अपनों से अपनी बात - समझदारी को समय की जिम्मेदारी निभानी होगी

December 1983

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हम सब इन दिनों ऐसे संकटों भरी बेला में जी रहे है जिसकी भयानकता मात्र दूरदृष्टि से ही देखी जा सकती है। चर्म चक्षुओं की समीपता से तो पेट-प्रजनन में उत्पन्न व्यवधान ही संकट प्रतीत होते हैं। उन्हें तो मृत्यु, बुढ़ापा तो क्या, बहुत खा मरने पर पेट-फूलने तक का निकटवर्ती भविष्य तक दिखाई नहीं पड़ता।

पृथ्वी गोल है, घूमती है और सूर्य परिक्रमा में सनसनाती भ्रमण करती है इस सुनिश्चित तथ्य को किसी मूढ़मति के गले उतारना कठिन है। कर्मफल को अवश्यम्भावी होने पर लोग विश्वास नहीं करते। असंयम, आलस्य और अपव्यय के दुष्परिणाम तत्काल सामने नहीं रहते इसलिए उनकी भी उपेक्षा होती है। नशे बाजों को तत्काल मजा दीखता है, धन, यश, स्वास्थ्य और परिवार की बर्बादी पर वे कहाँ सोचते हैं? ऐसी ही अदूरदर्शी मूढ़मति को इन दिनों सर्वत्र साम्राज्य है। दूर तक दृष्टि पसार कर बनने वाली परिस्थितियों का मूल्यांकन कर सकना उन लोगों के लिए भी सम्भव नहीं हो रहा है। जो बुद्धिमत्ता का दम भरते हैं, पर उमड़ते आ रहे घटाटोप एवं अन्धड़ की परिणति सोचने और समय रहते कुछ बचाव करने तक की आवश्यकता नहीं समझते।

निस्संदेह बहुमत उन्हीं का है जिन्हें सामने भर की स्थिति समझ सकने की दृष्टि दोष सवार है। नेत्र ज्योति घट जाने पर अति समीप का ही कुछ दीखता है। दूरी पर रखी चीजें तक सूझती नहीं। बकरे कटते समय तक चारा खाते और साथी से टकराते रहते हैं। धूमधाम और देन-दहेज के विवाह करने वालों को दूरगामी दुष्परिणामों का भान कहाँ होता है? मानवी दुर्भाग्यों में यह विडम्बना सबसे निकृष्ट और दुःखद है कि उसे इर्द-गिर्द नजर पसार कर घटित होने वाले घटनाक्रमों को देखने और उनकी परिणति का अनुमान लगाने तक की फुरसत नहीं मिलती या आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। सबके साथ जुड़े हुए भविष्य की सूत्र शृंखला का पता तक नहीं चलता। जो हो रहा है उसका भले-बुरे परिणामों से कल परसों हमें तथा हमारे बच्चों को भी प्रभावित होना पड़ेगा, यह सोचे बिना स्वार्थ तक तो नहीं सधता फिर परमार्थ की बात तो बहुत दूर की रह जाती है।

बुद्धिमान समय को पहचानते हैं और विषम परिस्थितियाँ सामने होने पर अभ्यस्त ढर्रे को बदलने में आना-कानी नहीं करते। अग्निकाण्ड, अन्धड़, आक्रमण, उपद्रव, दुर्भिक्ष, बाढ़, दुर्घटना जैसी परिस्थितियों में जागरूकों को यह निर्णय करने में देर नहीं लगती है कि विषम परिस्थिति का सामना करने में विलम्ब नहीं लगना चाहिए भले ही इससे कामकाज में हर्ज क्यों न होता हो। जो ऐसे अवसरों पर उपेक्षा बरतते हैं वे आत्म प्रताड़ना और लोक भर्त्सना सहने के अतिरिक्त समर्थ होते हुए भी निष्ठुरता अपनाने में कारण समझदारी की नजर में गिरते असहयोग भुगतते और भविष्य को धूमिल करते हैं।

आज का अनास्था असुर पौराणिक काल के महादैत्यों से कहीं अधिक भयंकर और दुर्दान्त है उसके सामने हिरण्यकश्यपु, वृत्तासुर, भस्मासुर, महिषासुर, रावण, कुम्भकरण, कंस, जरासंध आदि सभी छोटे पड़ते हैं। वे शरीर धारी थे और क्षेत्र विशेष में निवास करते थे। उनके कुकृत्य भी थोड़े से थे इसलिए निरस्त करने वाली शक्तियों को बहुत बड़ा ताना-बाना नहीं बुनना पड़ा। वे सीधे भिड़ गये और अवतारी पराक्रम ने मल्लयुद्ध में उन्हें पछाड़ कर रख दिया। पर आज के अनास्था

