“तमेव विद्वान न विभाय मृत्योः”

December 1983

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विशालकाय वृक्ष का सारा वैभव उसके सूक्ष्मतम घटक बीज में निहित है। अनुकूल वातावरण पाते ही ये विशेषताएँ प्रकट होने लगती हैं। जीव एवं परब्रह्म के मध्य का तारतम्य भी कुछ इसी प्रकार का है। परब्रह्म की समस्त विशेषताएँ बीज रूप में अविनाशी अंश जीव में समाई हुई है। एक ही ज्योति ज्वाला के अनेकानेक स्फुल्लिंगों को जीव के अन्दर प्रकाशित होते देखा आ सकता है। इसीलिये उपनिषद्कार ने कहा है कि “वह है तो एक नियामक सत्ता लेकिन उसे लोग भिन्न-भिन्न रूपों में जानते-समझते हैं।”

पेड़ पादपों में जीवन तो है पर विकसित चेतना नहीं है। प्रकृति से उपलब्ध सम्पदा मात्र से ही वे सन्तुष्ट रहकर जीवित भर बने रहते हैं। मनुष्य की स्थिति वृक्ष वनस्पतियों तथा अन्याय जीवों से इस संबंध में भिन्न है। परम सत्ता का ही एक अंग होते हुए भी उसके अन्दर वह सामर्थ्य हैं कि बिना प्रकृति के सहयोग के भी विकास की ओर अग्रसर हो सके। इच्छा, आकाँक्षा, बुद्धि के अतिरिक्त संकल्प शक्ति के रूप में उसे एक ऐसी प्रचण्ड शक्ति सामर्थ्य प्राप्त हैं, जिसके सहयोग से वह न केवल प्रकृति को अपने अनुकूल बना सकता है, वरन् अपनी चेतना को उच्चतम सोपानों तक पहुँचा सकता है। यह एक सच्चाई है कि जिसकी चेतना जितनी अधिक विकसित होगी उतनी ही उसकी संकल्प-शक्ति भी प्रखर होगी। यह अतिरिक्त वरदान निस्सन्देह जीवों में एक मात्र मनुष्य को ही मिला हुआ है। वैदिक ऋचाओं का उद्घोष है “अयं खलु क्रतुमयः पुरुषः” अर्थात्-“यह पुरुष अपनी विचारणाओं की ही प्रतिमूर्ति है”-अपने विचारों एवं भावनाओं से ही बनता है। जैसा सोचता और जिस प्रकार का संकल्प करता है वैसा ही बन जाता है।

जीव की संकल्प शक्ति तथा उसके विकास में योगदान पर गीताकार का कथन है-

“श्रद्धामयोऽयं पुरुषः यो यच्छृद्धः स एव सः”।

अर्थात्-यह पुरुष श्रद्धामय है, जैसी इसकी आस्थाएं होती हैं यह वैसा ही बन जाता है। दूसरे शब्दों में पुरुष के बनने में आन्तरिक संकल्प शक्ति ही काम करती है जिसकी अभिव्यक्ति गीता में श्रद्धा के रूप में की गयी है।

वैष्णव सम्प्रदाय के आचार्य स्वामी रामानुज का कहना है कि “जीवात्मा की स्थिति घड़ी की कमानी की तरह होती है। बाह्य मल विक्षेपों के कारण वह शान्त पड़ी रहती है, किन्तु उसके प्रसार विस्तार की प्रबल सम्भावना है।” योगीराज अरविन्द मनुष्य की गयी-गुजरी-दीन-हीन स्थिति में पड़े रहने का कारण स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि “प्रबल अभीप्सा का न होना ही बन्धनों का कारण है। संकल्प शक्ति को उभरने तथा कुछ विशेष कर-गुजरने का अवसर भी इसीलिए नहीं मिल पाता।”

भोगशक्तियों के बन्धन मनुष्य को इस तरह जकड़े रहते हैं कि उसकी मूल सत्ता को अपनी विशेषताओं के साथ प्रकट होने का अवसर ही नहीं मिल पाता। इस विषय में स्थिति से बचने का तरीका क्या हो? जीव ब्राह्मी सत्ता को अपने भीतर उजागर कैसे करे? जीव ब्रह्म की एकता, अभिन्नता का पारस्परिक दिव्य आदान-प्रदान की रसानुभूति का आनन्द कैसे प्राप्त हो? संसार में रहते हुए भी उसके मल विक्षेपों से आसक्ति बन्धनों से कैसे बचा जाय?

