सूक्ष्म शरीर का आणविक विश्लेषण-3

May 1970

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‘नोवोत्सी’ न्यूज एजेन्सी ने- सोते समय अँग्रेजी पढ़ाने का परीक्षण’ शीर्षक से समाचार छापा है। समाचार पीछे पहले शीर्षक पढ़कर ही पाठक चौंक पड़ेंगे। जागृत अवस्था में कई बार पुस्तकें पढ़ते हैं, अध्यापक पाठ याद कराते हैं तो भी विद्यार्थियों को एक ही रोना बना रहता है, पाठ याद नहीं होता। फिर सोते हुए व्यक्ति को पढ़ाना तो एकदम असम्भव बात है।

इसी बात को हम यह कहते हैं कि आत्मा इतनी सम्वेदनशील है कि अपने सूक्ष्म प्रकाश-शरीर से वह सोते-जागते किसी भी अवस्था में पढ़ती और ज्ञान सम्पादन करती रह सकती है। कोई सामर्थ्यवान व्यक्ति अपने विचार, ज्ञान, प्रज्ञायें और सन्देश कैसी भी अवस्था में किसी और को भी दे सकता है। तब तो लोग यह बात न मानते पर मास्को के पास दूबना स्थान पर विज्ञान इस बात को प्रत्यक्ष सत्य सिद्ध करने में लगा हुआ है, लगभग एक हजार लोगों को सोते समय गहरी निद्रा में अंग्रेजी सिखाई जा रही है। प्रयोगकर्त्ताओं का कहना है कि ये लोग 40 दिन में सोते-सोते ही अंग्रेजी सीख जायेंगे।

इस प्रणाली के अंतर्गत गहरी नींद में सोने वाले लोग ही भाषा शिक्षण के लिये छाँटे जाते हैं, उन्हें सोते समय भाषा के टेप-रिकार्ड सुनाये जाते हैं। वे नींद में ही व्याकरण के नियम और शब्द और उनका प्रयोग सीख लेते हैं। अब तक छपे परीक्षण बहुत सफल हुये हैं।

एक ओर यह प्रयोग और दूसरी ओर वैज्ञानिकों की निरन्तर की शोध दोनों प्रक्रियाओं ने यह सिद्ध करना प्रारम्भ कर दिया है कि स्थूल शरीर में सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व और उस सूक्ष्म शरीर में मन आदि सम्पूर्ण इन्द्रियों व चेष्टाओं का पाया जाना असम्भव नहीं, असंदिग्ध तथ्य है। अभी यह विज्ञान अपनी भ्रूण अवस्था में है, अभी तो उसे कारण शरीर तक पहुँचने में वर्षों लगेंगे पर अब तक की उपलब्धियाँ ही भारतीय तत्व-दर्शन का जिस तेजी से समर्थन कर रही हैं, उसे देखकर सारा पाश्चात्य जगत भारतीय दर्शन की ओर मुड़ने लगा है।

अणुओं में ज्ञान के अस्तित्व की यह खोजें वैज्ञानिकों की दृष्टि में अभी अन्तिम नहीं हैं तथापि यह सिद्ध हो गया है कि ज्ञान विचार या चेतना का स्वतन्त्र अस्तित्व है और वह प्रकाश अणुओं के भीतर है। अमेरिका के जीव-वैज्ञानिक डॉ. इर्वन केमरान ने कुछ चूहे लेकर उन्हें एक विशेष बाक्स में संकेत पाने पर भोजन के लिये प्रशिक्षित किया। चूहे कुछ ही दिन के अभ्यास से प्रशिक्षित हो गये। जब भी उन्हें टार्च का प्रकाश दिखाया जाता, वे तुरन्त भागते हुए आते और बाक्स में रखे भोजन को प्राप्त कर लेते। इसके बाद इन प्रशिक्षित चूहों को मारकर उनके मस्तिष्क का ‘न्यूक्लिक एसिड’ निकाल लिया गया और फिर उसका इन्जेक्शन बनाकर कुछ ऐसे चूहों को दिया गया, जिन्हें इस तरह का कोई प्रशिक्षण नहीं दिया गया था। उस समय डॉ. केमरान के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब यह चूहे भी टार्च का प्रकाश देखते ही भोजन के लिए उस विशेष बाक्स में बिना बताये ही प्रवेश कर गये। यही प्रयोग चूहों के अतिरिक्त दूसरे जन्तुओं जैसे छछूंदर, गिलहरी आदि पर भी किया गया और वहाँ भी यही आश्चर्यजनक सत्य देखने को मिला। इससे यह तो निश्चित ही साबित हो गया कि जैसी कोई चेतन शक्ति प्रकाश के अणुओं में ही है।