असुर के संबंध में वह रणनीति काम नहीं आती। कारण कि अनास्था अदृश्य है, वह जन-जन के मन मन को आवृत्त आच्छादित किये हुए हैं। उसकी आकृति और प्रकृति सनक जैसी है जो उपचारकों के लिए सिरदर्द रहती है और जिस पर चढ़ बैठती है उसे यह पता नहीं चलने देती कि मुझे किसी संकट ने अपने जाल-जंजाल में जकड़ रखा है। ऐसी दशा में उससे पिण्ड छुड़ाना कितना कठिन पड़ता है इसे वे लोग ही समझ सकते हैं जिन्हें ऐसे असमंजस से निपटने की आफत उठानी पड़ती है।

प्रश्न दस पाँच का नहीं, समूचा अवा ही खराब हो गया है। कुएँ में भाँग पड़ी है जिसे पीकर समूचा क्षेत्र ही बावला हो गया है। मर्यादाओं का पालन और वर्जनाओं का अनुबन्ध अब किसी को स्वीकार नहीं। मानवी गरिमा के अनुरूप व्यक्तिगत कर्त्तव्य और सामाजिक उत्तरदायित्व निर्वाह की बात किसी के गले नहीं उतरती। स्वतन्त्रता का नारा नये रूप में स्वेच्छाचार बन गया है। पशु प्रवृत्तियों को खुला खेलने का अवसर मिला है। प्रलोभनों की तुलना में अब कोई आदर्श अपनाने के लिए तैयार नहीं। इन दिनों तात्कालिक लाभ ही इष्ट है भले भी वह बुरे से बुरे आधार पर उपलब्ध किया जाय। दूरदर्शी विवेकशीलता को तो मानो तिलाँजलि ही दे दी गई हो। इसे छद्म का युग कह सकते हैं। बड़प्पन की सनक में लोग अपव्यय और पाखण्ड की चरम सीमा पर जा पहुँचे हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर लोकमानस का यही संव्याप्त चित्रण है। इसे इस प्रकार उल्टा जाय। उलटे को उलटकर पीछा कौन करे? इसके लिए इतनी शक्ति सामर्थ्य कौन जुटाये? प्रश्न टेढ़ा है। आश्चर्य है कि इसे पर्वत उठाने समुद्र सोखने जैसे दुस्तर कार्य को किस प्रकार अपने कन्धे पर उठाने का दुस्साहस प्रज्ञा अभियान ने अपनाया।

लोकमानस में दुष्प्रवृत्तियाँ भर जाने की भयावह प्रतिक्रिया अवश्यम्भावी है। आग में हाथ देने वाला बिना जले कैसे रहे? विष पान करने वाले का प्राण कैसे बचे? घड़े भर मदिरा पी जाने पर सन्तुलन कैसे निभे? मनःस्थिति में विकृतियाँ भरी नहीं है कि परिस्थितियाँ संकटापन्न हुई नहीं। नियति की क्रिया-प्रतिक्रिया व्यवस्था से बच निकलने की कोई पगडंडी नहीं। मरने वाले को आज नहीं तो कल मरना ही पड़ता है। बबूल बोने वालों के पैरों में आये दिन काँटे चुभते देखे जा सकते हैं। राह में रोड़े बखेरने वालों को पग-पग पर ठोकरें खानी पड़ रही है। बर्रे के छत्ते में हाथ डालने वाले मुँह सुजाये फिरते हैं। अनास्था अपनाने की परिणति हाथों-हाथ सामने आ रही है। असंयम ने मनुष्य को दुर्बल और रुग्ण बनाकर रख दिया है। दुर्मतिग्रस्त मस्तिष्क की हरकतें दुर्गति का ऐसा चक्रव्यूह रच रही है जिनमें बाहर निकलने का मार्ग दीखता ही नहीं। अपव्यय और आलस्य को अपना लेने के बाद अर्थ संकट से उबरने की सम्भावना दीखती नहीं। मर्यादाओं की खुली अवज्ञा करने पर पारिवारिक वातावरण में विषाक्तता भरती जाती है ओर उसमें रहने के लिए विवशता में सराय या जेलखाने से अच्छा अनुभव होता ही नहीं। अब परिवारों के घोंसले धरती के स्वर्ग बनकर कहाँ रह रहे हैं। आँगनों में मात्र स्वार्थों की शतरंज बिछी रहती है और एक-दूसरे को मात देने की चाल ढूँढ़ता रहता है। समाज की स्थिति ऐसी है जिसमें जंगल का कानून ही सर्वमान्य है। जिसकी लाठी जिसकी भैंस का मत्स्य न्याय अब मनुष्यों ने भी प्रकृति व्यवस्था कह कर अपनाना आरम्भ कर दिया है। ऐसी दशा में नीति न्याय की बात कौन सुने? सद्भाव अब आत्मिक उपादान नहीं रहा उससे शिष्टाचार की विडम्बना के रूप में ही स्वीकारा गया है। फलतः एक दूसरे की जेब काटने की घात में घूमते रहते हैं। मनुष्यों के रूप में भेड़ियों, श्रंगालों के झुण्ड ही अपनी-अपनी वाणी बोलते और चित्र-विचित्र क्रियाएँ करते रहते हैं। प्रस्तुत हलचलों में से यह ढूँढ़ निकालना कठिन है कि इसके पीछे आदर्शों के लिए भी कहीं कोई स्थान रहा है या नहीं? जो हो रहा है उसे व्यर्थ ही नहीं अनर्थ भी कहा जा सकता है। सार्थक तो आदर्श भरा पुरुषार्थ ही हो सकता था। अब उसे अवैध सन्तान की तरह अपनाने के लिए कोई तैयार नहीं।

