समष्टि की साधना का तत्व दर्शन

December 1983

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प्रभु स्मरण को ब्रह्म विद्या अथवा तत्वदर्शन कहते हैं। प्रभु अथवा भगवान को सही शब्द देना हो तो परमात्मा नाम से पुकारा जा सकता है। इस महातत्व को आत्मसात् करना ही ब्रह्म विद्या का लक्ष्य होता है। परम को व्यापकता एवं उत्कृष्टता दो नामों से समझा जा सकता है। परमात्मा की व्यापकता जितनी उसके अंश मनुष्य के समझने व विचार करने योग्य है, उसे समष्टि कहते हैं। यही विराट् है। इसी का दिग्दर्शन अर्जुन को, यशोदा का, कौशल्या को ज्ञान चक्षुओं द्वारा कराया गया था। ‘स्व’ का ‘पर’ के साथ एकात्म भाव विकसित हो यही विराट दर्शन का सार तत्व है।

उत्कृष्टता परम का दूसरा पर्याय है। अर्थात् भावना एवं विचारणा में श्रेष्ठता का वरण। सद्भावना सद्विचारणा, सत्प्रवृत्ति अपनाना-आदर्शों का परिपालन करना ही परमात्मा की उपासना का लक्ष्य है, यह भाव इस शब्दार्थ से प्रकट होता है। संक्षेप में भगवान को सत्प्रवृत्तियों का समावेश करता है वह उसी अनुपात में ईश्वर पारायण माना जाता है। समाज में सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ाना, दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन हेतु प्रखर पुरुषार्थ करना एवं इस हेतु स्वयं को उस योग्य बनाना परमात्मा की विश्वात्मा की विराट् की आराधना ही है।

यदि उस महान के साथ अपने क्षुद्र की घनिष्ठता अभीष्ट है और तद्रूप बनने के रूप में चरम प्रगति तक पहुँचने की अन्तःप्रेरणा उमंगे तो फिर पूजा उपचार से ऊंचे उठकर परमात्मा के संबंध में यथार्थवादी निर्धारण अपनाना चाहिए। यही योग साधना है, युगानुकूल उपासना आराधना है।


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