशिला विश्व-विद्यालयों की आवश्यकता अनुभव की जा रही है पर उन्हें चलाने के लिए न कहीं हर्षवर्धन है न अशोक, न चन्द्रगुप्त न चाणक्य। फिर प्रचारकों को दूर देशों तक पहुँचाने वाले काफिले भी तो चाहिए। ऊँटों और नावों के बिना बोझ लादकर भूखे नंगे प्रचारक कितनी दूर तक चलें और अभावग्रस्तता से जूझ-जूझकर कितने दिन जियें? ऐसी अग्नि परीक्षा में कई बार आदर्श की तुलना में साधना की महत्ता मानने को जी करता है। फिर भी जीते जी मक्खी कैसे निगली जाय? धन के लिए गरिमा को कैसे और कहाँ तक गिराया जाय?

पहेली को अनबूझी- समस्या को अधसुलझा छोड़ दिया गया है और जैसे बने जैसे जन-जागरण का-जन शक्ति के उद्भव को अनिवार्य आवश्यकता को आकाशी वर्षा के सहारे पूरे होने की आशा पर आरम्भ कर दिया गया है। तीर्थ यात्रियों की प्रचार टोलियाँ पच्चीस न रहकर सौ की संख्या तक जा पहुँचे इसके लिए जो कुछ सम्भव हो सो सब कुछ किया जा रहा है।

इस संदर्भ में एक नई कठिनाई यह है कि मथुरा हरिद्वार के केन्द्रों के हाथ अब तक हिन्दी भाषी क्षेत्र पड़े है। यह उत्तर और मध्य भारत की छोटी परिधि में ही अपना आलोक वितरण सम्भव हो सका। जबकि समूचे भारत में नव चेतना उत्पन्न करने के लिए गुजराती, मराठी, बंगला, पंजाबी, उड़िया, असामी, तमिल, तेलंग, मलयालम, कन्नड़ आदि प्रमुख भाषाओं के लिए युग पुरोहितों को तैयार करने के निमित्त नालन्दा तक्षशिला विश्व विद्यालय जैसी निर्वाह और प्रशिक्षण व्यवस्था तत्काल अभीष्ट है। बात चल ही पड़ी तो सोचना यह भी होगा कि हिन्दू धर्म में पहल करने के उपरान्त फैलना अन्यान्य धर्म सम्प्रदायों के क्षेत्र में भी होगा। धर्मतन्त्र से लोक शिक्षण की रीति-नीति अपनाने के उपरान्त यह भी आवश्यक हो गया है कि विभिन्न धर्म की मान्यताओं, प्रथाओं और गाथाओं के आधार पर नवयुग की चेतना उत्पन्न करने वाले भी वर्ग समुदायों में काम करने के लिए उतारे जायँ। साम्प्रदायिक विलगाव वैमनस्य को एक केंद्र पर लगाने और एक कड़ी में गूंथने के अतिरिक्त और कोई व्यावहारिक मार्ग है नहीं। सब धर्मों को मिलाकर एक करना या एक मन्त्र पर सभी को एकत्रित करना वर्तमान मनःस्थिति और परिस्थिति को देखते हुए एक प्रकार से रंगीली कल्पना उड़ान भर है व्यावहारिक इतना ही है कि सभी धर्मों को यथावत् रहने देकर उन्हें बहुलता को एकात्मता के अपनाने के लिए सहमत किया जाय और रंग बिरंगे फूलों का एक महकता हुआ नयनाभिराम गुलदस्ता बनाया जाय।

भाषाओं और साम्प्रदायिक विलगाव को कोसते रहने भर से क्या काम चलने वाला है। कुएँ में उतरकर उसकी तली में जमी हुई सड़ी कीचड़ ऊपर खींचनी पड़ेगी अन्यथा विषाणु उपजते और हैजा, मलेरिया फैलाते ही रहेंगे। काँटे को काँटे से निकाला जाता है। हमें भाषाओं और साम्प्रदायिक क्षेत्रों में प्रवेश करना चाहिए। उनके बनकर उनकी बात सुननी और जहाँ विग्रह का विष जमा है उसे निरस्त करना चाहिए। सभी वर्गों के विभेदों को एक केन्द्र पर लाने के लिए घुसने और मनोभूमि को ध्यान में रखते हुए पिछड़ेपन को आगे धकेलने का प्रयत्न करना चाहिए। यही है यथार्थवादी समाधान। जिनके संबंध में बुद्धकाल के उपरान्त कहीं किसी ने कुछ किया ही नहीं। इस टूटी कड़ी को जोड़ने के कुछ कर गुजरने की जिम्मेदारी ही प्रज्ञा अभियान ने नहीं सम्भाली है वरन् उसकी योजनाबद्ध तैयारी भी कर ली है।