भ्रष्ट विचारणा की परिणति दुष्ट गतिविधियों में हुई है। फलतः समस्याओं, विपत्तियों, विग्रहों और विभीषिकाओं के घटा टोप समूचे विश्वाकाश में उमड़ने-घुमड़ने लगे हैं। दुर्बलता, रुग्णता, दरिद्रता, वितृष्णा, उद्विग्नता, आशंका से आतंकित मनुष्य जी किस प्रकार लेता है यही आश्चर्य है। इतने विषाक्त वातावरण में भी मनुष्य की आत्मा का दम घुट नहीं गया, उसे एक अपने ढंग का अनोखा आश्चर्य कहना चाहिए। अपना युग वैज्ञानिकों द्वारा प्रस्तुत किये गये आश्चर्यों और श्रीमन्तों द्वारा उत्पन्न किये गये अजूबों का समय है। इसे एक अनबूझ पहेली ही कहना चाहिए कि वैज्ञानिक बौद्धिक और आर्थिक प्रगति के तूफानी बवण्डरों की ऊँचाई जहाँ आकाश में चूमने लगी है उसे मनुष्य की अपराधी प्रवृत्तियों ने और उसकी नारकीय परिणतियों ने भी बेतरह निचोड़ कर रख दिया है। इसे प्रगति कहा जाय या अवगति कुछ ठीक से कहते नहीं बनता।

मूर्धन्यों के कन्धों पर अपनी समर्थता से जन-जीवन की सुविधा, सुरक्षा और प्रगति की परिस्थितियाँ बनाने का उत्तरदायित्व था, पर वे उनने उल्टे पैरों उलटी दिशा से भूत-पलीत की तरह चलना आरम्भ कर दिया है। शासनाध्यक्षों का ध्यान महायुद्ध की-महाविनाश की सामग्री जुटाने और एक-दूसरे से आगे बढ़ जाने की होड़ में संलग्न है। धर्माध्यक्षों ने अपने को देवताओं का ऐजेन्ट घोषित करके चित्र-विचित्र भ्रान्तियों में भावुकों को भ्रमाने और चेली-चेलों की जेब काटते रहने से बढ़कर और कोई धन्धा सूझता नहीं। वे इतने सस्ते और इतने लाभदायक धन्धे से विरत होने के लिए किसी शर्त पर तैयार नहीं। वैज्ञानिकों, साहित्यकारों, कलाकारों की कमी तूती बोलती थी और वे जनमानस की उत्कृष्टता बनाये रहने की जिम्मेदारी सम्भाल पर वैसा कुछ रह नहीं गया है। इन सभी बुद्धिजीवियों ने श्रीमन्तों की स्वेच्छा गुलामी स्वीकार करती है। अब श्रीमन्त ही साहित्यकार, कलाकार, बुद्धिजीवी, मनीषी को मनचाही भूमिका अपनी थैली के बल पर निभा लेते हैं। उन बेचारों का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व रह नहीं गया है। कुछ अपवादों को छोड़कर वे मालिकों के लिए इनके इशारे पर करते हैं। जब सभी को सुविधा प्रिय है तो वे ही क्यों आदर्शवादिता के झंझट में पड़कर गरीबी अपनायें और कष्ट उठायें।

