हारे को हरि नाम

May 1970

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“किंग मेरे बच्चे! तुम्हारी वह शक्ति कहाँ चली गई, जो हजारों व्यक्तियों की आत्मा को झकझोर दिया करती थी। लगता है कुछ अंग्रेज साथियों का साथ छोड़ देने के कारण तुम निराश हो गये।”

डॉक्टर मार्टिन लूथर किंग का उस दिन एक अजायब घर में भाषण था, ऊपर कहे हुए मदर पोलार्ड के शब्द कोई अनुमान नहीं थे, सचमुच उस दिन डॉ. किंग की आवाज में जो निराशा थी, वह पहले कभी नहीं देखी गई थी। मदर पोलार्ड किंग से पुत्रवत् स्नेह करती थीं, उन्हें अपने हृदय से लगाते हुए मदर पोलार्ड ने कहा- “वत्स! कुछ लोग साथ छोड़ देते हैं तो क्या, हम भी तुम्हें सहयोग न दे- तो भी क्या, ईश्वर तो निश्चित रूप से तुम्हारे साथ है ही। जब तक भगवान है, तब तक साहस हारने की क्या बात है?”

किंग लिखते हैं- “मदर पोलार्ड के यह शब्द सम्पूर्ण जीवन मेरे कानों में गूँजते और शक्ति देते रहे। मैं अनुभव करता हूँ, यदि सारा संसार साथ छोड़ दे तो भी ईश्वर की आस्था मनुष्य को अनुप्राणित किए रह सकती है। उस शक्ति से बढ़कर भरोसे की शक्ति संसार में दूसरी नहीं, वही सच्चा पिता, सच्चा प्रेमी और मित्र है। उसके सहारे में हजार हाथियों का बल है।”

नब्ज़ देखकर डॉक्टर यह बता सकता है कि आपकी अमुक बीमारी है। आचरण देखकर व्यक्ति की सफलता-असफलता के पूर्व अनुमान भी किए जा सकते हैं, वर्तमान परिस्थितियों से भविष्य की परिस्थितियों का पता भी किया जा सकता है, किन्तु भगवान ने यह सृष्टि ऐसी अनोखी बनाई है कि इसमें किसी की भावनाओं की गहराई नहीं परखी जा सकती, कदाचित् कोई उसे जान भी ले तो उसकी आकाँक्षाओं के अनुरूप साथ भी दे जाए ऐसा  सर्वथा  सम्भव  नहीं । यहाँ तो भगवान् भी एकाँकी छूट गया, ईसा को भी क्रूस लग गया। अपने लिए जिन्होंने जीवन भर कुछ सोचा ही नहीं, उन महात्मा गाँधी को गोली का शिकार होना पड़ा। संसार का तो अर्थ ही है- “जहाँ व्यवहार में साँसारिकता, स्थूलता और जड़ता का बाहुल्य हो।” ऐसी अवस्था में सब कोई मन की समझ लें, मान लें, ऐसा नितान्त सम्भव नहीं। जीवन में मृत्युपर्यन्त ऐसे क्षण आते ही रहते हैं, जब व्यक्ति अकेला छूट जाता है। जब सहारे के लिए और कोई शेष नहीं रह जाता, तब भगवान का ही एकमात्र सहारा रह जाता है।

उस सहारे में बड़ी शक्ति है। जब सब ओर से निराश आत्मा भगवान् से प्रार्थना करती है तो ऐसा लगता है कि अन्तःकरण शक्ति के आदि स्रोत से सम्बन्धित हो गया है। फिर दूसरे सहारे न मिलें तो मनुष्य एकाकी भी उतना कर सकता है, जितना करोड़ों मनुष्य मिलकर भी नहीं कर सकते।

महात्मा गाँधी से एक बार एक महिला ने पूछा- “बापू! आपका शरीर तो इतना कमजोर है कि सौ-दो-सौ मील की यात्रा का भार भी सहन करना कठिन हो जाये, फिर आप सारे भारतवर्ष को किस तरह जगाते घूमते हैं, आप तो जिधर निकल जाते हैं, वहीं लाखों लोग आँधी-तूफान की तरह जाग पड़ते हैं, क्या आपको इतना परिश्रम करने और फिर भी कोई फल न मिलने पर थकावट और निराशा नहीं होती?”