डॉ. केमरान ने यह प्रयोग कुछ मनुष्यों पर भी ‘मैग्नीशियम पैमुलीन’ नाम दवा का प्रयोग करके देखा कि एक व्यक्ति जो ताश के पत्ते नहीं पहचान पाता था, इस तरह की औषधि का सेवन करने के बाद फिर पत्ते पहचानने लगा। एक मैकेनिक वृद्धावस्था के कारण मशीनों के पुर्जे भूल जाने लगा-इस तरह की औषधि से उसकी ज्ञान क्षमता में विकास हुआ।

यह न्यूक्लिक एसिड क्या है, यह समझ लें तो बात स्पष्ट हो जायेगी। हमें पता है कि जिस प्रकार कोई भी पदार्थ का टुकड़ा छोटे-छोटे परमाणुओं से बना है, उसी तरह मनुष्य का शरीर जिन छोटे-छोटे परमाणुओं से बना है, उन्हें कोश (सेल) कहते हैं। एक कोश में जीवन के सारे लक्षण अमीबा की तरह विद्यमान रहते हैं। अमीबा एक कोशीय जीव है, उसमें आहार, निद्रा, भय आदि वह सब गुण पाये जाते हैं, जिनसे किसी पिण्ड में चेतना के अस्तित्व की जानकारी होती है। इसी तरह ‘कोश’ में मनुष्य जीवन के सारे लक्षण विद्यमान रहते हैं।

यह कोश मुख्यतया दो भागों में विभक्त है- (1) नाभिक या केन्द्रक (न्यूक्लियस), (2) साइटोप्लाज्म। नाभिक एक तरह का तारा या प्रकाशकण होता है और जीवन की यही अन्तिम इकाई है, दूसरे साइटोप्लाज्म में तो सभी प्रोटीन तत्व हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, फास्फोरस आदि तत्व पाये जाते हैं, यह तभी तक क्रियाशील रहते हैं जब तक नाभिक (न्यूक्लियस) बना रहता है। न्यूक्लियस के निकलते ही यह पदार्थ वाला अंश मृत हो जाता है, निष्क्रिय हो जाता है। यद्यपि इस केन्द्रक (न्यूक्लियस) को वैज्ञानिक स्वतन्त्र स्थिति में प्रकट नहीं कर सके तथापि ऊपर जिस ‘न्यूक्लियस एसिड’ की चर्चा की गई है, वह इसी में पाया जाता है, इससे स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि ज्ञान, विचार या अन्तर्चेतना प्रकाश कणों का गुण है और यदि वह मनुष्य के स्थूल से भिन्न पदार्थ है तो शरीर से विलग होने के बाद भी उसमें यह गुण विद्यमान् बने रहने ही चाहिये।

एक स्वस्थ मानव शरीर में लगभग 600 खरब कोशिकायें होती हैं। 600 खरब कोशिकाओं में 600 खरब नाभिक होते हैं। प्रत्येक नाभिक में गुण-सूत्र (क्रोमोसोम) और प्रत्येक गुण सूत्र के भीतर एक बटी हुई रस्सी की सीढ़ी के समान संस्कार कोश (जीन्स) विद्यमान होते हैं, यह संस्कार कोश जो प्रकाश की भी सूक्ष्म अवस्था है, न्यूक्लियस एसिड कहलाते हैं। यह एक प्रकार की विद्युत चुम्बकीय शक्ति है और कोश के भीतर सारे स्थूल द्रव्य में, तिल में तेल के समान व्याप्त है, इसीलिये वैज्ञानिकों को उसके स्वतन्त्र होने पर भी एसिड होने का भ्रम हो रहा है। वस्तुतः मृत्यु के उपरान्त यह संस्कार कोश ही प्रकाश-कणों का एक स्वतन्त्र शरीर बनाये हुए निकल जाते हैं, उनमें वह सारी याददाश्त बनी रहती हैं, जो जीवित अवस्था में ज्ञान में आई थीं। इतना ही नहीं इस अवस्था में भी वह ज्ञान-सम्पादन की क्षमता से परिपूर्ण होता है, केवल स्थूल क्रियायें जैसे बोलना, पकड़ना, उठाना-बैठाना आदि उससे नहीं हो सकता, यह किसी विशेष अवस्था में ही सम्भव है।

