संशयात्मा-विनश्यति

May 1970

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आम यद्यपि पक चुका था, भला इसी में था कि किसी को तृप्ति बनता पर वृक्ष में लगे रहने का मोह छूटा नहीं। पेड़ का मालिक पके आमों की खान-बीन करने वृक्ष पर चढ़ा भी पर आम पत्तों की झुरमुट में ऐसा छिपा कि हाथ आया ही नहीं।

दूसरे दिने उसने देखा कि उसके सब पड़ोसी जा चुके, उसका अकेले ही रहने का मोह नहीं टूटा था और अब मित्रों की विरह व्यथा और सताने लगी।

आम कभी तो सोचता नीचे कूद जाऊँ और अपने मित्रों में जा मिलूँ फिर उसे मोह अपनी ओर खींचता, आम उसी उधेड़-बुन में पड़ा रहा।

संशय का यही कीड़ा धीरे-धीरे फल को खाने लगा। एक दिन उसका सारा रस चूस लिया सूखी बोड़ी नर-कंकाल के समान पेड़ में लगी रह गई।

आम की आत्मा यह देखकर बहुत पछताई कुछ संसार की सेवा भी न बन पड़ी और अन्त भी हुआ तो ऐसा दुःखद।

इतनी कथा सुनाने के बाद वशिष्ठ ने अजामिल से कहा- वत्स! समझदार होकर भी जो साँसारिकता के मोह में फँसे- “अब निकलें, अब निकलें” सोचते रहते हैं, उनका भी अन्त ऐसे ही होता है।


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