साहस ही सफलता के लक्ष्य तक पहुँचता है।

December 1983

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जीवन की महत्वपूर्ण विभूतियों में एक साहस भी है। इसे शरीर बल, मनोबल, धनबल की तुलना में भी प्रगतिशीलता एवं सफलता के लिए अधिक आवश्यक माना गया है। डरपोक प्रकृति के, कायर, भयभीत, आशंकाग्रस्त व्यक्ति अवसर रहने पर भी असमंजस की स्थिति में पड़े रहते हैं और लाभ हानि की जोड़-बाकी करते कराते ऐसे ही दिन गुजारते रहते हैं। कभी एक कदम आगे बढ़ने की हिम्मत हुई तो दूसरे ही क्षण दो कदम पीछे हटने की सूझती है। जबकि साहसी व्यक्ति आत्मविश्वासपूर्वक आगे बढ़ते हैं और खतरों से खेलते हुए नाव को भँवर वाली नदी पार करते हुए इस पार से उस पार तक धकेल ले जाते हैं। ऐसे प्रसंगों में उसका सच्चा साथी और सहायक एकमात्र साहस ही होता है। इसकी कमी न पड़े तो कठिनाई को परास्त करने से लेकर आवश्यक साधन और सहयोग जुटाने की बात भी किसी न किसी प्रकार बनती ही चलती है।

अपराधों और कुकर्मों के लिए अपनाया गया दुस्साहस ही दानवी कहा और भर्त्सना से लेकर आक्रोश अपनाकर कमर तोड़ देने योग्य माना गया है। मर्यादाओं का व्यतिक्रम करने वाले दुष्ट दुरात्मा जिस आततायी आतंक का सहारा लेते हैं उसमें भी साहस का पुट तो रहता है, पर अनीति के साथ जुड़ जाने से उसे दुष्ट दानवी कहा जाता है। यह ऐसे दुरुपयोग की बात हुई जिसमें अमृत भी विष बन जाता है।

सामान्यतः सत्प्रयोजनों को अपनाने संकल्प को बल देने वाले साहस की अनिवार्यतः आवश्यकता पड़ती है। पानी नीचे की ओर बहता है। उसे कुएँ से ऊपर खींचना हो तो अतिरिक्त बल लगाना पड़ता है। इस अतिरिक्त बल को सत्साहस ही कहना चाहिए जिसके बल पर कठिनाइयों, अवरोधों तक से जूझ सकना सम्भव हो पाता है। प्रगति के लिए पुराने ढर्रे को तोड़ना और नये को अपनाना पड़ता है। इस परिवर्तन को बिना अनख-आलस्य के सम्पन्न कर सकना सत्साहस का ही काम है। यही वह ऊर्जा है, जिसके सहारे उत्कृष्टता की दिशा में जीवन चक्र को अग्रगामी कर सकना बन पड़ता है।

कितने सामान्यों ने आश्चर्यचकित करने वाले-जोखिम भरे काम इसी के सहारे कर दिखाये। समुद्र लाँघने में इसी का अवलम्बन देकर हनुमान ने छलाँग लगाई और एक अनोखा कीर्तिमान स्थापित किया। पार होने न होने के असमंजस में उधेड़बुन करने की स्थिति जामवन्त के प्रोत्साहन से दूर हुई तो फिर असम्भव समझी जाने वाली बात सम्भव हो गई। वीर हम्मीर चौदह वर्ष की आयु में विकराल युद्ध मोर्चे पर स्वेच्छापूर्वक लड़ने के लिए पहुँचा था। अभिमन्यु जब चक्र-व्यूह बेधने चले तब उनकी आयु भी लगभग इतनी ही थी। चौरासी घावों से जर्जर राणा साँगा मर्मवेधी पीड़ा की परवाह न करके शरीर में प्राण रहते लड़ते ही रहे, पीछे हटने का नाम भी नहीं लिया। शरशैय्या पर पड़े भीष्म पितामह की तरह वे भी साहस के बल पर ही एक ओर वेदना तो दूसरी ओर कर्त्तव्य निष्ठा के साथ जूझते रहे। दुराचारी कीचक को अपने संबंधियों का समर्थन भी प्राप्त था। एकाकी प्रवास में निहत्थे भीम उससे भिड़ गए और अनाचारी का कचूमर निकाल कर ही पीछे हटे।

चित्तौड़ की आत्मदाह करने वाली सती रानियों का जौहर विश्व विख्यात है। हाड़ा रानी ने मोहग्रस्त पति को मोर्चे पर जाने के लिए अपना सिर काटकर ही उसके सामने रख दिया था। रानी दुर्गावती ने समर्थ आततायी को किस प्रकार नीचा दिखाया, इन प्रसंगों की चर्चा सत्साहस के इतिहास लेखक अनन्त काल तक करते रहेंगे। लक्ष्मीबाई रानी का नगण्य से साधनों की परवाह न करते हुए अनेक गुनी सामर्थ्य के धनी अंग्रेजों से किस प्रकार लड़ी। टूटी पर झुकी नहीं। इस पराक्रम की यश गाथा लिखने-लिखाने में एकमात्र साहस ही उभरता दीखता है।