बढ़ती हुई आवश्यकताओं को देखते हुए शान्ति-कुँज की इमारत बहुत छोटी पड़ी गई है। बड़ी इमारत बनने की व्यवस्था बनने में बीस साल की प्रतीक्षा भी तो नहीं की जा सकती। जो साधन हाथ में है उन्हीं के सहारे श्री गणेश करना पड़ रहा है। बन्दूक आने तक डकैतों का प्रतिरोध रोके रहने से भी तो बात नहीं बनती। रोड़े पत्थर बरसाकर भी तो बहादुरी का परिचय दिया जा सकता है। शान्ति-कुँज के एक कक्ष को ही इस योग्य बनाया गया है कि उसमें भारत भर की भाषाओं का काम चलाऊ प्रशिक्षण देकर युग प्रवक्ताओं को उन-उन क्षेत्रों में इसी प्रकार भेजा जा सके जिस प्रकार हिन्दी भाषी क्षेत्रों में सफल प्रयास चल रहा है। इसका दूसरा पक्ष है सम्प्रदाओं की मान्यताओं, प्रथाओं एवं गाथाओं का अध्ययन कराते हुए नव सृजन में योगदान दे सकने योग्य जितने बीजाँकुर हैं उन्हें सींचना और ऐसी मनःस्थिति बनाना जिसमें एकता, सद्भावना और सहकारिता का सम्मिलित उद्यान फूलने फलने लगे। यह दोनों ही कक्षाएँ आरम्भ कर दी गई हैं। यह नालन्दा तक्षशिला की भावना एवं योजना का अनुकरण है। कह नहीं सकते, कि प्रयास को सुविस्तृत होने में कितना समय लगेगा।

युग परिवर्तन के कुछ मौलिक सिद्धान्त और प्रतिपादन हैं इन्हें सर्वप्रथम साहित्य रूप में प्रकाशित करना और मध्यवर्ती शिक्षित वर्ग तक पहुँचाना पड़ेगा। साम्यवाद और ईसाई धर्म को साहित्य प्रचार माध्यम अपनाने पर ही इतने कम समय में इतनी व्यापक सफलता मिली है। जर्मनी में मीनकैम्फ ने और चीन में लाल किताब ने जो हलचल उत्पन्न की उसे भुलाया नहीं जा सकता। मार्क्स और रूसो की लौह लेखनी ने सिद्ध किया कि बन्दूक की नली से नहीं क्रान्ति उँगलियों से पकड़ी जाने वाली कलम और दिल के फफोलों की स्याही से भी उबल सकती है। प्रज्ञा साहित्य का सृजन इसी स्तर पर हो रहा है। यों लिखा तो पिछले दिनों भी बहुत कुछ गया है या अब एक फोल्डर पुस्तिका हर दिन लिखे जाने और प्रकाशित होकर झोला पुस्तकालयों द्वारा जन-जन तक पहुँचाने की जो नये सिरे से नई व्यवस्था बनी है उसने तो नई चेतना जगाई और नई हलचल उत्पन्न की है। चालीस पैसा मूल्य की यह पुस्तिकाओं को लिखने, छापने और पाठकों तक हाथों-हाथ पहुँचाने का ऐसा तन्त्र बना है जिसे अपने ढंग का अभूतपूर्व ही कहा जा सकता है।

अब इस प्रस्तुतीकरण को अन्यान्य भाषाओं तक पहुँचाने की आवश्यकता पूरी करने के लिए जितना सम्भव हो रहा है तत्काल किया जा रहा है। इन नये फोल्डरों का अंग्रेजी, गुजराती, पंजाबी, मराठी, बंगला, उड़िया, तामिल, तेलगू, कन्नड़, मलयालम भाषाओं में अनुवाद और प्रकाशन के लिए नये उपाय सोचे और नये ताने-बाने बुने जा रहे हैं। अनुवादकर्ता, पूँजी, प्रचारक का त्रिगुट संगम की अभीष्ट बना सकेगा साधन हाथ में हो तो तुगलक भी आये दिन नई राजधानियाँ बनाता, बदलता रहता था, पर हैरत उन पर की जानी चाहिए जो स्वर्ग से गंगा को धरती पर उतारने के लिए भागीरथी हठवादिता या तप साधना का परिचय देते हैं। युग साहित्य के सृजन और विस्तार की प्रस्तुत योजना को गिलहरी द्वारा समूह को परों की बाजू से पाटने जैसा दुस्साहस कहा जा सकता है। इतने पर भी किसी को अविश्वास या उपहास नहीं करना चाहिए। आखिर समुद्र का पुल बाँधा तो गया ही था। भले ही उसे गिलहरी ने नहीं किसी अन्य ने बाँधा। कई बार सत्संकल्पों में भी इतना प्रचण्ड चुम्बकत्व होता है कि वे कार्यान्वित होने के लिए जब मचलते हैं तो साधनों को खिंचते घिसटते सिर पर वस्त्रों के बण्डल की तरह द्रौपदी तक पहुँचना पड़ता है।