ईशावास्योपनिषद् इसका समाधान प्रस्तुत करता है। “संसार के प्रति कैसी दृष्टि हो इसका उल्लेख- ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंचित्जगत्याँ जगत”- के रूप में करते हुए उपनिषद्कार कहता है कि वह तो सर्वव्यापी है। जीव संसार के हर कण में प्रतिक्षण उसकी अनुभूति करे।

यह स्पष्ट है कि जब तक शरीर है और इस संसार में रहना है, कर्मों का परित्याग सम्भव नहीं है। उनसे चाहते हुए भी छुटकारा पाया नहीं जा सकता। कर्मासक्ति से मुक्ति पाने का साधन है-निस्पृह होकर सत्कर्म करते रहना। श्रुति कहती है-“कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः- कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीने की इच्छा रखो।

संसार एवं उसके आकर्षणों के स्वरूप का अलंकारिक वर्णन उपनिषदों में है। उपनिषद् के अनुसार यह जगत सुवर्ण के पात्र के सदृश है जिसने सत्य को ढक रखा है। जो आकर्षणों के आवरण को चीरकर सत्य के साक्षात्कार के लिए प्रवृत्त होते हैं, वे सफल भी होते हैं। पर उनकी संख्या अधिक है जो संसार के आकर्षणों में भटक जाते हैं तथा मूल लक्ष्य को भी भूल बैठते हैं। शास्त्रकारों ने अनात्म शरीर में आत्म भाव रखने तथा साँसारिक आकर्षणों का वास्तविक मान बैठने की अविद्या कहा है। इसी का दूसरा नाम माया है। मनीषियों ने माया अर्थात् “वह जो नहीं है” को एक प्रबल शक्ति माना है तथा उसके चंगुल से बचने का सुझाव दिया है। विषयासक्ति से मनुष्य अपने शाश्वत स्वरूप को भूल बैठता है। उतना ही वह आत्मा के प्रकाश से भी दूर होता जाता है। ऐसे व्यक्तियों की निन्दा करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमतसावृता। तास्ते प्रेत्यभिगच्छन्ति ये के चात्महनोजनाः॥

अर्थात्-“जो भोगेच्छाओं को प्रबल करके आत्मा का हनन करते हैं, वे आत्म हन्ता भरकर उन लोकों को जाते हैं जो आसुरी हैं और अंध तमिस्रा से ढके हुए हैं।

चराचर में संव्याप्त उस परम सत्ता की सतत् अनुभूति ही योगत्रयी का तात्विक लक्ष्य है। इसी अनुभूति को साकार करने में विभिन्न पथों का अवलम्बन लिया जाता है। जप, ध्यान, धारणा और समाधि की उच्च स्तरीय-साधनाओं का भी अन्तिम लक्ष्य यही है। “विराट् सत्ता की आत्म-सत्ता में अनुभूति।”

पर अद्वैत की चरम अनुभूति मात्र सैद्धान्तिक चर्चा भर बनकर न रह जाय इसलिए साधना द्वैत से आरम्भ करनी पड़ती है। अहम् ब्रह्मास्मि, सोऽहम्, तत्वमसि, सच्चिदानंदोऽहम्, वस्तुतः अद्वैत अनुभूतियों के उद्घोष है। पर इस स्थिति तक पहुँचने के लिए साधना का आरम्भ भक्ति भावना से करना पड़ता है अन्यथा शाश्वत अनुभूतियों के अभाव में सत्य की मात्र वैचारिक स्वीकारोक्ति तो अहम् को घोषित करती है आत्म प्रवंचना की यह स्थिति साधक को ले डूबती है। स्वसम्मोहन के एक ऐसे आवरण से घिर जाता है, जिससे प्रायः निकलते नहीं बनता। आत्मिक प्रगति का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। लक्ष्य प्राप्ति से वह भटक जाता है।

“अहम् ब्रह्मास्मि” को स्वीकार करने पर “सर्वखल्विदं ब्रह्म” पर आशंका प्रकट करने वाले साधक सत्य से उतने ही अपरिचित हैं जितना कि सामान्य व्यक्ति वास्तविकता में तो एक साथ दोनों ही को स्वीकार करना तथा अनुभूति में उतारने का प्रयत्न करना पड़ता है।

दार्शनिक सिद्धान्तों का सही स्वरूप समझने से लक्ष्य प्राप्ति की ओर बढ़ने का सैद्धान्तिक आधार बन जाता है इससे आगे का चरण विभिन्न साधनाओं से शुरू होता है। उनमें अपनी श्रद्धा भावना का जितना ही अधिक अभिसिंचन किया जायेगा, उतनी ही सफलता मिलेगी। कहा जा चुका है कि जीव में बीज-रूपेण ब्रह्म बनने की सभी सम्भावनाएँ विद्यमान हैं। अभिव्यक्ति के लिए जीवात्मा छटपटाती भी रहती है पर अभीष्ट स्तर का पोषण न मिल पाने तथा विकास के लिए प्रचण्ड संकल्प शक्ति न जुट पाने से ही वह दीन-हीन गई गुजरी स्थिति में पड़ी रहती है। इससे निकलने के लिए क्या कमर कसकर तैयार हो जाने का नाम ही साधना पुरुषार्थ है; परम पुरुषार्थ इसे ही कहा गया है। जीवात्मा अपने ईष्ट से विलग रहकर छटपटाती रहती है। यह बेचैनी उस परम सत्ता से मिलकर ही मिटती है। जितना समर्थ वह है उतना ही जीव भी बन सकता है, बशर्ते कि अपने को उसकी सत्ता में धुला मिला दे। यही है आत्मतत्व का जीवन दर्शन-बंधनमुक्ति जिसका अलंकारिक वर्णन विभिन्न रूपों में शास्त्रों में किया गया है। इस आत्मतत्व को जान लेने पर मनुष्य मृत्यु से भी भयभीत नहीं होता। यह सिद्धि साधना की सबसे बड़ी साधना है, ऐसा विद्वानों का मत है।


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