विकलाँगता प्रगति में बाधक न बन सकी

December 1983

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प्रकृति ने जन्मजात अपंग पैदा करके उस बालक के साथ निर्मम अत्याचार किया था। पर वह उन अपंगों से भिन्न था जो अपनी दयनीय स्थिति से सदा के लिए निराश होकर आशाजनक उज्ज्वल भविष्य की कल्पना करना तक छोड़ देते हैं। छः सात वर्ष की अवस्था में वह बच्चों को पढ़ाने के लिए घर से होकर गुजरने वाली सड़क से आते-जाते देखता तो उसका मासूम हृदय बिलख-बिलख कर रोने लगता। वह भी अन्य बालकों की तरह पढ़ना चाहता था पर अपनी बेबसी पर मन-मसोस कर रह जाता। अपंगता की हालत में स्कूल कैसे जायेगा, उसे कौन पढ़ायेगा, यह सोचकर उसकी आन्तरिक इच्छा दबकर रह जाती।

निकटवर्ती विद्यालय के एक अध्यापक नित्य ही पढ़ाने के लिए उसी मार्ग से आते-जाते थे। बालक उन्हें जानता था। एक दिन जैसे ही अध्यापक महोदय उधर से गुजरे, छोटे बच्चे ने उनका अभिवादन किया। सड़क के किनारे बैठा देखकर उनने पूछा-कहो बेटे! चुपचाप यहाँ क्यों बैठे हो? सहानुभूति का सम्बल मिल जाने से उसके उद्गार फूट पड़े-“श्रीमान! मेरा मन पढ़ने को बहुत करता है। पर मुझे कौन पढ़ायेगा?

उस मासूम की बातों से अध्यापक महोदय का हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने आश्वासन दिया कि अगले दिन से वह तैयार रहे, वे स्वयं उसे पढ़ायेंगे। दूसरे दिन से शिक्षक महोदय बालक को कन्धे पर बिठाकर विद्यालय ले जाते। वह दूसरे लड़कों के साथ पढ़ता तथा शाम को पुनः उनके सहयोग से घर आ जाता। अध्यापक एवं शिक्षक के भावभरे सहयोग से बालक का आरम्भिक शिक्षण पूरा हुआ।

संसार में दुष्टों की कमी नहीं है पर सज्जनों एवं सहृदयता के धनी व्यक्तियों का भी सर्वथा लोप नहीं हुआ है। उनके कारण ही मनुष्यता जीवित है। समय-समय पर ऐसे सहृदय व्यक्तियों का सहयोग भी मिलता है। कुछ ऐसा ही सुयोग उस अपंग बालक के साथ बिठा। दिल्ली के इरविन अस्पताल के एक डॉक्टर दम्पत्ति नैनीताल के भीमताल में छुट्टियाँ बिताने आये। नौ कुचिया ताल के निकट उनकी दृष्टि इस अपंग बालक पर पड़ी। जाने कौन-सी प्रेरणा उठी कि उस बालक के परीक्षण करने से डॉक्टर अपने को नहीं रोक सके। निरीक्षण में उन्होंने पाया कि शल्य चिकित्सा के द्वारा बच्चे को चलने योग्य बनाया जा सकता है। उन्होंने बालक एवं उसके अभिभावक से बातचीत की। स्वयं सब खर्च वहन करके डॉ. कोहली ने इरविन अस्पताल में रखकर बालक का उपचार आरम्भ किया। दर्जनों आपरेशन हुए जिसके फलस्वरूप बालक लाठियों के सहारे चलने-फिरने योग्य हो गया।

आकस्मिक इस सहयोग को परमात्मा की कृपा मानकर वह किशोर पुनः पढ़ाई में जुट गया। गाँव के निकटवर्ती इंटर कॉलेज में दाखिला लेकर उसने आगे की पढ़ाई आरम्भ कर दी। इण्टर परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् नैनीताल के एक कॉलेज में प्रवेश लिया। पढ़ने के लिए वह नित्य डेढ़ किलोमीटर पहाड़ी-ऊबड़-खाबड़ रास्ते को पार करके आता जाता। बी.ए. करने के बाद अर्थशास्त्र में उसने मास्टर डिग्री प्राप्त की। अब वह नैनीताल के प्रशासकीय प्रशिक्षण संस्थान में एक कर्मचारी के रूप में कार्यरत है।

परिस्थितियों का-अभावों का रोना रोते रहने वाले लोगों को इस युवक से प्रेरणा लेनी चाहिए तथा बारम्बार यह विचार करना चाहिए कि क्या उनकी स्थिति सचमुच ही इतनी दयनीय गयी-गुजरी है कि वे आगे बढ़ने के लिए कुछ नहीं कर सकते। शरीर एवं बुद्धि से सक्षम होने पर भी जो ऐसा सोचते अथवा कहते हैं स्वाभाविक रूप से उनकी नियत पर शक होता है। आन्तरिक आकाँक्षा हो तो आगे बढ़ने तथा ऊँचे उठने के लिए हजार रास्ते निकल सकते हैं पर जिनने हार मान ली उनके लिए सचमुच ही प्रगति के रास्ते बन्द हैं। उनको दयनीय स्थिति से कोई देवता भी नहीं उतार सकता।


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