मुगलों के इतने बड़े साम्राज्य के साथ जूझने में गुरु गोविन्दसिंह, बन्दा वैरागी तथा उनके पूर्ववर्ती परावर्ती व्रतधारियों का एक बड़ा परिकर किस प्रकार जूझा इसे चींटी हाथी की लड़ाई में चींटी की विजय गाथा के समतुल्य माना जा सकता है। सिकन्दर ने जब भारत पर आक्रमण किया तो उसके सैन्यबल से हतप्रभ होकर अन्य राजा पराजय स्वीकारते और आधीन होते चले गये। किन्तु पौरव ने अन्त तक जूझते रहने का निश्चय किया। कदम-कदम पर उसने लोहा लिया उस महाबली के दाँत खट्टे कर दिये। पौरव के पौरुष से हतप्रभ होकर अन्ततः सिकन्दर को भी भारतीय वीरता का लोहा मानना पड़ा और उसने आगे बढ़ने का विचार छोड़कर सेना को वापस लौटा दिया। तात्याटोपे, पेशवा प्रभृति शूरवीरों ने अंग्रेजों से कैसी रणनीति अपनाकर छक्के छुड़ाये, इसे पढ़ने-सुनने वालों के मस्तक गर्व-गौरव से ऊँचे उठ जाते हैं। लाजपतराय की जघन्य हत्या का बदला चुकाने वाले भगतसिंह और जलियावाला बाग का ‘प्रतिशोध लेने वाले ऊधमसिंह नामक युवकों ने एकाकी साहस के बलबूते कितना बड़ा खतरा उठाया। इसका विवरण सुनने वालों की भुजाएँ फड़कने लगती हैं। शिवाजी, राणा प्रताप और छत्रसाल को अपने स्वल्प साधनों का भली प्रकार ज्ञान था। फिर भी वे महाबली शत्रु पक्ष पर इस प्रकार टूटे जिस प्रकार बाज कबूतर पर टूटता है। यदि वे बल और साधनों की समता तौलकर लड़ने की योजना बनाते तो कदाचित उन्हें वैसा सोचते भी न बन पड़ता जैसा कि उन्होंने आदर्शवादी साहस को सब कुछ मानते हुए कर दिखाया। वस्तुतः साहस एक ऐसी विभूति है, जिसका अवलम्बन लेकर आदि काल से मानव असम्भव को सम्भव करता आया है। जो इसकी महत्ता को समझ लेता है वह लक्ष्य प्राप्त करके रहता है।

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डी. मैकडॉनोल्ड ने अपने ग्रन्थ “द पर्सनालिटी एक्सप्लोर्ड” में लिखा है-“कौन क्या करता और कितना सफल होता है, इस बात का महत्व नहीं। महत्व इस बात का है कि किसने कितने उच्च आदर्श अपनाने में सत्यनिष्ठा को आधार बनाया। जहाँ इस स्तर की मजबूती होगी वहीं अवरोधों से लड़ने ओर लम्बे समय तक अविचल भाव से लक्ष्य तक चलते ही रहने का साहस भरा विश्वास पाया जाएगा।”

समृद्धि संबंधी सफलताएँ तो चतुर परिश्रमी और साधन सम्पन्न लोगों को भी मिलती रहती हैं पर वह प्रगति जो व्यक्तित्व को सुसंस्कृत और परिणाम से संपर्क क्षेत्र को समुन्नत बना सके, मात्र उन्हीं को उपलब्ध होती हैं जो सिद्धान्तों और आदर्शों के प्रति गम्भीरतापूर्वक निष्ठावान रहते हैं। आत्म विश्वास शब्द का उपयोग तो कई बार कई प्रसंगों में होता रहता है पर वस्तुतः उसे आत्मिक मन्तव्यों के प्रति निष्ठावान, होने का परिचय देने के लिए ही प्रयुक्त किया जाना चाहिए। टिकाऊ आत्मविश्वास उपलब्ध भी उन्हीं को होता है जो उत्कृष्टता को अपनाते और उस पर सुदृढ़ रहने के लिए अवरोधों की परवाह न करने का निश्चय किये होते हैं।

साहसी कठिन काम करने वालों को ही कहते हैं। ऐसे तो क्रूर कर्म करने वाले आतंकवादी भी दुस्साहसी कहे जा सकते हैं। पर सच्ची साहसिकता उस रीति-नीति को अपनाने में है जिसे सामान्य जन घाटा पड़ने या सहयोग न मिलने के भय से अपनाने के लिए सहमत ही नहीं होते। उच्चस्तरीय कार्यों को सम्पन्न करने के लिए एक ही आधार है-व्यक्तित्व की पवित्रता और प्रखरता। उसे उगाने में ऐसे उपाय अपनाने पड़ते हैं और जो न अभ्यास में हैं न प्रचलन में। उन्हें परिपक्व करने के लिए आत्मानुशासन अपनाने और आत्म परिष्कार के अन्तः क्षेत्रीय दुस्साहस करने पड़ते हैं।