बात प्रकाशन की ही चल पड़ी तो अब इसी सिलसिले में एक नया कदम यह है कि सभी भाषाओं की प्रचलित पत्र पत्रिकाओं में मिशन की विचारधारा को छपाने के लिए नया कदम उठाया जाय। अब तक यह कार्य मात्र मिशन की पत्रिकाएँ ही करती रही है। अब अन्यान्य पत्र पत्रिकाओं का सहारा लेकर कई लाख की अपेक्षा कई करोड़ की युग चेतना से अवगत अनुप्राणित करने का प्रयास चल पड़ेगा। इस संदर्भ में जहाँ भाषाई विद्यालय की स्थापना की गई हैं, वहाँ अनुवादक भी ढूंढ़े जा रहे हैं और लेखों को सही लिपि में लिखे जाने की पत्रकार परम्परा के अनुरूप उन-उन भाषाओं के टाइप राइटर उपलब्ध करने का भी प्रयास हो रहा है। कुछ भाषाओं के नये पुराने टाइप राइटर खरीद भी लिये गये हैं। कुछ सुविधानुसार अगले दिनों खरीदें जाते रहेंगे। भाषाओं विद्यालयों के लिए पाठ्य पुस्तकें, शब्द कोष आदि की व्यवस्था के साथ-साथ ही टाइप राइटरों का संग्रह एवं अभ्यास भी एक कार्यक्रम है। प्रचारक जहाँ पहुँचे, उन भाषाओं का उन्हें साहित्य भी तो प्रस्तुत करना होगा। इसलिए लेखनी और वाणी का समन्वत अनिवार्य हो गया है। युग पुरोहितों को प्रवचन देकर ही नहीं चल देना है पर संपर्क क्षेत्र के उस प्रतिपादनों को स्वाध्याय के सहारे चिन्तन मनन का विषय बनाने की ललक भी पीछे छोड़ना है। स्वाध्याय और सत्संग को परस्पर पूरक-अन्योन्याश्रित माना जाता रहा है अस्तु दोनों कदम साथ-साथ उठते चलने में मंजिल तक पहुँचने की बात बनती है। दो पहियों के बिना किसी गाड़ी का चल सकना सम्भव नहीं होता।

लाभदायक न होने से अन्यान्य प्रकाशकों को पुस्तक विक्रेताओं को मिशन के साहित्य में कोई रुचि नहीं। यदि उनका उचित शर्तों पर सहयोग मिला होता तो न तो स्वयं का प्रकाशन तन्त्र खड़ा करना पड़ता और न प्रचार विक्रय के लिए ज्ञानरथों की-झोला पुस्तकालयों की-अपनी स्वतन्त्र व्यवस्था बनानी पड़ती। विवशता ही है जो सहयोग के अभाव में एकाकी चल पड़ने वाले रविन्द्र उद्बोधन का आश्रय लेती और “एकला चलोरे” का साहस जुटाती है।

लेखनी वाणी के उपरान्त जन-मानस को आन्दोलित करने की प्रक्रिया ‘कला’ ही रह जाती है। लेखनी को गंगा-वाणी को यमुना और कला को सरस्वती की उपमा दी जाती रही है और उसका त्रिवेणी तीर्थराज कहा जाता है। “काक होहि पिक—बकहु मराला” जैसा काया-कल्प इसी संगम के अवगाहन में सम्भव होता है। कला का आश्रय नटराज का डमरू नृत्य, बैण्ड वादन का रास, नारद की वीणा झंकार, चैतन्य का कीर्तन, मीरा के घुंघरू न जाने कितनों को रोमांचित गदगद पुलकित भाव विभोर एवं परिवर्तित करते रहें हैं। युग चेतना की पृष्ठभूमि में कला का भी किसी न किसी प्रकार योगदान रहना चाहिए।