इस पर बापू ने जो उत्तर दिया वह लाखों व्यक्तियों के जीवन में उत्साह, साहस और शक्ति भर देने की कुँजी के समान है। उन्होंने बताया- “मैं जब सब ओर से थक कर निराश हो जाता हूँ, तब भगवान को पुकारता हूँ, उसकी ओर हाथ फैला देता हूँ, प्रार्थना मेरी आत्मा का भोजन है उसी से मुझे इतनी शक्ति मिलती है कि मैं अकेला रहकर भी कभी थकावट अनुभव नहीं करता।”

सच पूछा जाये तो मनुष्य स्वास्थ्य न होने, रुपया, पैसा, धन और सम्पत्ति न होने से भी कभी निराशा या थकावट अनुभव नहीं करता ऊब और बेचैनी तो तब होती है, जब यह अनुभव करता है कि उसे बहुत समीप से प्रेम करने वाला कोई रिश्तेदार नहीं रहा। “भावनाओं के समर्थन और प्रेम की भूख” यदि अतृप्त रहे तो वही मनुष्य को तोड़कर रख देती है। उन्मुख प्रेम की आकाँक्षा ही मनुष्य जाति को जीवित किए हुये है किसी व्यक्ति को जब साँसारिक प्रेम भी नहीं मिलता तो स्वाभाविक ही है कि उसे संसार फीका लगे। ऐसे समय में हम अपने जीवन के आविर्भाव की ओर एक प्रश्न भरी दृष्टि से ताकते हैं और अपने आपसे पूछते हैं कि यदि स्वार्थ और दूसरों को न परख सकना ही संसार है तो भगवान तूने ऐसी सृष्टि क्यों बनाई?

इस प्रश्न के साथ एक उत्तर भी अन्तःकरण से आता है-सबसे समीपवर्ती रिश्तेदार का जिससे हम ओत-प्रोत हैं, जिसने हमें बनाया है, वह साकार है तो क्या-निराकार है तो क्या-कहता है “और कोई हो न हो पर मैं तुम्हारा हूँ।” तुम्हारी हर इच्छा पूर्ण करने के लिये माता के समान तुम्हारे समीप ही तो खड़ा हूँ। अन्तःकरण की यह आवाज कितनी शक्ति देती है, यह तो कोई ईश्वर का भक्त ही समझता है।

कष्ट की अनुभूति में भगवान की अनुभूति का ऐसा ही चित्रण वाल्टेयर के इन शब्दों में टपकता है-”कोई नास्तिक व्यक्ति दुख की अवस्था में भी इसीलिये लटका रह जाता है, क्योंकि उसे अन्तर्भूत सत्ता पर विश्वास नहीं पर भीतर झाँकते हुए आस्तिक को वहीं से आत्म-बल मिल जाता है। इसलिये मुझे तो विश्वास है कि भगवान कहीं न कहीं है और यदि नहीं है तो भी उसकी सृष्टि करना बहुत आवश्यक है। मैंने प्रयोग करके देख लिया, जब भगवान भी मेरी रक्षा नहीं करता, तब उसका विश्वास मेरी रक्षा करता और साहस बढ़ाता है, इसीलिये मैं जब जब जीवन धारण करूंगा, पहले ईश्वर पर आस्था रखने वाला बनना चाहूँगा पीछे और कुछ।”

परमात्मा यदि साकार नहीं, कोई वैज्ञानिक शक्ति है। तो भी हमारा उसके साथ सबसे समीपवर्ती रिश्ता होना चाहिये। समीपवर्ती रिश्ते से प्रेम इसलिये होता है कि हम उससे अपना वह सब कुछ भी प्रकट कर सकते हैं, जिसके प्रकट न करने से मन में क्षोभ की गाठें पड़ जाती, बोझ बढ़ जाता। तब जबकि भगवान आत्म-चेतना का सबसे समीपवर्ती प्रेमास्पद है, हम उससे वह भी नहीं कह सकते? यदि नहीं कह सकते तब हम उससे दूर हैं और इसी से कमजोर हैं, परमात्मा के बहुत समीप आ जाने पर मनुष्य अशक्त और निराश नहीं रह सकता। उसके प्रति प्रेम जितना बढ़ता जायगा, जीवन में आनन्द और उल्लास का स्रोत उतना ही उमड़ता चला जायेगा। स्वामी रामतीर्थ कहा करते थे-

   वादए-वस्ल चूँ शवद नजदीक, आतिशे-शौक तेजतर गर्दद।

उस परमात्मा से मिलने, उसमें एक हो जाने की आकाँक्षा जितनी तीव्र होती जायेगी। शौक अर्थात् आनन्द की अग्नि उतनी ही उद्दीप्त होती चलेगी।



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