उस समय भगवान् बुद्ध श्रावस्ती की मृगारमाता के पूर्णाराम प्रासाद में विश्राम कर रहे थे। प्रवास और परिव्राजन के नैरन्तर्य के कारण उन्हें थकावट अनुभव हो रही थी। मृगारमाता ने उनकी देख-रेख और सेवा का पूरा प्रबन्ध कर दिया था।
मृगारमाता विशाखा का किसी उद्योग से सम्बन्धित कोई काम कौशलराज प्रसेनजित के यहाँ अटका हुआ था। उसके कारण उन्हें चैन नहीं मिल रहा था। सोचा यह था कि तथागत की उपस्थिति में वह कुछ धर्म-चर्चा लाभ लेगी। पर वह तो बना नहीं, वह दूसरे ही दिन प्रसेनजित के पास जा पहुँची।
प्रसेनजित ने इस बार भी टालमटोल कर दी। विशाखा वहाँ से निराश लौटीं। दोपहर की चिलचिलाती धूप में वैसे ही विशाखा सीधे भगवान् बुद्ध के पास पहुँची और उन्हें प्रणाम कर खिन्न वदन एक ओर बैठ गई।
अन्तर्यामी तथागत हँसे और बोले- “विशाखा! इसीलिये कहता हूँ कि अपनी इच्छायें बढ़ानी नहीं, कम करनी चाहिये। इच्छाओं की पूर्ति में जो पराधीनता है, वही दुःख है।”
विशाखा ने कहा- तो फिर भगवन्! ऐसा भी कोई उपाय है, जिससे अपनी इच्छायें कम की जा सकें।
बुद्ध ने उत्तर दिया- हाँ भन्ते! अवश्य है, यदि हम सुख की खोज अपने भीतर करने लगें तो इच्छाओं की निस्सारता प्रकट होने लगती है।