श्रीमन्त तो सच्चे अर्थों में लक्ष्मी के पति होने के कारण नगद नारायण बन गये हैं। उन्हें वे ही व्यवसाय प्रिय है जिनमें उनकी जेब गरम हों। इसके लिए नशे उगाने, चकले चलाने, बूचर खाने बनाने, कामुकता भड़काने जैसे साधनों में पूँजी लगाना श्रेयस्कर जँचा है। लोगों के तेवर बदलते देखे तो अपने को धर्मात्मा विज्ञाप्तित करने के लिए देवालय बनाने या धर्म समारोह कराने जैसे शिगूझे छोड़ते रहने में भी उनकी अकल दूर की कौड़ी खोज लाती है।

इन परिस्थितियों की परिणति क्या हो रही है और क्या होने जा रही है इसका अनुमान लगाने वालों को भयाक्रान्त-रोमाँचित होना पड़ता है। अपराधों की बाढ़-बीमारियों का प्रकोप-अर्ध विक्षिप्त स्थिति का मस्तिष्क, आये दिन के उपद्रव विग्रह, तूफानी बवंडरों की तरह उफनते और सब कुछ निगल जाने की धमकी देते हैं। अणुयुद्ध से महाविनाश, परीक्षण विकिरण में अपंगता, जनसंख्या विस्फोट, ईंधन की समाप्ति, वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, खाद्य प्रदूषण, जैसे संकट आज क्या कर रहे हैं और कल क्या करेंगे? इसकी चर्चा अब चौराहों पर होती है। उसे भविष्यवक्ता का कथन नहीं यथार्थता का प्रत्यक्ष दर्शन कहा जा सकता है। प्रस्तुत विकृतियों से विक्षुब्ध प्रकृति ने प्रताड़ना करने और बदला लेने का निश्चय किया है वह उन्मत्त हथिनी की तरह इस समूची हरियाली को कुचल डालने के लिए चिंघाड़ने लगी है। ध्रुव पिघलने, समुद्र उफनने, दम घुटने, हिमयुग आने, दावानल में सबकुछ जल जाने, महाप्रलय का दृश्य उपस्थित होने जैसी आशंकाएँ सामने हैं। इससे जो बच रहेंगे और उन्हें लाखों वर्ष पूर्व वाले आदिमकाल के नर वानर के रूप में रहने के लिए वाँछित होना पड़ेगा और अनाथ जीवन जीना पड़ेगा।

प्रकृति का ऐसा उद्धत प्रकोप पिछले दिनों चिरकाल से ऐसा दृष्टिगोचर नहीं हुआ जैसा इन दिनों हो रहा है। ऋतुएँ अपना समय धर्म छोड़ रहा है। अतिवृष्टि और अनावृष्टि के ऐसे ज्वार भाटे कभी आये हों ऐसा इतिहासकारों की जानकारी में नहीं। भूकम्प और ज्वालामुखी जिस तेजी से जितनी अधिक संख्या में आ रहे और जैसी विषाक्त धूलि उड़ा रहे हैं उसे भी अभूतपूर्व ही कहना चाहिए। मैक्सिको के भूकम्प में जैसे तेजाबी धुएँ का बादल उड़ाया है वैसा इससे पूर्व कभी देखने-सुनने में नहीं आया। सूर्य कलंक, सौर ज्वालाएँ, चुम्बकीय आंधियां, खग्रास ग्रहणों की शृंखला, आगत धूमकेतु ग्रहों का एक राशि पर एकत्रीकरण अन्तरिक्ष विशारदों की दृष्टि से भू-लोक वासियों के लिए किसी अनिष्ट की आशंका व्यक्त करते हैं। कोरिया में सम्पन्न हुई ज्योतिर्विदों की अन्तर्राष्ट्रीय कांफ्रेंस में स्थिति के निकट भविष्य में विस्फोटक होने के संकेत दिये हैं। अध्यात्म क्षेत्र के दिव्यदर्शी ऐसी सम्भावना पहले से ही व्यक्त करते रहे हैं। बाइबिल, कुरान, पुराण जैसे ग्रन्थों में भी ऐसी ही विभीषिकाओं के संकेत है।