इस कठिन मार्ग पर कौन चले? जिन्हें एकाकी चल सकने-अपने विवेक को अन्तिम निर्धारक मानने प्रचलनों के प्रभाव दबाव से बचे रहने का जिनमें अतिरिक्त स्तर का साहस हो वे ही महानता के पथ पर अन्त तक चलते रह सकते हैं। इस प्रकार के निश्चय करने और उन्हें निभाने में जो अंतःप्रेरणा काम करती है उसी को ‘आत्म विश्वास’ कहा जाना चाहिए। आत्मविश्वास वह विभूति

है जिसे उगा लेने वालों के लिए व्यक्तित्व को महान बनाने और उच्चस्तरीय सफलता पाने में फिर कोई बड़ी कठिनाई शेष नहीं रह जाती। साहस एवं आत्मविश्वास एक-दूसरे के पर्याय ही तो हैं।

मार्टिन लूथर को योरोप में फैले पोप पाखण्ड से जूझना पड़ा और वही कार्य स्वामी दयानन्द ने भारत में कर दिखाया। चारों ओर से शत्रुओं और प्रतिपक्षियों के आक्रमण वे सहते रहे किन्तु यथार्थता को अपनाते हुए अपने पथ पर अन्तिम साँस तक अड़े रहे। ईसा को भी इसी प्रकार अपनी स्पष्टवादिता के लिए दण्ड भुगतना पड़ा। तो भी उन्होंने प्राण गँवाने की तुलना में सत्य के प्रति निष्ठावान बने रहना ही उचित समझा। ऐसा अजस्र आत्मबल प्रदान करने में सदा सत्साहस ही समर्थ रहा है। फ्रांसीसी स्वतन्त्रता की अग्रदूत कुमारी जोन ऑफ आर्क के बलिदान ने अपने समय में देर भर को बलिदानी आवेश से ओत-प्रोत कर दिया था। अविज्ञात अमेरिका महाद्वीप कोलम्बी यात्रा में कोलम्बस किस प्रकार अपना जलयान धकेलता चला गया और जिन्दगी मौत से जूझता हुआ लक्ष्य तक पहुँचा इसकी कथा गाथा दुर्बल मन वालों से भी एक बारगी साहस उभारती है।

दुर्गम समुद्रों को पार करने गगनचुम्बी गिरि शिखरों पर चढ़ दौड़ने वाले, लम्बे रेगिस्तानों और दलदलों को पार करके एक क्षेत्र से दूसरे तक पहुँचने वालों के पराक्रम देखते ही बनते हैं। जिन लोगों ने उत्तर ध्रुव की सर्वप्रथम यात्रा की उनके घटिया साधनों और जोखिम भर असम्भव जैसे लगने वाले कार्यों की कोई संगति नहीं बैठती। नैपोलियन की योजनाओं में तो दुस्साहस के अतिरिक्त और कुछ था ही नहीं। उसने जुआरी की तरह अपने दाँव पर सब कुछ लगा देने में कभी असमंजस नहीं किया। छोटी परिस्थितियों में रहकर जिन्होंने क्रमिक उन्नति की-प्रतिकूलताओं को अनुकूल बनाया और सफलता के इतने ऊँचे शिखर पर पहुँचे जिस पर कि सहसा विश्वास नहीं होता। ऐसे लोगों ने अमेरिका के दो राष्ट्रपतियों का-लिंकन और वाशिंगटन का नाम बड़े गौरव के साथ स्मरण किया जाता है। उनके पास सत्साहस ही प्रधान अवलम्बन था।

यह जाना चाहिए कि परिस्थितियाँ किसी के भी साथ सदा अनुकूल ही नहीं रह सकती। क्योंकि वे किसी एक वर्ग के द्वारा या एक वर्ग के लिए विनिर्मित नहीं होती। वह साझे का उत्पादन है। जिसमें मनुष्य ही नहीं, अन्य प्राणी तथा प्रकृति के अन्तरिक्ष प्रेरित प्रवाह भी सम्मिलित हैं। ऐसी दशा में सदा अनुकूलता की आशा रखे रहना व्यर्थ है। साथ ही अनावश्यक और हानिकारक भी। उचित यह है कि अपनी साहसिकता और सहन शक्ति बढ़ाई जाय। जो अनिवार्य है उसे धैयपूर्वक सहन करना ही बुद्धिमत्ता है अथवा हड़बड़ी में गलत निर्णय होंगे साथ ही संकट बढ़ेंगे। जो सम्भव है उसके लिए उपाय सोचने और प्रयास करने में कमी न रहने दी जाय। दोनों ही दशाओं में सन्तुलन बनाये रहना आवश्यक है। ऐसा सन्तुलन जो कठिनाइयों से डरता नहीं वरन् अपनी प्रतिभा को उनसे निपटने में जुटा देता है-साहस कहा जाता है। साहस वह अस्त्र है जिसके सहारे हर प्रतिकूलता से इस या उस प्रकार निपटना सम्भव हो सकता है।


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