उपरोक्त प्रयोग इस बात का साक्षी है कि हमारी मानसिक चेष्टायें विचार इच्छायें या ज्ञान कुछ भी कहें मनुष्य शरीर की रासायनिक प्रक्रिया मात्र नहीं, प्रकाश मानव कणों या सूक्ष्म शरीर के कारण है, यह एक ऐसा सिद्धाँत है, जो यदि सिद्ध हो जाता है तो न केवल पुनर्जन्म, भूत-प्रेत, दूर-दर्शन, दूर-श्रवण, विचार सम्प्रेषण, परकाया प्रवेश, परलोक आदि की भारतीय मान्यताओं की ही पुष्टि नहीं होगी वरन् योगाभ्यास की उन क्रियाओं का भी समर्थन होगा, जो शरीर-धारी आत्म-चेतना के विराट विकास के लिये बड़ी तपस्या और कष्ट साध्य प्रयोगों के द्वारा भारतीय तत्वदर्शियों ने आविष्कृत की है। केन्द्रक स्थित यह तत्व जो स्मृतियाँ अर्जित करता है, मनुष्य शरीर की समस्त 600 खरब कोशिकाओं में पाया जाता है, यदि उसे खींचकर लम्बाई में बढ़ाया जाये तो वह सम्पूर्ण ब्रह्माँड को अर्थात् अब तक की खोज के अनुसार 186000×60× 60×24×3651/4×500000000 मील लम्बा होगा। इतने लम्बे फीते में प्रत्येक कोश में 1000000000 अक्षरों के हिसाब से उपरोक्त संख्या में इसका गुणा करने से जो संख्या बनेगी, उतने अक्षरों की और उन अक्षरों से बने शब्दों की स्मृति मनुष्य रख सकता है। ऐसा मनुष्य लगभग सर्वज्ञ ही हो सकता है। भारतीय योग-दर्शन में यह बताया जाता है कि योग सिद्ध व्यक्ति संसार में जो कुछ भी हो रहा है, जो कुछ होगा और जो हो गया है, वह सब कुछ जानते हैं। इस तथ्य को स्थूल घटनाओं के आधार पर भले ही सिद्ध न किया जा सके पर अनेक प्रमाण अब इन तथ्यों की निरन्तर पुष्टि कर रहे हैं।

लार्ड मैकाले 19वीं शताब्दी के विश्व-विख्यात ब्रिटिश इतिहास लेखक ने इंग्लैंड का इतिहास आठ जिल्दों में लिखा। उसके लिये उन्होंने दूसरी पुस्तक उठाकर नहीं देखी सैकड़ों घटनाओं की तिथियों और घटना से सम्बन्धित व्यक्तियों के नाम उन्हें जबानी याद थे। यही नहीं स्थानों के परिचय, दूसरे विषय और अब तक जितने भी व्यक्ति उनके जीवन में उनके संपर्क में आ चुके थे, उन सब के नाम उन्हें बाकायदा कंठस्थ थे। लोग उन्हें चलता-फिरता पुस्तकालय कहते थे।

पोर्सन ग्रीक भाषा का अद्वितीय पण्डित था, उसने ग्रीक भाषा की सभी पुस्तकें और शेक्सपियर के नाटक मुंह जबानी याद कर लिये थे। ब्रिटिश संग्रहालय के सहायक अधीक्षक रिचर्ड गार्नेट बारह वर्ष तक एक संग्रहालय के मुद्रित पुस्तक विभाग के अध्यक्ष थे, इस संग्रहालय में पुस्तकों की हजारों अलमारियाँ और उनमें करोड़ों की संख्या में पुस्तकें थीं। श्री गार्नेट अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे न केवल प्रत्येक पुस्तक का ठिकाना बता देते थे वरन् पुस्तक की भीतरी जानकारी भी दे देते थे।

अभी तक वैज्ञानिकों की यह धारणा थी कि हम जो कुछ पढ़ते और सुनते हैं, मस्तिष्क में पाये जाने वाले राख की तरह के भूरे पदार्थ में उसकी ऐसी रेखायें (साइनेप्सेस) बन जाती हैं, जैसी राख में या समतल धूलि में किसी कीड़े के रेंग जाने से आड़ी-टेढ़ी रेखायें खिंच जाती हैं। किन्तु वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि मस्तिष्क के तीव्र आवेग जैसे क्रोध, प्रतिशोध, ईर्ष्या आदि के कारण यह रेखायें मिटती भी रहती हैं। कई बार मस्तिष्क में धक्के और चोटें भी आती हैं, उससे भी यह रेखायें मिट जाती हैं, फिर वर्षों पहले का ज्ञान ज्यों का त्यों सुरक्षित रखना तब तक असम्भव है, जब तक ज्ञान को संग्रहित करने वाला कोई बीज न हो, जो न तो कभी नष्ट होता हो और न जिस पर बाहरी आघातों का प्रभाव ही पड़ता हो।

आत्म-चेतना स्वयं ही वह शक्ति वह बीज वह केन्द्र है, जिसमें सम्पूर्ण संसार का ज्ञान अति सूक्ष्म रूप से भरा हुआ है, उस पन्ने को खोलें और साफ करें तो हम न केवल ज्ञान-सम्पदा का अक्षय संचय कर सकते हैं वरन् परलोक, पुनर्जन्म, कर्मफल आदि सिद्धांतों को भी अच्छी तरह समझ और उसका निराकरण कर सकते हैं। ज्ञान की इस सूक्ष्म अवस्था पर पहुँचकर ही अतींद्रिय अनुभूतियाँ, विचार-संचालन और आकाश में व्याप्त सूक्ष्म विचार तरंगों का ग्रहण करना आदि सम्भव होता है। ऊपर के उदाहरण इसी बात की पुष्टि करते हैं।


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