चलो लेकिन आखें खोलकर चलो

May 1970

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एक राजा थे। प्रजा वत्सल, नेक और बड़े परिश्रमी। उनके राज्य की प्रजा बड़ी खुशहाल थी।

एक दिन वे अपने महामन्त्री के साथ बैठे अपने यश का आप चढ़-बढ़कर बखान करने लगे तो मन्त्री ने कह दिया-महाराज! आप चले तो पर आँख खोलकर नहीं चले? महाराज को यह आलोचना बहुत अखरी?

वे उसका निराकरण चाहते थे, तभी सामने से एक भिखारी निकला। उसे देखते ही महामन्त्री ने सोने-चाँदी के असंख्य टुकड़े उसके सामने फेंके। भिखारी उन्हें रौंदता हुआ आगे बढ़ गया।

मन्त्री ने एक सिपाही को भेज कर उसे वापिस बुलाया और पूछा-तुम जब जा रहे थे तो तुम्हें मार्ग में कोई कीमती वस्तुयें नहीं मिलीं?

भिखारी सकपका कर बोला-नहीं महाराज! मुझे तो कुछ भी नहीं मिला। मैं तो यह सोचकर आँख मूँद कर चल रहा था कि मेरी भी आँखें खराब हो जायें तो मार्ग चल भी पाऊँगा या नहीं, इसलिये मुझे कुछ दिखा तो नहीं, हाँ मार्ग में किसी मूर्ख ने कंकड़-पत्थर बिखेर दिये थे, वह चुभे अवश्य।

मन्त्री ने राजा की ओर देखकर कहा-महाराज! इसी तरह जो आँख मूँद कर चलते हैं और यह मानते हैं कि यह जो कुछ कर रहा हूँ, मैं कर रहा हूँ वे अप्रिय प्रसंगों से ऐसे ही दुखी होते हैं, जैसे यह साधु, इसलिये जो कुछ करे निसुआर्थ ही करे।


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