पिछले दिनों टेप रिकार्डर और स्लाइड प्रोजेक्टर के माध्यम से ही यह प्रयास किसी प्रकार किया जाता रहा है। टेप रिकार्डर के मिनी रेडियो और स्लाइड प्रोजेक्टर को मिनी सिनेमा कहकर परिजन किसी प्रकार मन बहलाते रहे हैं। अब इस दिशा में कैसेट प्रवचनों और संगीतों का एक सुनियोजित सिलसिला आरम्भ किया जा रहा है। इनसैट उपग्रह का नया आधार बनने से अगले दिनों टेलीविजन सर्वसुलभ होगा। इस माध्यम से छोटे बड़े ‘वीडियो फिल्म’ प्रस्तुत किये जा सकेंगे और उनके द्वारा सतयुग की वापसी का स्वरूप दर्शाने और उसके लिए तद्नुरूप जन-मानस विनिर्मित करने की नई सम्भावना प्रकट हुई है। अस्तु कला क्षेत्र में नये उत्साह के साथ प्रवेश करते हुए कैसिड निर्माण एवं वीडियो फिल्मों की लम्बी शृंखला चलाने का निश्चय किया गया है। तद्नुरूप गायक वादक अभिनयकर्ताओं से संपर्क साधने और उनके उपकरण खरीदने की अर्थ व्यवस्था बनाने का ताना-बाना बुनना आरम्भ कर दिया गया हैं। बन पड़ा तो ऐसा नाटक मंच भी इसी योजना के अंतर्गत बन सकता है। जो दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन की क्रान्तिकारी अभिव्यक्तियों को रंगमंच पर प्रस्तुत करते हुए जन-जीवन में प्राण फूँक सके। कुरीति विरोधी सम्मेलनों में बिना दहेज के सामूहिक विवाहों का आयोजन हुआ करे और उसी अवसर पर मिशन का नाटक रंगमंच भी पहुँचा करे। चित्र प्रदर्शनी दिखाया करे। यह योजना खर्चीली और झंझट भरी तो है पर युग परिवर्तन भी ऐसा सरल कहाँ है जो जादू की छड़ी घुमाते ही चमत्कार बनकर प्रकट हो सके। इसके लिए न जाने कितने तन्त्र खड़े करने पड़ेंगे। उन्हीं झंझटों में एक कला मंच भी सम्मिलित करना पड़ेगा। कला के एक अंग चित्रकला को भी अछूता नहीं छोड़ा जा सकता। अभी तो मात्र आदर्श वाक्यों के स्टीकर पोस्टर ही इस प्रयोजन की पूर्ति कर रहे हैं। अगले दिनों कैलेंडरों के माध्यम से महान व्यक्तियों और महान घटनाओं की छवियाँ घर-घर पहुँचाने की योजना कार्यान्वित हो सकती है। निजी फिल्में बनाने की योजना तो बहुत बड़ी है। उसे तो कोई मिल खड़े करने वाला तन्त्र ही हाथ में ले सकता है। नितान्त आवश्यक कार्यों की पूँजी जुटाने के उपरान्त फिल्म बनाने जैसी व्यवस्था बन सकेगी। इसकी आशा वर्तमान सूत्र संचालनों के जीवन काल में बन पड़ने की सम्भावना कम ही है। फिर भी इस आशा को जीवन्त रखा जाना चाहिए कि शिक्षा और कला के दो महान माध्यमों को कोई न कोई कभी न कभी अवश्य ही हाथ में लेगा और समय की माँग पूरी करेगा।

उपरोक्त शुभारम्भों का निश्चित रूप से जागृत आत्माओं द्वारा स्वागत होगा। नये कदमों के नये दुस्साहस पर हर्ष भी व्यक्त किया जायगा और प्रशंसा प्रोत्साहन की भी कमी न रहेगी। पर बात इतने से बनती कहाँ है? आकाश से स्वर्ण मुद्राएँ बरसने वाली नहीं है। सहयोगियों की सेना कहीं से भी साज-सज्जा बनाकर चल पड़ने वाली नहीं है। उपरोक्त सभी काम सुयोग्यों का श्रम समय और सम्पन्नों का उदार सहयोग माँगते हैं। पर यह भी एक विडम्बना है कि इतने बड़े संकल्प के सहयोगियों में मूर्धन्य सुयोग्यों और थैली वाले श्रीमन्तों का एक भी नाम नहीं है। यह काम पूरा होना है तो फिर युग प्रहरियों को ही न केवल समर्थक रहना होगा अपितु समयदान अंशदान के लिए भी अपना ही मन टटोलना पड़ेगा। जो टटोलेंगे वे अपढ़ हजारी किसान और निर्धन पिसनहारी से कम नहीं अधिक ही महाकाल की झोली में अपनी अनुदान श्रद्धांजलि अर्पित कर सकेंगे।


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