देव संस्कृति की गरिमा (kavita)

December 1983

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देवत्व को बचाने संघर्ष भी किये हैं। हमने दधीचि बनकर, निज प्राण तक दिये हैं॥1॥

अज्ञान के तिमिर में जब जग भटक रहा था। विज्ञान की प्रगति का पहिया अटक रहा था॥

तब ज्ञान के दिवाकर हमने उगा दिये है। हमने दधीचि बनकर, निज प्राण भी दिये हैं॥2॥

संस्कृति महान अपनी, थे विश्व के गुरु हम। रुकता जहाँ जमाना, होते वहाँ शुरू हम॥

अपने लिए न केवल, जग के लिए जिए हैं। हमने दधीचि बनकर, निज प्राण भी दिये हैं॥3॥

भूलें न आत्म गौरव की उस परम्परा को। बंजर नहीं बनायें, इस शस्यश्यामला को॥

चैतन्य भी दिये हैं, हनुमान भी दिये हैं। हमने दधीचि बनकर, निज प्राण भी दिये हैं॥4॥

विकृत विचार-विष से फिर जल रही मनुजता। देवत्व डर रहा है, खुश हो रही दनुजता॥

विष से उसे बचाने, संकल्प शिव किये हैं। हमने दधीचि बनकर, निज प्राण भी दिये हैं॥5॥

फिर से मनुज हृदय में देवत्व हम भरेंगे। फिर स्वर्ग इस धरा पर हम अवतरित करेंगे॥

साहस नहीं मरेगा, संजीवनी पिये हैं। हमने दधीचि बनकर, निज प्राण भी दिये हैं॥6॥

*समाप्त*


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