समुद्र की ओर बही जा रही नदी अपने नाम और रूप को त्यागकर समुद्र में विलीन हो जाती है, उसी तरह ज्ञानी नाम-रूप का त्याग कर दिव्य पुरुष में लीन हो जाते हैं। -— मुंडकोपनिषद्
मनुष्य ने अपने विकास क्रम में लम्बी यात्रा की है इसमें उसे बहुत कुछ मिला भी है। प्रकृति का अनुसंधान करते-करते वह अन्यान्य प्राणियों की तुलना में इतना समृद्ध, समर्थ और समुन्नत बना है। उस प्रक्रिया को मात्र भौतिक क्षेत्र तक ही सीमित न रखकर चेतना की रहस्यमयी परतों को समझने का भी प्रयत्न चलना चाहिए। अनुसंधान का यह क्षेत्र और भी अधिक महत्वपूर्ण है। अदृश्य जगत के साथ घनिष्ठता स्थापित कर सकना प्रगतिशील एवं खोजप्रिय मनुष्य के लिए सम्भव नहीं है। दुर्भाग्यों का कारण और निवारण समझा जाना चाहिए और सौभाग्यों की उपलब्धि का मार्ग खोजा जाना चाहिए। इसके लिए और आध्यात्मिक अनुसंधानों में हमारी अभिरुचि और तत्परता की अधिक बढ़ोतरी आवश्यक है।