समय की सबसे बड़ी पहेली एक ही है कि इस आतंक का निराकरण कैसे हो? उसे कौन करे? स्थिति बताती है कि मनुष्य ने माचिस फेंक तो दी पर अब जबकि दावानल की ज्वालमाल गगनचुम्बी बन चली तो तब बुझाना उसकी बात नहीं रही। इसे बुझाने के लिए समर्थ दमकलों के अतिरिक्त बरसने वाले बादल ही आशा भरे आश्वासन दे सकते हैं।

इतिहास बताता है कि जब बिगाड़ बेकाबू हुआ है तो उस मदोन्मत्त हाथी को काबू में लाने के लिए चाबुक मार महावतों की मण्डली ही उसे झुकाने और लिटाने में समर्थ हुई है। अन्य किसी उपाय ने काम दिया ही नहीं। यह चर्चा अदृश्य युग प्रवाह के संदर्भ में की जा रही है। पौराणिक भाषा में इसे भगवान के अवतार कहते हैं। यह पेंडुलम जैसी क्रिया की प्रतिक्रिया है। रात्रि के बाद दिन, भाटे के बाद ज्वार, मरण के बाद जन्म में भी यही ध्वनि प्रति ध्वनि की प्रक्रिया काम करती है। इतिहास में अनेक ऐसे अवतारों की चर्चा है जिनने अपने-अपने समय के युग संकटों को अपने-अपने ढंग से उपचारों से विग्रहों को हटाया और सन्तुलन बनाया है। दार्शनिक कहते हैं कि यह धरित्री नियन्ता की सर्वोत्तम कलाकृति है। उस पर जब-जब विनाशकारी घटाटोप छाये हैं तब-तब नियन्ता ने सन्तुलन बनाने के लिए दौड़ आने का वचन निबाहा है। इस बार भी ठीक वैसी ही परिस्थिति है जिसमें मानवी बुद्धिमत्ता और चेष्टा कुछ काम आ नहीं रही है। सुलझाने वाले-और भी अधिक उलझने की शिकायत करते और हार मानने जैसा भाव दर्शाते हैं। ऐसे समय में उस अदृश्य की ओर निहारा जा सकता है। जिसकी इच्छा से यह सृष्टि बनी और जिसकी प्रेरणा योजना के अनुरूप यह बढ़ी विकसित हुई है। उसके एक संकेत से ही कुछ का कुछ हो सकता है। वह तमिस्रा के व्यापक साम्राज्य को निरत करने के लिए एक छोटा-सा सूरज उगाकर देखते-देखते समूची परिस्थिति ही उलट सकता है। घोर निद्रा में पड़े हुए सभी प्राणी देखते-देखते उठ खड़े होने और कार्यरत होते दीख पड़ते हैं। निशाचरों की स्वेच्छाचारिता किसी माँद कोंतर में जा छिपती है। बीज को वृक्ष और शुक्रार्ण को हाथी बना देने वाला सृजेता जब चाहता है जलते धरातल पर जल जंगल एक कर देता है। ढूँठों पर बसन्त बहार ला देता उसके बांये हाथ का खेल है।

निराकार की सन्तुलन संवर्धन योजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए उसके प्रतिनिधित्व सदा से साकार भूदेव करते रहे हैं। इन्हीं को सन्त, सुधारक और शहीद के नाम से जाना और खुली आँखों से देखा जाता है। ऋषियों और महामानवों की पुण्य-परम्परा के पीछे भगवान का सूत्र-संचालन देखा जा सकता है अन्यथा लोभ मोह के पतनोन्मुख प्रवाह को चीरकर मछली की तरह उलटा चलने और प्रचलन से भिन्न स्तर की रीति-नीति अपनाने की उमंग किसे उठें? क्यों उठें? सरल सुविधा को छोड़कर झंझट में पड़ने और कष्ट सहने के लिए कोई क्यों दुस्साहस अपनाये?

युग परिवर्तन की प्रक्रिया सदा अदृश्य में उफनने वाले आँधी-तूफान की तरह आती है। उसके सहभागी तिनके पत्ते तक गगनचुम्बी उड़ानें उड़ते हैं। इन दिनों युगान्तरीय चेतना का अदृश्य प्रवाह दृश्यमान प्रज्ञा अभियान के रूप में किसी सुनियोजित योजना के अंतर्गत काम करता देखा जा सकता है। उसके सहभागी प्रज्ञा पुत्र अपनी वरिष्ठता का परिचय देते हुए, युग सृजन को सहज श्रेय अर्जित करते हुए देखे जा सकते हैं।


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